Monday 1 February 2021

मेरे घर के सामने एक फ्लाई ओवर है



             


                  घर के ठीक सामने एक ओवरफ्लाई है। मुझे समझ नहीं आता कि मैं इसे सड़क ही समझूँ या सड़क से अलग कोई स्वतंत्र अस्तित्व। या दोनों ही। एक सवालिया निगाह से जब भी मैं उसकी ओर देखता हूँ तो वो हौले से मुस्कुराता है और फिर  कहता है

'अहं ब्रह्मास्मि'। मने 'अरे भाई मैं  सड़क ही हूँ'। 

फिर मेरे चेहरे को देखता है। मेरे चेहरे पर निश्चित ही उसे असमंजस के भाव दीखते  होंगे। उसे अब थोड़ा सा आनंद आने लगता है।

वो कहता है 'इसे दूसरी तरह से समझो'।

'मतलब'?

'तत त्वं असी'। मने 'सड़क ही मुझमें है'।

ये कहते हुए उसके चेहरे की भोली मुस्कान थोड़ी गहरी हो जाती है और फिर मुझे ऐसे ही छोड़कर निरपेक्ष भाव से अपने काम में संलग्न हो जाता है। 

कुछ भारी भरकम डम्पर आ रहे हैं। उन्हें अब वो अपनी पीठ से होकर उस पार उतार रहा है।

 मैं अब भी उसका सड़क से अलग अस्तित्व खोज रहा हूँ। एक बहुत बड़ा आर्च सामने दिखाई देता है। लगता है हां ये तो कुछ अलग है। पर कोई एक ऐसा बिंदु नहीं दीख पड़ता कि निश्चित तौर पर कहा जा सके कि यहां सड़क खत्म और फ्लाई ओवर शुरू। बस लगता है सड़क ने यहां अपना कद ऊंचा कर लिया है। ये उठान एक निश्चित ऊंचाई तक जाता है, फिर ढलान और फिर समतल। ना तो इस उठान में कोई अभिमान और ना ढलान में हीनता दीनता। अगर कुछ है तो बस अपने दर्द से उबरने का प्रयास भर। कितना दर्द है इस ऊंचाई के पीछे। इस दर्द को उसकी ऊँचाई से थोड़े ही ना देखा समझा जा सकता है। किसी के दर्द को जानने के लिए उसके भीतर उतरना पड़ता है और उसकी ऊंचाई को महसूसने के लिए उसे नीचे से देखना पड़ता है।

तो क्या है उसका दुःख? एक बार फ्लाई ओवर को नीचे से देखो तो सही। पता चलेगा। कितना गहरा दर्द होता है दो टुकड़ों में बांट दिए जाने का। उसकी सहोदर रेल ने ही तो उसे बांटा। उसके सीने को ही चीर दिया। अपना रास्ता बनाने के लिए। दिल चीरने से पहले ज़रा भी ना सोचा। दर्द वो भी अपनों का दिया कितना घनीभूत होता है ना। 

लेकिन दर्द हमेशा नकार ही लाए ज़रूरी तो नहीं। 'दुःख आदमी को माँजता भी तो है'।  दुख आदमी को कितना उदात्त भी बना देता है। बहुत सारी राहें ऐसी ही होती हैं। वे दुःख देने वालों को माफ करके आगे बढ़ जाती हैं। वे ना केवल उसे ही रास्ता देती हैं,उल्टे उसे निर्बाध बना देती हैं और इस प्रक्रिया में खुद को बहुत ऊपर उठा लेती हैं। हर उस सड़क की किस्मत में,जिसके सीने को चीरकर एक दर्द दे दिया जाता है,एक फ्लाई ओवर में बदल जाना नहीं होता। दुःख को अपनी ताकत बना लेना और  अपने सारे दर्द को अपने भीतर समो लेने का स्पेस क्रिएट कर लेना हर किसी के बस की बात कहां  होती है।

पर क्या ही कमाल है कि अपने जख्मों,अपने दर्द के झंझावात को अपने भीतर समेटे वो खुद को जिंदगी के रंग बिरंगे दृश्यों के बेहद खूबसूरत कोलाज से सजाए रहता है। उसकी पीठ पर ज़िंदगी के दृश्य पल पल बदलते रहते है, केलिडोस्कोप में बदलती खूबसूरत आकृतियों से। अभी अभी एक षोडशी ने स्कूटी रोकी है। वो एक सेल्फी ले रही है। उस ऊंचाई से दिख रहे अनंत स्पेस को अपने साथ सेल्फी में बांध लेना चाहती है, जैसे मन के अनंत स्पेस में उसने अपने सपने समेटे हैं। उधर दो लड़के रुकते हैं। वे अपनी सेल्फी में अपने पीछे ऊंची ऊंची इमारतों को साधना चाहते हैं अपनी ऊंची ख्वाहिशों की तरह। एक ट्रक हांफता सा धीरे धीरे चढ़ाई चढ़ रहा है जैसे उसका चालक अपनी ज़िंदगी नाप रहा है। चालक ट्रक थाम देता है। मानो ज़िन्दगी के शिखर पर पहुंचने की ललक को कुछ पल के लिए यहीं महसूस लेना चाहता हो। वो अब एक सेल्फी ले रहा है। वो फ्रेम में पहाड़ों को अपने कंधों के पीछे लाना चाह रहा है ठीक वैसे ही जैसे पहाड़ सी ज़िन्दगी को अपने कंधों पर ढो रहा है। ऐसे ही धीरे धीरे दिन चढ़ता जाता है। सूरज उसके एकदम ऊपर आ गया है वो सूरज जो सुबह उसके एक छोर पर था। ऐसा लगता है वो सूरज को भी रोज इसी तरह से इस छोर से उस छोर की सैर कराता है अपनी पीठ पर लाद कर। और ये फ्लाईओवर है कि बिना थके, बिना रुके अपनी पीठ पर असंख्य दृश्य बनाता जाता है,बनाता जाता है। 

उधर से कुछ बच्चे पीठ पर बैग लादे स्कूल से घर वापस जा रहे हैं। बेफिक्रे से,भले ही उनकी पीठ पर भविष्य का बोझ लदा हो। शोर मचा रहे हैं। उनमें से कुछ ऊपर आसमान में देखते हैं, जहां उन्हें कुछ परिंदे दिखाई पड़ते हैं बिल्कुल उनकी तरह अलमस्त। वे भी उछल कूद करने लगते हैं। कुछ बच्चे इधर उधर झांक रहे हैं। कुछ दूर तक ढ़ेले फेंक रहे हैं। फिर सारे बच्चे दूर दूर तक फैले मकानों के मकड़जाल को देखने लगे जाते हैं मानो भविष्य उन्हें उनके सामने पड़ी लंबी मकडज़ाल सी ज़िन्दगी का आईना दिखा रहा हो। पर वे उससे बेपरवाह से चहक रहे हैं। उनकी खुशियों से जो तेज निकल रहा है उससे सूरज की रोशनी कुछ और ज़्यादा चमकीली हो गयी है।  बाइक से एक जोड़ा उतरता है। हाथों में हाथ डाले। दुनिया से अनजाने। सामने पहाड़ों पर दूर तक फैली सारी हरियाली को अपनी आंखों में समेट लेना चाहते हैं कि आगे के जीवन के हरे भरे आँगन में प्यार की बरसात होती रहे। उनकी सेल्फी के बैकग्राउंड में जंगल की हरियाली फैल गयी है। 

सूरज अब दूसरे छोर पर आ गया है। उसका ताप उसकी रोशनी कम हो चली है। एक वृद्ध दंपति टहलते हुए जा रहे हैं। कंधे ज़िन्दगी के दबाव सहते सहते झुक से गए हैं। मुश्किलों के लाख थपेड़ों को सहने के बाद भी जीवन पूरी तरह शुष्क नहीं हुआ है। अभी भी जीवन में रस बाकी है। स्निग्धता बाकी है। वृद्ध एक सेल्फी के लिए इसरार करता है। वृद्धा के चेहरे पर बालसुलभ हया नुमाया हो जाती है। वे सेल्फी लेते हैं। ढलता सूरज उनके फ्रेम में चस्पां हो जाता है। वे धीरे धीरे लेकिन सधे कदमों से ढलान पर उतरने लगते हैं,अपनी ज़िंदगी की ही तरह।

गाड़ियां लगातार इधर से उधर दौड़ी जा रही हैं उसकी पीठ से होकर। जैसे ज़िन्दगी दौड़ी जाती है समय की पीठ पर सवार होकर। रात हो चली है। अब सूरज की रोशनी के बजाय बिजली के बल्बों से फ्लाई ओवर चमचमा रहा है। ज़िन्दगी ऐसी ही होती है। ज़िन्दगी की स्याह हक़ीक़तें कृत्रिम रोशनियों से ऐसे ही ढकी जाती हैं। अब रात जवां हो चली है। हल्के वाहनों की आवाजाही कम हो गई है। खुशियों का दिन विदा हो गया है। ग़म की रात गहराने लगी है। बड़े बड़े ट्रक और डम्परों की आवाजाही बढ़ गई है।

दिन रात ऐसे ही बीतते जाते हैं। पल पल दृश्य बदलते जाते हैं। दृश्यों से बने कोलाज के फ्रेम भी बदलते जाते हैं। अगर कुछ नहीं बदलता तो बस फ्लाई ओवर की सूरत और सीरत नहीं बदलती। काले तारकोल से पुती पीठ से दिन रात लोगों को इस ओर से उस ओर पहुंचाता रहता है और हर उस व्यक्ति की ज़िंदगी में, जो उससे होकर गुजरता है खुशियों के रंग भरता जाता है।

दुनिया में कुछ लोग भी ऐसे ही होते हैं जो ज़िन्दगी के दिए दर्द और अपनों के दिये ज़ख्मों को अपने भीतर समेटकर और ज़िंदगी के मुश्किलों के तारकोल से सनी होने के बावजूद दूसरों की ज़िंदगी को खुशनुमा रंगों की बारिश से सराबोर करते रहते हैं।

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क्योंकि वे कुछ व्यक्ति मेरे घर के सामने वाला फ्लाई ओवर होते हैं।

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