ये लम्हे यूँ ही गुज़र जाएं
तो अच्छा
न तुम कुछ कहो
ना मैं कुछ कहूँ
बस धड़कने धड़कनों को सुनें
ये लम्हे यूँ ही सदियों में बदल जाएं
तो अच्छा ।
अमरनाथ को खेलते देखना पसंद है। उनको खेलते देखना सचमुच एक ट्रीट होता है । वे इतने सलीके और आराम से खेलते थे कि मानो तेज से तेज बॉल खेलने के लिए उनके पास भरपूर समय हो। यहां तक कि सारे आक्रामक शॉट भी बड़े प्यार से लगाते और उसी अंदाज़ से मध्यम गति से गेंदबाज़ी करते। उन्हें खेलते देखकर लगता कि सचमुच ये जेंटलमैन गेम है। बिलकुल वैसा ही नैश के साथ था।वे एनबीए के महानतम पॉइंट गार्ड थे। उनकी थ्री पॉइंटर शूटिंग लाजवाब थी। वे दो बार एमवीपी (most valuable player) रहे 2005 और 2006 में। लेकिन उनके कैरियर का सबसे दुखद पहलू ये था कि वे किसी भी टीम के साथ एनबीए चैंपियनशिप नहीं जीत पाए। लैरी ओ ब्रायन ट्रॉफी को ना तो उनके हाथ पकड़ पाए और ना उनके होठ उसे चूम पाए। अफ्रीका में जन्मे और कनाडा के नागरिक स्टीव नैश ने अपने करियर की शुरुआत 1996 में फीनिक्स सन से की और समाप्ति इसी वर्ष लॉस एंजिलिस लेकर्स से। ये सच है कि एनबीए का जादू और रोमांच वैसे ही बना रहेगा लेकिन नैश के कोर्ट में ना होने की टीस और कसक मन में लंबे समय तक बनी रहेगी। खेल के मैदान से विदा नैश !
आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर साइना नेहवाल एक इतिहास रचते रचते रह गईं। लेकिन अपनी हार के बावज़ूद आल इंग्लैंड बैडमिंटन के फाइनल में पहुंच कर उन्होंने एक इतिहास तो रच ही दिया। उनका इस प्रतियोगिता के फाइनल तक पहुँचना और उसमें हार जाना (अगर जीत जातीं तो जीतना भी और उनकी बाकी उपलब्धियाँ भी) सामान्य खेल घटना हो सकती है। लेकिन इसमें गहरे निहितार्थ खोजे जा सकते हैं। दरअसल ये घटना ऐसे समय में घट रही है जब 'इंडियाज़ डॉटर ' के बहाने भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति , सामंती पुरुष सोच और पितृसत्तात्मक व्यवस्था जिसमें स्त्री अधिकार नहीं के बराबर हैं पर बहस जारी है। साइना की उपलब्धियां बहुत कुछ कहती और सुनती हैं। ए थलेटिक्स सभी खेलों का मूल है। उसकी तमाम स्पर्धाएं दर्शकों को रोमांच और आनंद से भर देती हैं। कुछ कम तो कुछ ज्यादा। और कहीं उसकी किसी स्पर्ध...