Saturday, 5 April 2014

सड़क




सड़क जिंदगी के समानांतर चलती है
अपने इतने करीब लगती है
जीवन की कहानी बयाँ करती सी लगती है
क्या कभी आपने सड़क को ध्यान से देखा है ?

जी हाँ
सड़क
सुबह सुबह
शांत,निर्मल, पवित्र सी
दूर क्षितिज तक जाती
जिसका कोई अंत नहीं
छोटे से बच्चे की तरह मासूम सी दिखती
अनंत सम्भावनाओं को समेटे
खाली स्लेट सी साफ़ सुथरी
जिस में कुछ भी रच बस सकता है
और पूरा शहर उसके आगोश में समा सकता है। 

सड़क
दोपहर होते होते पूरे जोश से भर जाती है
पूरी क्षमता भर लोगो को ढ़ोती है
और भाग रही होती है
यहाँ से वहाँ
फुर्सत नहीं होती सांस लेने की भी
अपने में मगन
मग़रूर नौजवाँ सी सड़क।

सड़क
साँझ ढलते ही लगने लगती है
थकी-थकी सी
रफ़्तार पड़ने लगती है मद्विम
रौनक भी होने लगती है कम
लोग लगते है साथ छोड़ने।

और
रात बढ़ने के साथ ही
बुढ़ापे की तरह
एकाकी होने लगती है सड़क
एक-एक करके सभी छोड़ जाते हैं साथ
रह जाती है निपट अकेली वो
अन्धकार कुछ इस तरह से लेता है जकड़
कि पैरों के पास ही ख़त्म होती लगती है दुनिया 
उसके आगे सिर्फ रह जाता है अन्धेरा ही अँधेरा 
अकेले जीने को अभिशप्त
कभी कभार इक्के दुक्के भूले भटके आए राहगीर के साथ चलकर कुछ दूर
नई सुबह की इंतज़ार में
अकेले रात काटती सड़क।

कितनी अपनी कहानी सी लगती है सड़क।  (दीपेन )




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