देश में क्रिकेट खेल के 'धर्म' बन जाने के इस काल में भी हमारी उम्र के कुछ ऐसे लोग होंगे जो हॉकी को लेकर आज भी उतने ही नास्टेल्जिक होंगे जितने किसी समय में वे हॉकी के दीवाने रहे होंगे। निश्चित ही इन लोगों की 1983 में क्रिकेट विश्व कप जीतने की स्मृति से कहीं अधिक गहरी और स्थाई स्मृति 1975 में भारतीय हॉकी टीम की विश्व कप की जीत की होगी। कपिल देव के बेंसन हेजेज कप को सर से ऊपर उठाए वाले चित्र से कहीं जीवंत तस्वीर हॉकी विश्व कप उठाए कप्तान और संसार के अपने समय के सर्वश्रेष्ठ सेंटर हॉफ अजितपाल सिंह की तस्वीर होगी। उनकी स्मृति में जितना कपिल द्वारा अविश्वसनीय तरीके से पकड़ा गया रिचर्ड्स का कैच कौंधता होगा उससे अधिक असलम शेर खान का ताबीज चूमकर पेनाल्टी से किया गया गोल कौंधता होगा। ये सब वही लोग होंगे जिन्हें जितने कपिल, मोहिंदर, यशपाल, किरमानी, पाटिल जैसे खिलाड़ियों के बल्ले और गेंद से कारनामें भाते होंगे, उससे कहीं ज्यादा उनकी स्मृति आशिक कुमार, बी पी गोविंदा,असलम शेर खान,अजितपाल सिंह, माइकल किंडो,सुरजीत सिंह जैसे खिलाड़ियों की मैदान पर चपलता और स्टिक वर्क की खूबसूरती जगह घेरती होगी।
लेकिन मैदान पर भारतीय हॉकी के इतने खूबसूरत दृश्य विरल हो चले। यहां से भारतीय हॉकी की यात्रा शिखर से रसातल की और यात्रा है।
1975 के बाद हॉकी केवल एस्ट्रो टर्फ पर खेला गया। उसके बाद की हॉकी की कहानी एस्ट्रो टर्फ,नियमों में परिवर्त्तन, ऑफ साइड के नियम की समाप्ति, कलात्मकता को ताकत और गति द्वारा रिप्लेस करने और भारत व पूरे एशिया की हॉकी की अधोगति की कहानी है। भारत के लिए 1928 ओलंपिक स्वर्ण से शुरू हुआ एक चक्र 2008 में पूर्ण होता है जब वो ओलंपिक के लिए अहर्ता भी प्राप्त नहीं कर सका था।
तब से ही तमाम लोगों के साथ इन लोगों की ये इच्छा रही होगी कि एक बार फिर भारत का हॉकी में वही जलवा कायम हो,मैदान में हॉकी का वही जादू चले जो सन 1975 के बाद शनै शनै छीज रहा था। लेकिन उस समय से ही भारतीय हॉकी ने नई हॉकी से तादात्म्य स्थापित करने का प्रयास भी शुरू कर दिए थे। और खुद को उसके अनुरूप ढालने के धीरे धीरे परिणाम आने शुरू हुए। 2020 टोक्यो और 2024 पेरिस में भारतीय टीम द्वारा जीते गए कांस्य पदक शिखर की ओर बढ़ती भारतीय हॉकी के महत्वपूर्ण पड़ाव हैं।
और अभी हाल ही में राजगीर में आयोजित एशियाई चैंपियनशिप में भारत की शानदार जीत इस बात की ताईद करती है। फाइनल में पिछले विजेता दक्षिण कोरिया के ऊपर 4-1 की बड़ी जीत बताती है है कि क्रेग फुल्टन के निर्देशन में टीम की दिशा और दशा दोनों एकदम सही है।
इस प्रतियोगिता में भारत ने धीमी लेकिन सधी शुरुआत की। पहले ग्रुप मैच में चीन को 4-3 से और उसके बाद जापान को 2-1 से हराया। उसके बाद तीसरे मैच में कजाकिस्तान को 15-0 से रौंद दिया। उसके बाद सुपर फोर में भी पहले मैच में दक्षिण कोरिया से 2-2 से ड्रॉ खेला। यहां से टीम इंडिया ने गति पकड़ी और शानदार खेल दिखाया। अगले ही मैच में मलेशिया की मजबूत टीम को 4-1 से हराया। लेकिन अंतिम मैच में चीना के विरुद्ध सबसे बढ़िया खेला और ग्रुप राउंड में जिस चीन से बमुश्किल जीता था उसे 7-1 से हरा दिया और फाइनल में प्रवेश किया।
फाइनल में उसका मुकाबला पिछ्ले चैंपियन दक्षिण कोरिया से था। यहां पर जो टीम इंडिया का दांव पर था वो था आगामी विश्व चैंपियनशिप सीधे प्रवेश था। उसने कोरिया को शानदार खेल से सभी क्षेत्रों में पीछे छोड़ा और आसानी से 4-1 से हराकर चौथी बार चैंपियन बना।
भारत के खेल में गति,स्किल और पावर का शानदार समावेश था। टीम का मैदान के भीतर कॉर्डिनेशन शानदार था। निःसंदेह ये जीत उत्साहवर्धक है और शिखर की ओर एक मजबूत व दमदार कदम भी। हॉकी के स्वर्णिम अतीत के प्रति नास्टेल्जिया में जीने वालों के लिए भारतीय टीम की जीत और खिलाड़ियों के उठे हाथों से बड़ी आश्वस्ति और क्या हो सकती है।
मुबारक टीम इंडिया।
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