ये साल 1975 था। तारीख 15 थी। और महीना मार्च का।
भारत में अभी भी आपातकाल की घोषणा होने में तीन महीने का समय बाकी था। क्रिकेट के स्वरूप को बदल देने वाले प्रुडेंशियल क्रिकेट विश्व कप के शुरू होने में भी इतना ही समय शेष था। इतना ही नहीं भारत की हॉकी को श्री हीन कर देने वाले एस्ट्रोटर्फ को पहली बार इंट्रोड्यूस करने वाले मॉन्ट्रियल ओलंपिक के आयोजन में भी अभी साल भर का समय था।
उस समय हमारी आमद बचपन और किशोरावस्था की संधि बेला में हो चुकी थी,लेकिन टीन ऐज अभी भी साल,दो साल की दूरी पर थी। क्रिकेट में हमारी थोड़ी रुचि बढ़ने लगी थी। दर्शकों की डिमांड पर छक्का लगाने वाले सलीम दुर्रानी,फॉरवर्ड शार्ट लेग पर फील्डिंग करने वाले असाधारण फील्डर एकनाथ सोलकर और फ्लाइट के जादूगर प्रसन्ना जैसे खिलाड़ियों के रास्ते क्रिकेट दिल में उतरने की जद्दोजहद करने लगा था। लेकिन दिल का बड़ा क्या लगभग सारा का सारा हिस्सा अभी भी हॉकी के हवाले ही होता था। ध्यानचंद,केडी सिंह बाबू,पृथ्वी सिंह,रूप सिंह,बलबीर सिंह सीनियर जैसे खिलाड़ियों के जादुई किस्सों को सुनते हुए हम बड़े हो रहे थे और अशोक कुमार,गोविंदा,सुरजीत,माईकेल किंडो,फिलिप्स गोविंदा और अजीतपाल सिंह जैसा खिलाड़ी बनने का सपना लेकर हॉकी हाथों में लिए रोज़ शाम को खेल मैदान में जाना शुरू हो गया था।
ऐन उस समय भारतीय खेल इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जुड़ रहा था। भारत किसी खेल में पहली बार विश्व चैंपियन बन रहा था। उसके सर हॉकी के विश्व चैंम्पियन का ताज जो सज रहा था।
वो साल 1975 के मार्च की 15वीं तारीख थी। मलेशिया की राजधानी कुआलालंपुर के मर्देका स्टेडियम में खेले गए तीसरे हॉकी विश्व कप के फाइनल में भारत अपने परंपरागत प्रतिद्वंदी पाकिस्तान को 2-1 से हराकर ना केवल अपना पहला और अब तक का अपना एकमात्र खिताब जीत रहा था बल्कि हॉकी के छीजते गौरव को पुनर्स्थापित भी कर रहा था।
हॉकी विश्व कप की ये जीत भारतीय खेल इतिहास का एक ऐसा स्वर्णिम पल था जो आवाज के जादूगर जसदेव सिंह के माध्यम से हमारे दिल पर कभी ना मिटने के लिए अंकित हो रहा था। आज भी ऐसा लगता है जैसे ये अभी कल की ही घटना है। क्या ही कमाल है जैसे जैसे हम उम्रदराज होते हैं हमें निकट भूत का बहुत कुछ याद नहीं रहता लेकिन दूर अतीत ऐसे याद आता है जैसे वो कल ही घटा हो। इस विश्व कप की जीत की यादें भी ऐसी ही यादें हैं।
उस समय तक भारत में टीवी का आगमन तो हो चुका था। लेकिन उसका अस्तित्व आठ दस बड़े शहरों तक बहुत सीमित मात्रा में मौजूद था। उन दिनों खेलों को हम स्टेडियम के किसी कोने में उपस्थित कमेंटेटरों की आंख से देखा करते थे। उस पूरे टूनामेंट को भी हमने ऐसे ही देखा था।
फाइनल मैच हॉकी के परंपरागत प्रतिद्वंदियों भारत और पाकिस्तान के बीच था। उस समय ये दोनों टीमें हॉकी की सबसे बड़ी टीमें हुआ करती थीं। ऐसे में मैच में एक अतिरिक्त तनाव और उत्तेजना का होना स्वाभाविक था। उम्मीद के अनुरूप ही वो ऐतिहासिक फाइनल मैच बहुत तेज गति से खेला गया। पाकिस्तान ने शरूआत में कुछ बेहतरीन मूव बनाए। उसने दूसरे ही मिनट में पेनाल्टी कॉर्नर अर्जित किया और मंज़ूरुल हसन ने गेंद गोल में डाल दी। लेकिन रेफरी ने गोल नहीं माना क्योंकि गेंद डी पर स्टॉपर द्वारा ठीक से नहीं रोकी गई थी। मैच का पेस और पिच स्थापित हो चुका था। मैदान में जितनी उत्तेजना व्याप गई थी उससे कहीं अधिक उतेजना और तनाव हज़ारों किलोमीटर दूर बैठे मैच का आंखों देखा हाल सुन रहे सैकड़ों हॉकी प्रेमियों के दिलों में व्याप गया था।
एक और फॉरवर्ड्स ताबड़तोड़ हमले कर रहे थे दूसरी और डिफेंडर हार्ड टैकल। छठवें मिनट में हीं मंज़ूरुल के टैकल से अशोक कुमार मैदान में पड़े कराह रहे थे और तेरहवें मिनट में पाकिस्तानी राइट इन समीउल्लाह वरिंदर की स्टिक से ज़मीन पर थे और दाहिने कंधे में चोट खाकर मैदान से और मैच से ही बाहर नहीं हो रहे थे बल्कि पाकिस्तान को को भी मैच से बाहर कर रहे थे। समीउल्लाह की जगह सफदर अब्बास आए।
सफदर अब्बास समीउल्लाह जितने प्रभावी भले ही ना हों, पर पाकिस्तान ने आक्रमण जारी रखे और अंततः 18वें मिनट में उसको पहला गोल करने में सफलता मिली। तेजतर्रार फारवर्ड लेफ्ट इन मोहम्मद सईद ने वरिंदर सिंह से गेंद छीनी और और गोली की गति से ड़ी में घुसे और भारतीय गोलकीपर अशोक दीवान को छकाते हुए पाकिस्तान को 1-0 से आगे कर दिया। भारतीय फैंस सकते में थे।। इससे पहले एक गोल अमान्य हो चुका था। उस पेनाल्टी को अर्जित करने वाले भी मोहम्मद सईद ही थे।
इसके बाद भारत ने अपने आक्रमण को दाहिने छोर पर केंद्रित किया और गोल करने के कई मौके बनाए, लेकिन पहले हाफ गोल नहीं कर सके। पहला हाफ पाकिस्तान के पक्ष में 1-0 पर समाप्त हुआ। ये वो समय था जब मैच 35-35 मिनट के दो हाफ का हुआ करता था।
दूसरे हाफ में शुरुआती कुछ मौकों को छोड़कर भारत ने शानदार खेल दिखाया जिससे मैच धीरे धीरे पाकिस्तान के हाथों से छूटने लगा था। भारत के लिए बराबरी का गोल 46वें मिनट में उस समय आया जब फिलिप्स ने भारत के लिए चौथा पेनाल्टी कॉर्नर अर्जित किया जिसे सुरजीत सिंह ने गोल में बदल कर भारत को बराबरी पर ला दिया।
लगभग आठ मिनट बाद ही अशोक कुमार ने लांग कॉर्नर पर गोल कर भारत को 2-1 से बढ़त दिला दी। ये गोल एक खूबसूरत टीम वर्क था। अजीतपाल ने शॉट लिया। अशोक ने वो शॉट रिसीव किया ड्रिबल कर डी के अंदर गए और पास फिलिप्स को दिया,फिलिप्स ने पास फिर अशोक को दिया और अशोक ने गोल दाग दिया। अंत तक ये स्कोर बना रहा।
इस गोल की तुलना आप 1986 के माराडोना 'गोल्डन हैंड गोल'से कर सकते हैं। इसलिए नहीं कि ये गोल गलत था या गलत तरीके से किया गया था। बल्कि इसलिए कि ये भी उसी गोल की तरह विवादास्पद बना दिया गया और इसलिए भी इस गोल का परिणाम एक इतिहास रच रहा था।
ये एक विवादास्पद गोल था जिसका पाकिस्तान के खिलाड़ी ये कहकर विरोध कर रहे थे कि गेंद गोलपोस्ट से अंदर नहीं गई है। लेकिन उस मैच के रैफरी विजयनाथन बहुत बाद में भी उस गोल को याद करते हुए कहते हैं कि 'ये साफ गोल था। मैं गोलकीपर और स्ट्राइकर के एकदम पास खड़ा था। वीडियो से ये साफ हो जाता है कि वो स्पष्ट गोल था। फोटो और वीडियो झूठ नहीं बोलते। उस फ्रेम में मैं और नौ खिलाड़ी हैं लेकिन इस्लाउद्दीन कहीं आस पास भी नहीं हैं।' दरअसल वे उस पाकिस्तानी टीम के कप्तान इस्लाउद्दीन के उस दावे पर अपनी प्रतिक्रिया कर रहे थे कि अशोक कुमार द्वारा किया गया वो गोल स्पष्ट गोल नहीं था जिसे गलत तरीके से भारत को अवार्ड किया गया। बरसों बाद इस्लाउद्दीन ने अपनी आत्मकथा में भी एक अलग अध्याय 'गोल जो था ही नहीं' में भी अपना वही आरोप दोहराया था। वे एक सच को झूठ बनाने की लगातार कोशिश कर रहे थे।
इस जीत के साथ भारत ने अपना पहला विश्व कप खिताब जीत लिया था और अपने खोए गौरव को पुनर्स्थापित भी कर दिया था। ये अलग बात है कि वो बहुत ज़्यादा दिनों तक रहा नहीं। ऐसा क्यों हुआ ये फिर कभी।
भारतीय टीम के मैनेजर बलबीर सिंह सीनियर उस जीत के बाद कह रहे थे 'पिछले 10 वर्षों में ये भारत की पाकिस्तान पर सबसे शानदार जीत है।' दरअसल ये 1971 में पहले विश्व कप के समय फाइनल में भारत की पाकिस्तान के हाथों हार का स्वीट रिवेंज ही था। उस हार से भारत फाइनल में प्रवेश नहीं कर सका और अंततः केन्या को हराकर उसने कांस्य पदक जीता था। दूसरे विश्व कप में उसने फाइनल में प्रवेश किया। लेकिन वहां नीदरलैंड ने भारत को पेनाल्टी शूटआउट तक गए मैच में 4-2 से हरा दिया था।
1973 की भारतीय टीम बहुत मजबूत थी। शारीरिक रूप से भी और खेल कौशल की दृष्टि से भी। तभी तो जर्मन कोच ने कहा था 'यदि ये टीम मुझे मिल जाए तो इसे मैं इसे विश्व की होने वाली हर प्रतियोगिताओं का विजेता बना दूं।'
1975 की भारतीय टीम भी वैसी ही थी। उसे ग्रुप बी में घाना, अर्जेंटीना,ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और पश्चिम जर्मनी के साथ रखा गया था। तीन जीत, एक ड्रा और एक हार के साथ भारत अपने ग्रुप में प्रथम स्थान पर रहा था और सेमीफाइनल में भारत का मुकाबला मलेशिया से हुआ।
इस प्रतियोगिता का 13 मार्च को भारत और मलेशिया के बीच खेला गया सेमी फाइनल भी एक क्लासिक मैच था जिसमें मलेशिया ने जीत के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया था। उस भारतीय टीम के कप्तान अजीतपाल सिंह बताते हैं कि 'ये उनके लिए उस प्रतियोगिता का सबसे कठिन मैच था।'उस मैच में भारत खेल खत्म होने में लगभग पांच मिनट पहले तक 1-2 से पिछड़ रहा था। भारत का विश्व कप जीतने का सपना टूटने के कगार पर था। तभी कोच बलबीर सिंह सीनियर ने फुल बैक माइकेल किंडो की जगह असलम शेर खान को मैदान में उतारा। उसके कुछ क्षणों बाद ही भारत को पेनाल्टी कॉर्नर मिला। इसे असलम शेर खान ले रहे थे। आज भी याद आता है कमेंटेटर बता रहे थे हिट लेने से पहले उन्होंने गले में पड़े ताबीज को चूमा, उसके बाद हिट लिया, गेंद गोल में थी। स्कोर 2-2 हुआ। अतिरिक्त समय मे हरभजन गोल कर भारत को 3-2 से जिताकर फाइनल में पहुंचा दिया था। मलेशिया को ये हार अब तक सालती है। उस मैच में मलेशिया की ओर से पहला गोल करने वाले दातुन फूक लोक कहते हैं 'उस मैच की स्मृति को मिटाना असंभव है। वो हार अभी भी उदास करती है।'
दरअसल ये जीत और विश्व विजेता बनना भारत की छीजती गौरवपूर्ण हॉकी परंपरा को रोककर पुनर्स्थापित करने का आखरी प्रयास था। 1928 से 1956 तक लगातार ओलंपिक में 6 स्वर्ण पदक जीत चुका। उसके बाद की भारत की हॉकी अधोगति की ओर जाती हॉकी थी। 1960 में वो रजत पदक जीत सका था। 1964 में एक बार फिर स्वर्ण पदक जीता,लेकिन उसके बाद 1968 और 1972 में उसे मात्र कांसे के पदक से संतोष करना पड़ा।
उधर विश्व कप में भी 1971 के पहले संस्करण में तीसरे और 1973 के दूसरे संस्करण में दूसरे स्थान पर रहा था।
1975 के बाद हॉकी केवल एस्ट्रो टर्फ पर खेला गया। उसके बाद की हॉकी की कहानी एस्ट्रो टर्फ,नियमों में परिवर्त्तन, ऑफ साइड के नियम की समाप्ति, कलात्मकता को ताकत और गति द्वारा रिप्लेस करने और भारत व पूरे एशिया की हॉकी की अधोगति की कहानी है। भारत के लिए 1928 से शुरू हुआ एक चक्र 2008 में पूर्ण होता है जब वो ओलंपिक के लिए अहर्ता भी प्राप्त नहीं कर सका था।
अब एक बार फिर समय बदला है। धीरे धीरे हॉकी गति पकड़ रही है। पिछले मास्को ओलंपिक में कांस्य पदक जीता है। समय का चक्र फिर से घूम रहा है।
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अब जब 13 जनवरी 2023 से भारत में 15वां हॉकी विश्व कप आयोजित हो रहा है तो कुछ सपने देखने का और पुरानी ऊंचाइयों को महसूसने का अवसर तो बनता है ना।
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