2014 में इलाहाबाद में आयोजित मीरा फाउंडेशन पुरस्कार वितरण समारोह में प्रख्यात कहानीकार ज्ञानरंजन ने अपने वक्तव्य में कहा था "मरी हुई चीज़ें भी शानदार हो सकती हैं। ज़रा नालंदा, तक्षशिला,मोहनजोदड़ो,कौशाम्बी,एथेंस की याद कर लें।" यानि मृत्यु ज़िंदगी के जैसी ही शानदार हो सकती है बस शर्त ये है कि मृत्यु किसकी और कैसे होती है। ठीक वैसे ही हार भी जीत जैसी शानदार,गरिमामयी और आश्वस्तकारी हो सकती है बशर्ते आप कैसे और किससे हारते हैं।कल रात लंदन में चैंपियंस ट्रॉफी के फाइनल में पहली बार खेल रही भारतीय हॉकी टीम की पेनाल्टी शूटआउट में 1-3 से हार जीत जितनी ही आश्वस्तकारी और शानदार थी। ये हार मन में किसी तरह की पीड़ा पैदा नहीं कर रही थी,कोई टीस नहीं उभर रही थी,कोई मलाल उत्पन्न नहीं हो था,बल्कि भारतीय खिलाड़ियों का हर पास,हर शॉट,हर स्कूप,हर टैकलिंग,उनका हर मूव मन में आश्वस्ति का भाव पैदा कर रहा था कि भारत में भले ही लोगों के अच्छे दिन आएं या ना आएं पर हॉकी के अच्छे दिन ज़रूर आने वाले हैं।ये प्रदर्शन इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें विश्व के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में से एक सरदार सिंह सहित कई बेहतरीन और वरिष्ठ खिलाडी नहीं खेल रहे थे।
आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी ज़बरदस्त आक्रामक होते हैं। आक्रामकता उनके रक्त में है। उनके अपने ऐतिहासिक कारण भी हैं। दूसरी और भारतीयों की नियति ही आक्रमणों को झेलना और उनका मुकाबला करते हुए उनके बीच से जीवन का रास्ता बनाने की रही है।इस फाइनल में भी ऐसा ही लग रहा था मानों भारतीय खिलाड़ी इतिहास जी रहे हों। वे ना केवल ऑस्ट्रेलियाई टीम के ज़बर्दस्त आक्रमण का बहादुरी से मुकाबला कर रहे थे बल्कि उस के बीच से अपने सर्वाइव करने का मार्ग भी तलाश रहे थे और अपनी मर्यादा की रक्षा भी कर रहे थे।
हर खेल के कुछ मील के पत्थर होते हैं जो उस खेल की उपलब्धियों को याद करते वक्त सबसे पहले ज़ेहन में आते हैं। जैसे क्रिकेट में 1971 में इंग्लैंड पर जीत और 1983 के विश्व कप में जीत मील का पत्थर हैं वैसे ही हॉकी में ओलम्पिक में मिले 8 स्वर्ण पदक और 1975 में विश्व कप में जीत याद आती है। उसके बाद की हॉकी की कहानी दरअसल उसके रसातल में जाने की कहानी है। 1980 में मास्को ओलम्पिक में भारत ने स्वर्ण पदक जीता ज़रूर था पर वो जीत इसलिए कोई मायने नहीं रखती क्योंकि बहिष्कार के चलते हॉकी खेलने वाले प्रमुख देशों ने इसमें भाग नहीं लिया था। 1980 के बाद से यादगार प्रदर्शन भारतीय हॉकी टीम ने ज़रूर किये। पर वे अपनी प्रकृति में स्थाई नहीं बल्कि बादलों के बीच चमकने वाली उस बिजली की तरह थे जो चमकते ही ख़त्म जाती है। अज़लान शाह कप में जीत या इंचियोन एसियाड जीत कुछ ऐसी ही जीत थी। लेकिन इस बार कहानी कुछ अलग है। पिछले दो साल में कोई बहुत बड़ी जीत हासिल नहीं की है। लेकिन इसके बावजूद भरोसा बढ़ा है कि टीम अब पुनर्निर्माण के दौर में है और धीरे धीरे मजबूती से आगे बढ़ रही है। उसने पिछले दो सालों में अपने प्रदर्शन में निरन्तर सुधार किया है ,अपनी रैंकिंग में सुधार किया है। ये प्रदर्शन सर्द रातों के घने कोहरे की छाती को चीर कर निकले सूरज की मानिंद है जिसे देर तक ठहरना है।
हॉकी का जब भी ज़िक्र आता आता है थोड़ा सा नॉस्टेलजिक हो उठता हूँ। पहला खेल जो ठहरा जिसे मैंने खेला और इस नाते पहले प्यार सा। 1975 का साल था वो हॉकी के चरमोत्कर्ष का साल। पहली बार औपचारिक रूप से खेल के मैदान में प्रवेश किया था और हॉकी स्टिक वो पहला उपकरण था जिसे हाथ में पकड़ा था कंचे और गिल्ली डंडे अलावा। हालाँकि बाद में क्रिकेट और बास्केटबाल में आ गया।फिलहाल एक बार फिर समय आ गया है रियो में पदक की उम्मीद लगाने का। हॉकी को फिर दिल देने का।
जी हॉकी ! जीत हॉकी ! जय हॉकी !
आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी ज़बरदस्त आक्रामक होते हैं। आक्रामकता उनके रक्त में है। उनके अपने ऐतिहासिक कारण भी हैं। दूसरी और भारतीयों की नियति ही आक्रमणों को झेलना और उनका मुकाबला करते हुए उनके बीच से जीवन का रास्ता बनाने की रही है।इस फाइनल में भी ऐसा ही लग रहा था मानों भारतीय खिलाड़ी इतिहास जी रहे हों। वे ना केवल ऑस्ट्रेलियाई टीम के ज़बर्दस्त आक्रमण का बहादुरी से मुकाबला कर रहे थे बल्कि उस के बीच से अपने सर्वाइव करने का मार्ग भी तलाश रहे थे और अपनी मर्यादा की रक्षा भी कर रहे थे।
हर खेल के कुछ मील के पत्थर होते हैं जो उस खेल की उपलब्धियों को याद करते वक्त सबसे पहले ज़ेहन में आते हैं। जैसे क्रिकेट में 1971 में इंग्लैंड पर जीत और 1983 के विश्व कप में जीत मील का पत्थर हैं वैसे ही हॉकी में ओलम्पिक में मिले 8 स्वर्ण पदक और 1975 में विश्व कप में जीत याद आती है। उसके बाद की हॉकी की कहानी दरअसल उसके रसातल में जाने की कहानी है। 1980 में मास्को ओलम्पिक में भारत ने स्वर्ण पदक जीता ज़रूर था पर वो जीत इसलिए कोई मायने नहीं रखती क्योंकि बहिष्कार के चलते हॉकी खेलने वाले प्रमुख देशों ने इसमें भाग नहीं लिया था। 1980 के बाद से यादगार प्रदर्शन भारतीय हॉकी टीम ने ज़रूर किये। पर वे अपनी प्रकृति में स्थाई नहीं बल्कि बादलों के बीच चमकने वाली उस बिजली की तरह थे जो चमकते ही ख़त्म जाती है। अज़लान शाह कप में जीत या इंचियोन एसियाड जीत कुछ ऐसी ही जीत थी। लेकिन इस बार कहानी कुछ अलग है। पिछले दो साल में कोई बहुत बड़ी जीत हासिल नहीं की है। लेकिन इसके बावजूद भरोसा बढ़ा है कि टीम अब पुनर्निर्माण के दौर में है और धीरे धीरे मजबूती से आगे बढ़ रही है। उसने पिछले दो सालों में अपने प्रदर्शन में निरन्तर सुधार किया है ,अपनी रैंकिंग में सुधार किया है। ये प्रदर्शन सर्द रातों के घने कोहरे की छाती को चीर कर निकले सूरज की मानिंद है जिसे देर तक ठहरना है।
हॉकी का जब भी ज़िक्र आता आता है थोड़ा सा नॉस्टेलजिक हो उठता हूँ। पहला खेल जो ठहरा जिसे मैंने खेला और इस नाते पहले प्यार सा। 1975 का साल था वो हॉकी के चरमोत्कर्ष का साल। पहली बार औपचारिक रूप से खेल के मैदान में प्रवेश किया था और हॉकी स्टिक वो पहला उपकरण था जिसे हाथ में पकड़ा था कंचे और गिल्ली डंडे अलावा। हालाँकि बाद में क्रिकेट और बास्केटबाल में आ गया।फिलहाल एक बार फिर समय आ गया है रियो में पदक की उम्मीद लगाने का। हॉकी को फिर दिल देने का।
जी हॉकी ! जीत हॉकी ! जय हॉकी !
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