पहाड़ उसे हमेशा बहुत लुभाते हैं। वो जब भी पहाड़ देखती उसके भीतर का बालमन जाग जाता।
उस दिन पहाड़ पर घूमते हुए उसने उल्लसित स्वर में कहा 'पहाड़ अपनी ऊंचाई में कितने प्रभावशाली लगते हैं।'
मैं बुदबुदाया था 'हां,जैसे तुम्हारे विचार।'
उसने फिर कहा 'और ये घाटियां अपनी गहराई में कितनी मनोरम लगती हैं।'
मैंने धीरे से कहा 'हां जैसे तुम्हारी भावनाएं।'
उसने मुझे अनसुना किया। वो बह रही थी। उसने अपनी रौ में बहते हुए कहा 'और वो देखो कितनी सुंदर नदी। अपने बहाव में कितनी सजीव होती हैं ये पहाड़ी नदियां।'
मैंने कहा 'हाँ जैसे तुम्हारे भीतर कल कल बहती खुशियां।'
वो कह रही थी और मैं सुन रहा था। उसने कहा 'ये चारों तरफ फैली हरियाली कितनी खूबसूरत है।'
मैंने कहा 'हां जैसे तुम्हारी मासूमियत।'
अचानक वो थोड़ी उदास हुई और बोली 'इतने सब के बावजूद भी कितनी नीरवता है इस वातावरण में।'
मैंने कहा 'हमारा जीवन भी तो ऐसा ही होता है। बहुत कुछ होते भी कहीं कुछ कमी रह ही जाती है। जीवन कहां कभी पूर्ण हो पाता है।'
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अब पुलक पुलक रहे दो मन सन्नाटे से भर गए थे। मन का सन्नाटा फैली नीरवता से होड़ कर रहा था।
बस धड़कनें थीं जो उस सन्नाटे को चुनौती दे रहीं थी।
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