उस दोपहर
जब सारे ब्रह्मांड का नाद सौन्दर्य
सिमट आया था तुम्हारी वाणी में
तुम्हारे शब्द मेरे भीतर
झर रहे थे बसंत की तरह
तुम्हारी देहगंध टकरा के तन से मेरे
फ़ैल गयी थी फ़िज़ा में
तुम्हारी नेह दृष्टि
समा गई थी मन के किसी कोने में
तुम्हारी मुस्कान तुम्हारे अधरों से होती हुई
आ बैठी थी मेरे होटों पे
ठीक उसी समय
एक पल स्थगित कर दिया था मैंने
सबसे बचा के
कभी भविष्य के लिए
गर मिले कभी तुम
तो सौप दूँगी तुम्हे
तुम आओगे ना प्रिये
फिलहाल तो मैं जी रही हूँ
तुम्हारा वो स्थगित पल !
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