भ्रम
आसमाँ की ओर
थोड़ा उठा सा मुँह
उसका
ऐसे लगता मानो
दो कान
और एक नाक
चश्मे का भार
नहीं सँभाल पा रहे हैं
हक़ीक़त
दरअसल ये उसका चश्मा नहीं
उसकी आँखों में
छलक छलक जाते
अनगिनत सपने हैं
जिन्हें संभालने के फेर में
ऊंचा हो जाता हैं मुँह
और छूट जाती हैं जमीं
कि ठोकर खाती है बार बार
सपने बचाने की एवज में ।
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तो क्या दिखने वाला हमेशा सच नहीं होता ?
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