ये एक युग का अवसान है। एक सितारे का दुनिया की नज़रों से ओझल हो जाना है। भारतीय फुटबॉल की शानदार परंपरा का थोड़ा और छीज जाना है। उसके गौरव का कालातीत हो जाना है। ये भारतीय फुटबॉल की सुप्रसिद्ध त्रयी की आखिरी मूर्ति का ढह जाना है। भारतीय फुटबॉल के एक सबसे शानदार खिलाड़ी तुलसी बलरामन ने 86 वर्ष की उम्र में इस संसार को अलविदा जो कह दिया है। दरअसल ये एक त्रासद मायूस और अपमानित जीवन का अंत भी है।
बीती शताब्दी के 50 और 60 के दो दशकों का समय भारतीय फुटबॉल का स्वर्णिम युग था। और पीके बनर्जी,चुन्नी गोस्वामी और तुलसी बलरामन उस समय के सबसे चमकते सितारे थे जिन्होंने अपनी प्रतिभा से भारतीय फुटबॉल को उसके चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया था। वे भारतीय फुटबॉल की एक त्रयी बनाते हैं। वे भारतीय फुटबॉल के ब्रह्मा विष्णु महेश ठहरते थे।
पिछले तीन सालों में भारतीय फुटबॉल के इन तीन सर्वश्रेष्ठ फरवार्डों ने, तीन दोस्तों ने, भारतीय फुटबॉल के तीन 'मोशाय बाबुओं' ने एक एक करके इस दुनिया को अलविदा कह दिया। सबसे पहले 20 मार्च 2020 को पीके दा गए। फिर उसी साल 30 अप्रैल को चुन्नी गोस्वामी गए। और अब 16 फरवरी 2023 को तुलसी बलरामन। इन तीनों ही ने भारतीय फुटबॉल के मक्का कोलकाता को अपनी कर्मभूमि बनाया और यहीं से इस नश्वर संसार से विदा ली। बलराम भले ही जन्मना बंगाली ना हो,उन्होंने जन्म हैदराबाद राज्य के सिकंदराबाद के एक गांव में लिया हो, लेकिन उन्होंने ज़िंदगी भर कोलकाता में खेला और उसके ही एक उपनगर उत्तरपाड़ा को रिहाइश के लिए चुना।
नियति किस तरह से जीवन को त्रासद बना सकती है और उसे अंतर्विरोधों से भर सकती है,ये जानना हो तो एक बार बलराम के जीवन को ज़रूर देखना चाहिए। पीके और चुन्नी की तरह ही उन्होंने शानदार फुटबॉल खेली,उसे समृद्ध किया और नाम कमाया,लेकिन उन्हें कभी भी अपना दाय नहीं मिला। वे कभी भी उस तरह की प्रसिद्धि नहीं पा सके ,उस तरह का सम्मान नहीं पा सके जिस तरह का उनके दोनों साथियों को मिला। विशेष रूप से खेल से सन्यास लेने के बाद। उनकी हमेशा उपेक्षा हुई। अपमान हुआ।
उन्हें अर्जुन पुरस्कार के अलावा कोई पुरस्कार नहीं मिला। उनके दोनों साथियों को पद्मश्री मिला। उन्हें नहीं। एक बार इसके लिए बहुत सारी औपचारिकताएं भी पूरी कर ली गईं पर एन समय पर उन्हें उससे वंचित कर दिया गया। ये बिल्कुल वैसे ही था जैसे किसी के मुँह में जाते कौर को छीन लिया जाए। ऐसे ही उन्हें एक बार चयनकर्ता बनाया गया, लेकिन टीम बिना उनकी जानकारी के चुन ली जाती। ऐसे अपमान के अनेक उदाहरण हैं जब भारतीय फुटबाल प्रशासन ने उनकी उपेक्षा की एआ अपमान किया।
वे 'फुटबॉलिङ्ग सेंस' और प्रतिभा के धनी थे लेकिन जन्म से बहुत गरीब थे। जब 18 साल की उम्र में उन्हें एक स्थानीय प्रतियोगिता में खेलते देख लीजेंड कोच सैय्यद अब्दुल रहीम ने उनकी प्रतिभा पहचान उन्हें संतोष ट्रॉफी के लिए ट्रायल के लिए आमंत्रित किया तो उनके पास अपने घर बोलाराम से हैदराबाद आने के लिए पैसे नहीं थे। बाद में खुद रहीम साब ने उन्हें पैसे दिए।
ये बात 1956 की है। उनका संतोष ट्रॉफी के लिए हैदराबाद की टीम में चयन हो गया। उस साल ये प्रतियोगिता एर्नाकुलम में सम्पन्न हुई थी और फाइनल मैच हैदराबाद और बॉम्बे के बीच खेला गया। मैच अनिर्णीत रहा तो दुबारा खेला गया। इस मैच में बलराम ने शानदार खेल दिखाया। ये भारतीय फुटबॉल के नए सितारे का उदय था। उस मैच में वे आउटसाइड लेफ्ट की जगह इनसाइड राइट की पोजीशन पर खेल और 4-1 की हैदराबाद की जीत में दो गाल किए।
उसी साल उनका चयन भारतीय टीम में हो गया। उन्होंने अपना पहला अंतरराष्ट्रीय मैच 1956 में मेलबोर्न ओलंपिक में यूगोस्लाविया के खिलाफ खेला और अगले 6 सालों तक भारतीय फुटबॉल टीम के अनिवार्य और महत्वपूर्ण खिलाड़ी बने रहे। 1956 से 1962 का ये समय भारतीय फुटबॉल का स्वर्णकाल माना जाता है। इस दौरान वे 1956 के मेलबोर्न और 1960 के रोम ओलंपिक,1958 के एशियन खेल और 1962 के जकार्ता एशियन खेल में स्वर्ण पदक विजेता टीम और 1959 में मर्देका प्रतियोगिता की उपविजेता टीम के सदस्य रहे।
उन्होंने भारत के लिए 26 अंतरराष्ट्रीय मैच खेले और कुल आठ गोल किए। लेकिन ये आंकड़े उनकी प्रतिभा की सही तस्वीर प्रस्तुत नहीं करते। वे बिला शक भारत के सार्वकालिक महानतम खिलाड़ियों में एक थे। ये वो समय था जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर टोटल फुटबॉल आकार ले रही थी और क्रुयफ़ की अगुवाई में हॉलैंड की फुटबॉल टीम को इसका सर्वश्रेष्ठ निदर्शन करना था। उस समय बलराम टोटल फुटबॉल खेल रहे थे जो लेफ्ट विंग, राइट विंग, सेंटर या अटैकिंग मिडफील्डर किसी भी पोजिशन पर खेल सकते थे। उनका बॉल पर गज़ब का नियंत्रण होता था और वे शानदार ड्रिबलिंग करते और इतनी गति से करते कि किसी भी विपक्षी टीम के लिए उन्हें रोकना मुश्किल होता। वे शानदार पासिंग करते। खिलाड़ियों की पोजीशन का वे सटीक अंदाज़ लगा लेते। उनकी शानदार पासिंग के लिए एक बार सुप्रसिद्ध फुटबॉलर अरुण घोष ने कहा था कि 'उनकी पीठ पर भी दो आंखें हैं।' जबकि उनकी विपक्षी खिलाड़ी से गेंद पुनः छीन लेने और तीव्र गति से काउंटर अटैक की उनकी काबिलयत के कारण दूसरे सुप्रसिद्ध फुटबॉलर सुभाष भौमिक उन्हें फ्रांस के हेनरी थियरी के समकक्ष रखते हैं।
अगर आपको उनकी गति और ब्रिलियंस देखनी है तो 1960 के रोम ओलंपिक के हंगरी के खिलाफ मैच की रिकॉर्डिंग देखिए। हंगरी ने ग्रुप में फ्रांस को 6-1 और पेरू की टीम 7-2 से हराया था। लेकिन भारतीय टीम को बमुश्किल 2 -1 से हरा पाई। इसमें बलराम ने अद्भुत खेल दिखाया और गेंद पर अद्भुत नियंत्रण और गज़ब की गति भी। उन्होंने 79वें मिनट में भारत के लिए गोल किया। वे इतना शानदार खेल और इतनी गति से खेल रहे थे कि हंगरी के लिए उनको रोक पाना बहुत कठिन हो रहा था और वे बार बार फिजिकल हो रहे थे। उनका एक और अविस्मरणीय मैच 1958 के एशियन खेलों में हांगकांग के खिलाफ क्वार्टर फाइनल मैच है। ये मैच रेगुलर समय तक 2-2 की बराबरी पर था जिसे भारत ने अतिरिक्त समय 5-2 से जीता। अतिरिक्त समय में बलराम ने चोट के बावजूद एक गोल किया और दो असिस्ट की।
उन्होंने क्लब कॅरियर की शुरुआत 16 साल की उम्र में 1954 में हैदराबाद की आर्मी कॉम्बैट फ़ोर्स की टीम से की। 1957 में वे कोलकाता की ईस्ट बंगाल टीम में आ गए। शीघ्र ही अपने खेल और क्लब के प्रति अपनी लॉयल्टी के कारण उसके समर्थकों में ना केवल अत्यधिक लोकप्रिय हो गए बल्कि देवता की तरह पूजे जाने लगे। वे इतने लोकप्रिय थे कि जब एक बार मोहन बागान ने अपने क्लब में शामिल करने का प्रयास किया तो हज़ारों क्लब समर्थकों ने प्रदर्शन किया और मोहन बागान के प्रयास को निष्फल कर दिया। ईस्ट बंगाल के लिए उन्होंने 1957 और 1960 में डीसीएम ट्रॉफी, 1958 में आईएफए शील्ड ट्रॉफी, 1960 में डुरंड कप,1962 में रोवर्स कप जीता। 1961 में क्लब के कप्तान बने और उस साल न केवल नौ वर्ष के अन्तराल के बाद ईस्ट बंगाल को कलकत्ता लीग जितायी बल्कि आईएफए शील्ड जिताकर डबल भी पूरा किया। लीग के फाइनल में बागान के सुप्रसिद्ध डिफेंडर जरनैल सिंह को छका कर एक अविष्मरणीय गोल किया। जरनैल सिंह उन्हें सबसे खतरनाक फारवर्ड मानते थे। उन्होंने ईस्ट बंगाल क्लब के लिए कुल 104 गोल किये और 1961 में गोल्डन बूट खिताब से उन्हें नवाजा गया।
1963 में आर्थिक सुरक्षा की दृष्टि से ईस्ट बेंगाल छोड़कर बीएनआर(बेंगाल नागपुर रेलवे) टीम में आ गए। लेकिन सांस की बीमारी के कारण उन्हें शीघ्र ही खेल को छोड़ना पड़ा।
निसंदेह वे एक शानदार खिलाड़ी थे जिन्होंने भारतीय फुटबॉल को उनके मुकाम तक पहुंचाने में अपना प्रतिभाग किया। लेकिन दुर्भाग्य है कि हम अपने सच्चे महानायकों का सम्मान करना नहीं जानते। हम ना तो उनके जीते जी सम्मान कर पाते हैं और ना ही मरने के बाद ही। तुलसी बलरामन एक उदाहरण भर हैं।
और इसीलिए एक ऐसा ख़िलाड़ी जिसने बहुत उत्साह से शानदार फुटबॉल खेली, खेल को ऊंचाइयों पर पहुंचाया, उसके जीवन की समाप्ति एक बहुत ही निराश,एकाकी,अभावग्रस्त और गुस्से से भरे व्यक्ति के रूप में हुई।
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अलविदा लीजेंड। अलविदा बलराम ।
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