Sunday, 31 July 2022

22वें राष्ट्रमंडल खेल_01

 आज कामनवेल्थ खेलों के दूसरे दिन भारोत्तोलन में भारत ने दो पदक जीते हैं। 56 किलोग्राम वर्ग में संकेत महादेव सरगर ने रजत और 61 किलोग्राम में पी गुरुराजा ने कांस्य पदक जीतकर जीतकर भारत के लिए पदकों का खाता खोला। ओलंपिक या विश्व प्रतियोगिता की तुलना में यहां रजत और कांस्य पदक जीतना बड़ी बात नहीं हो सकती और ये भी कि इन्हीं खेलों में आज देर रात तक चानू के स्वर्ण पदक जीतने की खबर आ जाए।


दरअसल इन पदकों का उल्लेख इसलिए जरूरी है कि गुरुराजा एक ट्रक चालक के बेटे हैं और संकेत के पिता चाय/पान की दुकान चलाते हैं। ये दोनों अपनी गरीबी से छुटकारा पाने के लिए खेलों में आते है और शीर्ष पर पहुंचते हैं। उनकी इस सफलता में जितना योगदान इनकी योग्यता,मेहनत और लगन का है उतना ही उनके कोच,कोचिंग स्टॉफ और उस सिस्टम का भी है जिसने सबसे निचली पायदान के बच्चों को भी शिखर पर पहुँचने का मौका दिया।


साई और 'टॉप्स प्रोग्राम' ने देश में खेल का एक माहौल तैयार किया है। हाँ,ये सिस्टम अभी भी इतना मजबूत नहीं है कि अमेरिका/यूरोप/चीन जैसे खिलाड़ी नहीं दे पाए। सिस्टम में कमियां भी कम नहीं है। लेकिन देश में खेल सिस्टम के अस्तित्व को ही पूरी तरह से नकार देना एकांगी सोच और दृटिकोण को ही ज़ाहिर करता है।

नीरज या उस जैसे किसी खिलाड़ी को केवल 'संयोग' मानना और भारत में खेल ढांचे को पूरी तरह से नकारना कोच, सपोर्टिंग स्टाफ और पूरे सिस्टम को ही आहत करना नहीं है बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से उस खिलाड़ी की मेहनत और योग्यता को आहत करना भी है। क्रिकेट, बैडमिंटन, शूटिंग, तीरंदाजी, बॉक्सिंग कुश्ती जैसे खेलों में सफलता संयोग से नहीं बल्कि खिलाड़ी की अपनी योग्यता,परिश्रम और लगन के साथ साथ पूरे सिस्टम के प्रयास से ही संभव होती है।

आवश्यकता से अधिक नकारात्मकता भी अच्छी बात थोड़े ही ना है।

Monday, 18 July 2022

वा-थो-हुक यानी चमकीले पथ का राही

 वा-थो-हुक यानी चमकीले पथ का राही


                         (गूगल से साभार)

ज़िंदगी कभी एकरेखीय नहीं चलती। सीधी सरल नहीं होती। इसमें इतने उच्चावच होते हैं और ये इतनी जटिल होती है कि कई बार चकित रह जाना पड़ता है। ये सुख-दुख के महीन रेशों से इतनी जटिल बुनावट वाली होती है कि इन दोनों को कैसे और कितने भी प्रयासों से कहां अलगाया जा पाता है। उम्मीदी और नाउम्मीदी की धूप छांव इस तरह एक दूसरे के गले में हाथ डालकर चलती हैं कि पता ही नहीं चलता कि किस पल धूप आए और किस पल छांव। जिदंगी एकदम सुफैद या स्याह नहीं होती। ये महानताओं और विडंबनाओं से बनी धूसर धूसर सी होती है। ये आम ओ खास हर एक किसी की ज़िंदगी की सच्चाई है।

जिम थोर्प दुनिया के महानतम एथलीटों में शुमार हैं। वे ओक्लाहोमा के 'सैक एंड फॉक्स' कबीले के नेटिव अमेरिकी थे। वे चाहते थे  उन्हें मृत्यु के बाद यहीं उनके मूल जन्म स्थान पर दफनाया जाए। लेकिन विडंबना ये कि 1953 में मृत्यु के बाद वहां से डेढ़ हजार किलोमीटर दूर पेंसिल्वेनिया के दो छोटे कस्बों मोच चंक और ईस्ट मोच चंक, जहां वे कभी गए ही नहीं, के बीच उनको दफनाया जाता है।

भूरे रंग के पत्थर से बनी उनकी कब्र पर उनके जीवन को प्रतिबिंबित करने वाली कुछ आकृतियां उकेरी गई हैं। एक दौड़ते एथलीट की,कूदते एथलीट की,हर्डल करते एथलीट की,डिस्कस फेंकते एथलीट की,एक बेसबॉल खिलाड़ी की, फुटबॉल खिलाड़ी की,एक नेटिव अमेरिकी की और एक साफा बांधे घुड़सवार की। अगर आप इन्हें ध्यान से देखेंगे और जिम के जीवन को उलटे पलटेंगे तो लगेगा कि ये आकृतियां जिम थोर्प के जीवन की सुसंगत गति और लयकारी वाले क्षणों को ही  रेखांकित करती हैं। लेकिन जीवन की लय हमेशा सुर में कहां होती है। कितना भी प्रयास करो जीवन लय को साधने में वो अक्सर बेसुरी हो ही जाती है। जिंदगी में तमाम ऐसे मौके आते हैं जब वो मृत्यु की तरह गतिहीन हो जाती है या फिर झंझावातों की तरह बेकाबू। अक्सर जीवन इतना जटिल हो जाता है कि कलम, कूँची या फिर छैनी हथौड़ा उसे अभिव्यक्त कर पाने में खुद को असहाय महसूस करने लगते हैं। शायद थोर्प की कब्र पर उसके जीवन को उकेरने वाले औजारों ने भी ऐसा ही महसूस किया होगा। तभी तो ये आकृतियां उनकी महानताओं को तो दिखाती हैं लेकिन उनके जीवन की विडंबनाओं को दिखाने वाली आकृतियां वे नहीं बन पाती।


                                                       (गूगल से साभार)

आधुनिक ओलंपिक 1896 में शुरू हुए। 16 साल बाद पांचवें ओलंपिक 1912 में स्वीडन की राजधानी कोपेनहेगन में हुए। पेंटाथलॉन और डिकाथलॉन स्पर्धाओं में अमेरिका की ओर से जिम थोर्प ने भाग लिया।

07 जुलाई को पेंटाथलॉन में जिम ने पहला स्वर्ण पदक जीता। इन खेलों में पदक जीतने वाले वे पहले नेटिव अमेरिकन थे। पेंटाथलॉन की 5 स्पर्धाओं (लंबी कूद,200 मीटर दौड़,जैवलिन थ्रो,डिस्कस थ्रो,1500 मीटर दौड़ और ) में से 4 में जिम थोर्प पहले स्थान पर रहे और अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी नॉर्वे के फेर्डिनेन्ड बे से 400 से भी ज़्यादा अंकों का अंतर था।

पहला स्वर्ण पदक जीतने के एक हफ्ते बाद 15 जुलाई  को डिकाथलॉन (दस स्पर्धाएं- 100 मीटर दौड़,लंबी कूद डिस्कस थ्रो,शॉट पुट,ऊंची कूद,400 मीटर दौड़,110 मीटर बाधा दौड़,पोल वॉल्ट,जैवलिन थ्रो और 1500मीटर दौड़) में जिम थोर्प ने कुल 8413अंकों के साथ नए रिकॉर्ड के साथ अपना दूसरा स्वर्ण पदक जीत रहे थे। उन्होंने स्वीडन के ह्यूगो वाइजलैंडर को लगभग 700 अंकों से पीछे छोड़ा। उनका ये रिकॉर्ड 1948 तक अजेय रहा। इन दोनों खेलों की कुल 15 स्पर्धाओं में से 8 में वे अव्वल रहे। ये एक अविस्मरणीय असाधारण प्रदर्शन था।

उनको पदक प्रदान करते हुए डेनमार्क के सम्राट गुस्ताव पंचम उनसे कह रहे थे 'श्रीमान,आप विश्व के महानतम एथलीट हैं।'उसके बरसों बरस बाद 1950 में भी लोग सम्राट की बात की ताईद कर रहे थे। उस साल अमेरिका की एसोसिएटेड प्रेस ने लगभग 400 खेल पत्रकारों के साथ एक पोल किया कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध का सर्वश्रेष्ठ एथलीट कौन है। इस पोल में जेसी ओवेन्स,बेब रुथ,जो लुइस, रेड़ ग्रेंज,जॉर्ज मिकन और बॉबी जोंस जैसे लीजेंड एथलीट थे। लेकिन थोर्प को इस पोल में  बाक़ी सारे एथलीटों को मिले कुल वोट से अधिक वोट मिले। उसी साल ही एसोसिएटेड प्रेस ने उन्हें अर्द्ध सदी का सर्वश्रेष्ठ अमेरिकन फुटबॉलर घोषित किया। 1963 में उन्हें 'प्रो फुटबॉल हॉल ऑफ फेम' में शामिल किया गया। 1967 में 'प्रो फुटबॉल हॉल ऑफ फेम वोटर्स ने एनएफएल की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर आल टाइम टीम में स्थान दिया। और फिर साल 2000 में भी एबीसी स्पोर्ट्स के पोल में बेब रुथ,जेसी ओवेन्स, मुहम्मद अली और माइकेल जॉर्डन से आगे उन्हें सदी का महानतम एथलीट घोषित किया गया।

वे केवल एथलीट ही नहीं थे। वे बेसबाल और अमेरीकन फुटबॉल के बेहतरीन खिलाड़ी थे। वे इनकी प्रोफेशनल लीग खेले हॉकी,टेनिस, बास्केटबॉल, सहित कुल 11 खेलों में प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने बॉलरूम डांस प्रतियोगिता भी जीती। इतना ही नहीं, वे कोच रहे,खेल प्रशासक रहे और एक अभिनेता भी। एक बहुआयामी व्यक्तित्व था उनका। उनपर दो पुस्तक लिखने वाले बॉब रेजिंग लिखते हैं 'उनका व्यक्तित्व इतना असाधारण और आकर्षक था कि अगर उनके समय में विज्ञापनों का चलन होता तो वे टाइगर वुड और माइकल जॉर्डन दोनों कुल कमाई से अधिक धन अर्जित करते।'

लेकिन उनके जीवन की कहानी उनकी महानताओं के किस्सों की रोशनी के बावजूद उस समय तक अधूरी है जब तक उसमें स्याह विडंबनाओं के किस्से नहीं जुड़ जाते। उनके जीवन की सबसे बड़ी विडंबना ही यही थी कि वे नेटिव अमेरिकन थे। एक नेटिव अमेरिकन होना उस समय कितना त्रासद होता था ये इस बात से समझा जा सकता है कि वे अपने देश में ही अजनबी बन गए थे और उन्हें अक्सर अपने देश के नागरिक होने का दर्जा नहीं मिलता था। उन्होंने अपना पूरा जीवन इसी भेदभाव के साथ बिताया। तमाम लोगों का मानना है उनके जीवन की विडम्बनाएं उनके नेटिव अमेरिकन होने के कारण ही थीं।

                                                      (गूगल से साभार)

1912 में कोपेनहेगन में शानदार प्रदर्शन कर दो गोल्ड जीतने के बाद वे पूरी दुनिया में जाने गए। पर 2013 के आते आते उनपर आरोप लगे कि उन्होंने वर्ष 1909 और 1910 में सेमी प्रोफेशनल लीग में भाग लिया है और सैलरी ली। उस समय ओलंपिक आंदोलन अपने आरंभिक दौर में था और उसको एमेच्योर बनाए रखने के लिए कड़े नियम थे। जिम थोर्प ने ओलंपिक कमेटी को लिखा 'मैं इसके लिए आंशिक रूप से ही दोषी हूँ। मैंने ऐसा पैसे के लिए बल्कि खेल के प्रति अनुराग में किया। मेरी गलती इतनी ही थी कि मैंने छद्म नाम से नहीं खेला जैसा अन्य लोग करते हैं।' लेकिन उनकी दलील नहीं मानी गई और उनसे दोनों गोल्ड छीन लिए गए और पेंटाथलॉन का गोल्ड नॉर्वे के फर्डिनेंड बे को और डिकाथलॉन का गोल्ड डेनमार्क के ह्यूगो वाइजलैंडर को दे दिया गया। इसे 'खेल दुनिया का पहला स्केंडल' कहा गया। और जिम थोर्प बिना किसी गलती के ताउम्र इस अपमान के दंश को लिए जीते रहे। अंततः 1953 में गरीबी की अवस्था और शराब की लत के साथ इस फानी दुनिया को विदा कहा। एक खिलाड़ी के जीवन की इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती थी कि एक ऐसा असाधारण प्रदर्शन करने के बावजूद ओलंपिक भावना को तोड़ने के आरोप और पदक छीने जाने के अपमान को सीने में छिपाए जीता रहे और अंततः मृत्यु को प्राप्त हो जाये।

लेकिन ये 'पहला खेल स्केंडल' नहीं बल्कि 'पहला बड़ा अन्याय' था जो जिम थोर्प के प्रति किया गया था। उनके समर्थक उनके लिए न्याय हेतु प्रयास करते रहे। ओलंपिक नियम के अनुसार कोई भी आपत्ति एक महीने के अंदर दर्ज होनी चाहिए थी लेकिन ये 6 महीने से भी ज़्यादा समय के बाद दर्ज की गई थी।  ओलंपिक कमेटी को अपनी गलती मानने में 69 वर्ष लगे। उन्हें सहविजेता घोषित किया गया। उनके एमेच्योर दर्ज़े और रिकॉर्ड को मान्यता दी। थोर्प को अपनी मृत्यु के 29 साल बाद न्याय मिला।

थोर्प के साथ न्याय तो हुआ पर आधा अधूरा। उन्हें सहविजेता घोषित किया गया था। 1912 के ओलंपिक में उनकी जीत इतनी बड़ी थी कि दोनों सहविजेताओं ने खुद को कभी विजेता स्वीकार नहीं किया। इसी को आधार बनाकर उनके प्रशंसकों ने ओलंपिक कमेटी से पुनः अपील की। अंततः ओलंपिक कमेटी ने इस बीते शुक्रवार 15 जुलाई 2022 को, पदक जीतने के 110 साल बाद उनको 1912 की दोनों ओलंपिक स्पर्धाओं का एकमात्र विजेता घोषित किया। लेकिन कानून का एक सिद्धान्त है 'जस्टिस डिलेड इस जस्टिस डिनाइड'। जिम थोर्प को ये न्याय उनकी मृत्यु के 69 साल बाद मिला।

मुश्किलें उनका पीछा यहीं नहीं छोड़ती। वे 1928 में खेल और खेल मैदान को अलविदा कहते हैं। 1929 में अमेरिका में आर्थिक मंदी का भयावह दौर शुरू होता है। जिम थोर्प घोर आर्थिक संकट में घिर जाते हैं। वे अपनी विपन्नता दूर करने और परिवार के पोषण के लिए फिल्मों में 'एक्स्ट्रा'के रोल सहित बहुत सारे काम करते हैं। पर विपन्नता से पार नहीं पा पाते। उन्हें शराब की लत लग जाती है। और अंततः 1953 में शराब के नशे में कैलिफोर्निया में उनकी मृत्यु हो जाती है।

मृत्यु केवल जीवन का अंत ही नहीं बल्कि समस्त सांसारिक आवेगों संवेगों से मुक्ति भी है। लेकिन जिम थोर्प के लिए उनकी सबसे बड़ी त्रासद घटना मृत्यु के बाद ही घटनी थी। मृत्यु के बाद उनके संबधी उनकी इच्छानुसार उनके जन्मस्थान ओक्लाहोमा लाते हैं जहां उनके कबीले की परंपरा के अनुसार तीन दिन के विधि विधान के बाद उनको दफनाया जाना था। लेकिन इस विधि विधान के बीच उनकी तीसरी पत्नी दृश्य पर पदार्पण करती हैं और शव को अपने कब्जे में लेकर अपने साथ ले जाती हैं। अंत्येष्टि संस्कार अधूरे रह जाते हैं। यहां उल्लेखनीय है कि उनकी तीसरी पत्नी पैट्रिशिया एसकेव 'व्हाइट' थीं।

अगले छह महीनों तक उनका शव ताबूत में ऐसे ही रखा रहता है। उनकी पत्नी तमाम सरकारों,संस्थाओं और लोगों से बात करती हैं कि महान एथलीट को दफनाने के लिए एक ऐसी उपयुक्त ज़मीन मिल सके जिस पर न केवल जिम को दफनाया जा सके बल्कि एक ऐसा स्मारक भी बनाया जा सके जिसे देखकर आने वाली पीढ़ियों की स्मृति में वे बने रहें। पर वे असफल रहती हैं। अंततः वे पेंसिल्वेनिया के दो छोटे कस्बों मोच चंक और ईस्ट मोच चंक के साथ अनुबंध करती हैं,जिम का शव उन्हें सौंप देती हैं और वहां उनका समाधि स्थल और स्मारक बनाया जाता है। 

उधर उनके पुत्र रिचर्ड थोर्प अब भी हार नहीं मानते। वे जिम थोर्प की इच्छानुसार उनके अवशेषों को ओकलाहोमा लाने और उनके अंत्येष्टि संस्कार को पूर्ण करने के लिए विधिक लड़ाई लड़ते हैं,पर असफल रहते हैं।

जिम थोर्प आज भी पेंसिल्वेनिया की उस अंजान जगह पर ब्राउन ग्रेनाइट पत्थर के नीचे अधूरी इच्छा और अधूरे संस्कारों के साथ चिरनिद्रा में अवस्थित हैं।

मई 1887 में उनके जन्म पर जिम थोर्प को 'वा थो हक' के नाम से पुकारा गया। जिसका अर्थ होता है 'चमकीला पथ'।  निःसंदेह वे अपने इस नाम को चरितार्थ करते हैं और खेल आकाश पर एक चमकता सितारा बन पूरे खेल आकाश को अपनी प्रतिभा की रोशनी से भर देते हैं। लेकिन ये नाम भी उनके आधे सच को ही सार्थक करता है। उनका जीवन सिर्फ रोशनी का पर्याय भर नहीं है,उसमें अंधेरा भी बराबरी का है।

मानव जीवन हमेशा अपूर्णताओं में रिड्यूस होता है। तभी वो मनुष्य कहलाता है। अगर उसके जीवन में सब कुछ महान होता,पूर्ण होता तो देवत्व को ना प्राप्त हो जाता। तब मनुष्य मनुष्य कहां रहा पाता। जिम थोर्प भी हमारे बीच के ही मनुष्य हैं जो अपूर्णताओं में जिए और उसी में मर गए। वे अपनी प्रतिभा के कारण बीसवीं सदी के महानतम एथलीट बनते हैं लेकिन उस महानता के प्रतीक दो स्वर्ण पदकों से ही वंचित नहीं रहते हैं,बल्कि अंतिम इच्छा के भी अपूर्ण रह जाने के लिए भी अभिशप्त होते हैं।

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दुनिया के महानतम एथलीट और उसकी स्मृतियों को नमन।

Thursday, 14 July 2022

दादा की दादागिरी और क्रिकेट



                                                 (गूगल से साभार)

खेल मैदानों पर कुछ ऐसे दृश्य बनते  हैं जो अपनी अंतर्वस्तु में इतने शक्तिशाली होते कि वे खेल प्रेमियों के दिलों पर हमेशा  के लिए अंकित हो जाते हैं और अविस्मरणीय बन जाते हैं। एक ऐसा ही दृश्य 13 जुलाई 2002 को लॉर्ड्स के मैदान पर बना था।

उस दिन नेटवेस्ट सीरीज का फाइनल मैच खेला गया। इंग्लैंड ने भारत को 326 रनों का मुश्किल लक्ष्य दिया था। लेकिन मो.कैफ और युवराज ने शानदार बल्लेबाजी की जिससे अंतिम 4 गेंदों में जीत के लिए भारत को 2 रन की दरकार थी। फ्लिंटॉफ के अंतिम ओवर की तीसरी गेंद ज़हीर खान ने  शार्ट कवर की ओर हल्के से पुश की और बराबरी के रन के लिए दौड़ पड़े। क्षेत्ररक्षक  रन आउट करने के प्रयास में ओवर थ्रो कर बैठे। कैफ और ज़हीर ने जीत के ज़रूरी एक रन भी बना लिया। भारत दो विकेट से जीत गया और क्रिकेट के मक्का लॉर्ड्स के पवेलियन की बालकॉनी में खड़े कप्तान सौरव गांगुली ने जीत की खुशी में अपनी शर्ट उतारकर हवा में लहरा दी।

गांगुली द्वारा शर्ट उतार कर हवा में लहराने का ये दृश्य अब ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुका है। दरअसल गांगुली का शर्ट उतारकर हवा में लहराना  बंगाल के 'भद्रलोक' के बाबू मोशाय की इमेज और लॉर्ड्स की क्रिकेटिंग परंपराओं से ही विचलन नहीं था बल्कि ये क्रिकेट के भद्रलोक की 'जेंटलमेन्स  खेल' इमेज और भारतीय खिलाड़ियों में मारक क्षमता और आक्रामकता ना होने वाली इमेज का ध्वस्त होना भी था। ये भारतीय क्रिकेट इतिहास की एक विभाजनकारी घटना थी। इससे आगे की भारतीय क्रिकेट आक्रामकता और जीत से लबरेज क्रिकेट थी।

क्या ही संयोग है कि भारतीय क्रिकेट इतिहास के दो सबसे बड़े और मील के पत्थर कहे जाने वाले दृश्य लॉर्ड्स के मैदान पर ही बनते हैं। पहला, 1983 में कपिलदेव द्वारा विश्व कप ट्रॉफी को हाथ में लेने वाला दृश्य और दूसरा, गांगुली द्वारा शर्ट लहराने वाला दृश्य। ये दो घटनाएं(1983 में विश्व कप जीतना और 2002 में विदेशों में जीतने का सिलसिला और विरोधियों को उन्हीं की भाषा में उनकी आंखों में आंखें डालकर जवाब देना) भारतीय क्रिकेट इतिहास की युगान्तरकारी घटनाएं हैं। कपिल देव और सौरव गांगुली दो ऐसे क्रिकेटर हैं जिहोंने भारतीय क्रिकेट को ना केवल सबसे अधिक प्रभावित किया बल्कि उसके चरित्र को बदल दिया। भारतीय क्रिकेट की दिशा और दशा को बदलने की दृष्टि से कपिल और सौरव देश के सबसे बड़े क्रिकेटर ठहरते हैं।

1983 में विश्व कप में जीत और एक क्रिकेटर के रूप में कपिल के व्यक्तित्व का भदेसपन क्रिकेट के इलीट चरित्र को मास में रूपांतरित कर देते हैं। अब क्रिकेट लोकप्रियता की सोपान चढ़ने लगता है। क्रिकेट मेट्रोपोलिटन क्लबों से निकलकर छोटे छोटे शहरों और कस्बों की गली कूंचों तक पहुंच जाता है। और इस दृष्टि से कपिल भारतीय क्रिकेट के सबसे बड़े खिलाड़ी ठहरते हैं।

अब भारत में क्रिकेट अपूर्व लोकप्रियता तो धारण करता है लेकिन विश्व कप में जीत और लोकप्रिय होने के बाद भी भारत विश्व क्रिकेट का सिरमौर नहीं बन पाता। विदेशों में जीत का कोई सिलसिला नहीं बनता। खिलाड़ियों के कंधे अभी भी अक्सर झुके रहते।

तब 1992 में भारतीय क्रिकेट परिदृश्य पर सौरव गांगुली का पदार्पण होता है। लेकिन एक मैच के लिए। एक ओडीआई के बाद ही उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। उनसे अपने व्यवहार में परिवर्तन लाने की अपेक्षा की जाती है। दरअसल वे बंगाल के भद्रलोक से आते थे और उनका व्यक्तित्व आभिजात्य से लबरेज था। लेकिन गांगुली ने बदलने से इनकार कर दिया। महान व्यक्तित्व ऐसे ही होते हैं। वे स्वयं नहीं बदलते बल्कि अपने समय और समाज को बदल देते हैं। गांगुली भी ऐसा ही करते हैं। वे स्वयं नहीं बदलते बल्कि भारतीय क्रिकेट और उसके चरित्र को ही बदल देते हैं।

उन्हें भारतीय टीम में रेगुलर जगह बनाने के लिए अगले चार साल इंतज़ार करना पड़ता है। ये वर्ष 1996 की बात है। अज़हरुद्दीन के नेतृत्व में भारतीय टीम इंग्लैंड के दौरे पर जाती है। वहां से ओपनर नवजोत सिंह सिद्धू कप्तान पर खराब व्यवहार करने का आरोप लगाकर भारत लौट आते हैं। तब सौरव की किस्मत पलटा खाती है और भारतीय क्रिकेट की भी। सौरव को भारतीय टीम में जगह मिलती है।

पहले टेस्ट मैच में सौरव को पहले 11 खिलाड़ियों में जगह नहीं मिलती। लेकिन दूसरे टेस्ट में सौरव को टीम में जगह मिलती है और वे सैंकड़ा ठोंक देते हैं। फिर अगले मैच में एक और शतक बनाते हैं। टीम में अपनी जगह पक्की कर लेते हैं। उसके बाद साल 2000 आता है। फिक्सिंग को लेकर भारतीय क्रिकेट में एक भूचाल आता है। कई खिलाड़ियों पर आरोप लगते हैं। उधर व्यक्तिगत कारणों से सचिन कप्तानी से हाथ खींच लेते हैं। ऐसे में टीम के उपकप्तान गांगुली को कप्तान बनाया जाता है। फिक्सिंग और बेटिंग से आक्रांत भारतीय क्रिकेट में ये  एक नए युग की शुरुआत थी।

गांगुली में टीम का नेतृत्व करने की अद्भुत क्षमता थी। दरअसल वे जन्मना लीडर थे। उन्होंने कप्तान बनते ही भारतीय क्रिकेट में बड़े बदलाव ला दिए।

पहला,उन्होंने भारतीय क्रिकेट टीम का नए सिरे निर्माण किया। इसमें अनुभव और युवा जोश का अद्भुत समन्वय था। एक तरफ सचिन, द्रविड़, कुंबले और लक्ष्मण थे। दूसरी तरफ तमाम नए खिलाड़ियों को टीम में जगह दी,उन्हें ग्रूम किया और उन्हें भरोसा दिया। सहवाग ,ज़हीर,हरभजन नेहरा,युवराज उनमें से कुछ नाम हैं। 

दूसरे, टीम को आक्रामकता प्रदान की जो अब तक टीम में अनुपस्थित थी। उनका मानना था आक्रमण श्रेष्ठ रक्षण है। वे खुद भी आक्रामक खेल के हिमायती थे और टीम को भी इस भावना से अनुप्राणित किया। अब टीम स्लेजिंग से घबराती नहीं थी बल्कि मैदान में विपक्षियों की ईंट का जवाब पत्थर से देना शुरू किया। इतना ही नहीं टीम हित में ऐसे निर्णय लिए जो और कोई नहीं ले सकता था। जैसे ओडीआई में राहुल से विकेटकीपिंग कराना,सहवाग मध्यक्रम से प्रोमोट करके ओपनिंग कराना। कोलकाता के ऐतिहासिक टेस्ट में लक्ष्मण को नंबर तीन पर भेजना भी एक साहसिक जोखिम भरा निर्णय था।

तीसरे,विदेशों में जीत का सिलसिला शुरू करना। सौरव ने अपनी कप्तानी की शुरुआत ही जीत से की और लगातार इस क्रम को बनाए रखा। कप्तानी में पहली ओडीआई सीरीज दक्षिण अफ्रीका से खेली और जीती। उसी साल आईसीसी नॉकआउट प्रतियोगिता में भारत को फाइनल में पहुंचाया जहां वे न्यूज़ीलैंड से हारे। ये 1983 के बाद पहला फाइनल था भारतीय क्रिकेट टीम का। भारत में ऑस्ट्रेलिया को टेस्ट सीरीज में 2-1 से हराया। 2002 में इंग्लैंड को नेटवेस्ट सीरीज में हराया।  2003 के विश्व कप में भारत को फिर फाइनल तक पहुंचाया जहां वे ऑस्ट्रेलिया से हारे। उसके बाद 2004 में पाकिस्तान को पाकिस्तान में ही टेस्ट और ओडीआई में हराया। 2004 तक आते आते वे भारत के सर्वश्रेष्ठ कप्तान के रूप में स्थापित हो चुके थे। वे अपनी कप्तानी में 49 में से 21 टेस्ट मैच में जीत दिलाते हैं जिसमें से 11 विदेशी धरती पर जीतते हैं,जबकि 15 ड्रा होते हैं। वे 146 एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैचों में कप्तानी कर 76 मैचों में जीत दिलाते हैं।

कई बार महेंद्र सिंह धोनी और विराट कोहली को एक कप्तान के रूप में उनसे अधिक सफल और बड़ा क्रिकेटर के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। ये सही है कि धोनी  और कोहली ने भारत को कहीं अधिक सफलता दिलाई। लेकिन भारतीय क्रिकेट के चरित्र को बदलने और भारतीय क्रिकेट को दिशा देने का काम गांगुली ने ही किया। धोनी और कोहली ने गांगुली द्वारा बनाए गए आधार  पर इमारत खड़ी करने का काम किया। गांगुली ने जिस रास्ते का निर्माण किया वे दोनों उस पर आसानी से आगे बढ़ सके। इन दोनों ने उस तरह से टीम का नवनिर्माण करने और भारतीय क्रिकेट को नई दिशा देने का काम नहीं किया जैसा सौरव ने किया। यही सौरव की महानता है और भारतीय क्रिकेट को देन है। दरअसल सौरव जिस नई राह का निर्माण करते हैं, धोनी और कोहली उस पर चलकर ही भारतीय क्रिकेट को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाते हैं।

सौरव अपने समकालीन सचिन,द्रविड़,कुंबले और लक्ष्मण के साथ मिलकर 'फेबुलस फाइव' की निर्मिति करते हैं। ये चारों क्रिकेटर भारत के महानतम खिलाड़ियों की श्रेणी में आते हैं। उनकी वैयक्तिक उपलब्धियां सौरव से कहीं अधिक हैं।उन्होंने क्रिकेट को अपने व्यक्तिगत प्रदर्शन से बहुत अधिक प्रभावित और समृद्ध किया है। लेकिन उन सबमें लीडरशिप का अभाव था। एक कप्तान के रूप में ये सभी असफल रहे या कोई उल्लेखनीय सफलता हासिल नहीं कर सके। भारतीय क्रिकेट को एक दिशा देने और उसके चरित्र को बदल देने का काम सौरव ही कर पाते हैं और इसी कारण  भारतीय क्रिकेट में कपिल के बाद दूसरे सबसे बड़े खिलाड़ी सौरव गांगुली ही ठहरते हैं। 

कपिल क्रिकेट के आभिजात्य को मास में रूपायित करके उसे लोकप्रियता के रथ पर सवार कर देते हैं तो गांगुली एक रक्षात्मक और हारों से सहमे क्रिकेट को हद दर्ज़े की आक्रामकता और सेल्फ बिलीफ के रथ पर सवारकर विजयपथ पर अग्रसारित कर देते हैं। बाकी सब खिलाड़ी इन दोनों का अनुगमन करते हैं।

इतना ही नहीं एक खिलाड़ी के रूप में भी सौरव महान ही ठहरते हैं। वे 113 टेस्ट मैच खेलते हैं जिसमें 16 शतकों की सहायता से 7212 रान्त और 311 एक दिवसीय मैचों में 22 शतकों की सहायता से 11373 रन बनाते हैं। वे मध्यम गति के उपयोगी गेंदबाज भी थे जिन्होंने टेस्ट में 32 और ओडीआई में 100 विकेट लिए।

 वे दाएं हाथ से गेंदबाजी करते और बांए हाथ से बल्लेबाजी। खब्बू खिलाड़ियों के खेल में एक खास तरह की मोहकता,एक एलिगेंस होती है,फिर वो चाहे जो खेल हो। सौरव की बल्लेबाजी में भी कमाल की मोहकता थी। ये अलग बात है वो उतनी और उस तरह की मोहक नहीं थी जैसी युवराज की बैटिंग थी। लेकिन थी तो अवश्य ही। इसका कारण शायद ये हो कि वे उस तरह के स्वाभाविक खब्बू खिलाड़ी नहीं थे जैसे जन्मना खिलाड़ी होते हैं। वे मूलतः दाएं हाथ के खिलाड़ी थे और उन्होंने सायास बाएं हाथ से खेलना सीखा। उनका फुटवर्क कमाल का था और वे समान अधिकार से फ्रंटफुट और बैकफुट पर खेलते। उनकी टाइमिंग लाजवाब थी और हैंड-आई कॉर्डिनेशन भी कमाल का था। ऑफ साइड में क्षेत्ररक्षकों के बीच गैप ढूंढने में वे माहिर थे। उनके ऑफ साइड पर स्कवायर कट और ड्राइव दर्शनीय होते थे। वे इसके मास्टर थे। तभी द्रविड़ उनको 'गॉड ऑफ ऑफ साइड' जैसे विशेषण से नवाजते हैं। और गेंद को बाउंड्री से बाहर मारने में तो उनका कोई सानी नहीं था।

        फिर भी, बिला शक सौरव गांगुली एक अद्भुत नेतृत्वकर्ता थे, एक शानदार बल्लेबाज थे और उपयोगी गेंदबाज तो थे ही। वे एक महान क्रिकेटर थे। आप उनके प्रशंसक हो सकते हैं या आलोचक भी हो सकते हैं। आप उनसे प्यार कर सकते हैं या घृणा भी कर सकते हैं। आप उनके खेल पर फिदा हो सकते हैं या उनकी उपेक्षा भी कर सकते हैं। आप उनकी तारीफ में कसीदे पढ़ सकते या या उन्हें गालियों से भी नवाज सकते हैं। पर एक बेहतरीन बल्लेबाज, शानदार कप्तान और भारतीय क्रिकेट को आक्रामक तेवर देने के उनके योगदान को नहीं नकार सकते। वे एक सम्पूर्ण क्रिकेटर थे।  वे भारतीय क्रिकेट के मील के पत्थर हैं।

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लव यू दादा।

राकेश ढौंडियाल

  पिछले शुक्रवार को राकेश ढौंढियाल सर आकाशवाणी के अपने लंबे शानदार करियर का समापन कर रहे थे। वे सेवानिवृत हो रहे थे।   कोई एक संस्था और उस...