46 सालों से लटका लोकपाल बिल आखिर पास हो ही गया। अण्णा जी ने अपना अनशन समाप्त कर दिया।वे खुश हो रहे हैं कि उन्होंने बिल पास करा दिया। उनके समर्थक जश्न मना रहे हैं। तमाम राजनीतिक दल इसे पास कराने का श्रेय भी उन्हें दे रहे हैं। लेकिन बिल पास होने की जो टाइमिंग है और जो परिस्थितियाँ हैं उसके हिसाब से इसका श्रेय अण्णा को देना बेमानी है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इसे पास कराने के लिए उन्होंने लगातार आंदोलन किया। पिछली बार जब उन्होंने आमरण अनशन किया था तब उनका जीवन भी खतरे में पड गया था। उस समय अण्णा और टीम अण्णा को जो जन समर्थन मिला था वो अभूतपूर्व था। देश भ्रष्टाचार के गम्भीर और बड़े घोटालों से जूझ रहा था। जन समर्थन को देख कर सारी राजनीतिक पार्टियां ही नहीं सरकार भी सकते में आ गयीं थी। सरकार को झुकना पड़ा। उसे अण्णा के पास आना पड़ा और लोकपाल बिल पास करने का वायदा करना पड़ा।
हालाँकि इसे राजनितिक पार्टियों ने संसद की गरिमा पर हमला बताया। लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर में अविश्वास बताया। पर तमाम विरोध के बावजूद दिखावे को ही सही संसद में बिल प्रस्तुत किया गया। पर पास नहीं हो सका होना भी नहीं था। रामलीला मैदान का अनशन इस बिल को लेकर किये जाने वाले आंदोलन का चरम था। यदि अण्णा की वजह से ये बिल पास होना था तो उस समय ही हो गया होता। लेकिन नहीं हुआ। बिल संसद में पेश जरूर किया गया पर उसे तमाम पेचीदगियों और अरंतु परन्तु में उलझा दिया गया। कोई भी राजनीतिक दल इस बिल को पास नहीं करना चाहता था। क्योंकि इसे पास करने का मतलब था अपनी जड़ों पर ही प्रहार करना जिसके बल पर वे खड़ी हैं। फिर चाहे सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस हो या पार्टी विथ डिफरेन्स बी जे पी हो। सभी पार्टियों की सरकारों पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप हैं। और फिर क्यों नहीं कोई भी पार्टी अपने को सूचना के अधिकार के अंतर्गत नहीं आने देना चाहती।
अब जब अण्णा दिल्ली से हज़ारों मील दूर बैठे अपने गाँव में थोड़े से लोगों के साथ अनशन पर बैठे तो सरकार ने उनके आंदोलन के डर से या प्रभाव से बिल पास कर दिया? आखिर क्या बात है कि संसद सत्र शुरू होने के साथ अण्णा अनशन शुरू करते हैं और आनन् फानन में बिल पास हो जाता है। क्या इसमें कांग्रेस और अण्णा में सांठ गाँठ की बू नहीं आती। एक तरफ चौतरफ़ा घोटालों से घिरी कांग्रेस की साख बचाने की जरूरत और दूसरी और केजरीवाल की आशातीत सफलता के बाद अपने अप्रासंगिक हो जाने की अण्णा की दुविधा।
दरअस्ल इसका श्रेय उस वैकल्पिक राजनीति को दिया जाना चाहिए जो हालिया दिल्ली विधानसभा चुनाव की देन है। इस चुनाव ने भारतीय राजनीति को कई तरह से बदला है। इस चुनाव ने परम्परागत राजनीति करने वाले दलों पर संकट खड़ा कर दिया। इस चुनाव ने जनता को इन दलों के अलावा भी एक विकल्प दिया है। और यहीं से राजनीतिक दलों में घबराहट का दौर शुरू होता है। अपनी विश्वसनीयता पर आये संकट से उबरने की चुनौती प्रस्तुत होती है। और यहीं से जनता की आकांक्षाओं को मान देने का महत्व समझते हैं। और लोकपाल बिल का पास होना उसकी परिणति बनती है।
ये ही वे राजनितिक दल हैं जिन्होंने इस बिल को पास होने से 46 साल रोके रखा। बड़ा आंदोलन खड़ा किया हुआ तो राजनीति में आकर क़ानून बनाने की चुनौती दी। दल बनाया तो मजाक उड़ाया। लेकिन चुनाव ने सभी दलों की बोलती बंद कर दी। क्या आप इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि इस चुनाव में एक नया विकल्प नहीं होता तो अब तक दिल्ली में सरकार नहीं बनती। जिस राजनीति में कुछ दल के नेता 30 या 40 सांसदों के बल पर पी.एम. बनने के सपने देखते हो, वहाँ एक राजनीतिक दल सबसे अधिक सीट जीत कर भी दूसरी पार्टी से सरकार बनाने को कहे। जहाँ दल बदल क़ानून की धज्जियां उड़ाई जाती हो वहाँ दल दूसरे दल को बिना शर्त समर्थन करें। ये सब इसी वैकल्पिक राजनीति की दें है।
भ्रष्टाचारों के आरोपों से त्रस्त कांग्रेस और सरकार तो पहले से ही बैकफुट पर थी। उसके सामने अपनी साख बचाने का बड़ा संकट पहले से मौज़ूद था। तमाम सर्वे भाजपा की जबर्दस्त बढत बता रहे थे। और ये लगभग तय था कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप ना होती तो भाजपा को बड़ी आसानी से बहुमत मिल जाता। लेकिन इस पार्टी ने जनता को जो विकल्प दिया उसने भाजपा की भी नींद उड़ा दी। आखिर कैसे बिल पर एकाएक सहमति बन गयी।
निसंदेह लोकपाल का बन जाना बड़ी बात है। सूचना के अधिकार के क़ानून की तरह इसके भी दूरगामी सकारात्मक परिणाम हो सकते हैं और होने भी चाहिए। पर इसके पास होने का श्रेय कम से कम तात्कालिक कारण होने का श्रेय तो इसी वैकल्पिक राजनीति के उदय को दिया जाना चाहिए।
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