Monday, 31 March 2025

राकेश ढौंडियाल

 



पिछले शुक्रवार को राकेश ढौंढियाल सर आकाशवाणी के अपने लंबे शानदार करियर का समापन कर रहे थे। वे सेवानिवृत हो रहे थे।

 कोई एक संस्था और उससे संबद्ध लोग एक दूसरे के पूरक होते हैं। वे एक दूसरे को बहुत कुछ देते हैं और समृद्ध करते चलते हैं। लेकिन एक सच ये भी है कि इन्हीं लोगों में से कुछ ऐसे प्रतिभाशाली लोग होते हैं जो संस्था से लेते कम हैं और उसे देते बहुत हैं। राकेश सर उन चंद गिने चुने प्रोग्रामर में से हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा और योग्यता से आकाशवाणी को समृद्ध किया। उसे बलंदियों तक पहुंचाने में अवदान किया।

वे एक शानदार ब्रॉडकास्टर हैं। जो उन्हें शानदार बनाता है, वो है रेडियो के लिए उनका पैशन। परफेक्शनिस्ट। वे किसी प्रोग्राम को और उसके प्रसारण को पूरी तरह निर्दोष,त्रुटिरहित बनाना चाहते । इसके लिए किसी भी हद तक जाते। उस पर अंतिम समय तक काम करते। और छोटी छोटी डिटेल्स पर मेहनत करते। काम के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बेमिसाल है।

काशवाणी की प्रसारण की अपनी कुछ विशिष्टता परंपराएं हैं जो रेडियो प्रसारण के क्षेत्र में आकाशवाणी को विशेष दर्जा प्रदान करती हैं। वे आकाशवाणी की उन परंपराओं को सहेजने वाले बब्रॉडकास्टर्स की जमात के हैं। लेकिन एक प्रसारक के रूप में  उनकी विशिष्टता इस बात में है कि परंपराओं का अनुकरण करते हुए,उसे सहेजते हुए भी नित नवीन प्रयोग किए और बदलते समय में प्रसारण को और खुद को प्रासंगिक बनाए रखा। 

वे एक शानदार फोटोग्राफर हैं। उन्होंने अपने कैमरे से शानदार तस्वीरें उतारी हैं। इसमें उन्हें महारत हासिल है। जिस तरह से कैमरे से वे अद्भुत चित्र बनाते हैं, ठीक वैसे ही सजीव दृश्य वे ध्वनियों से रचते। उन्होंने ध्वनियों साध जो लिया था। उनकी शब्दों से दोस्ती जो थी। वे आवाजों से खेलते और शानदार प्रोग्राम बनाते। उनको मिले तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार इस बात की ताईद करते हैं।


वे रेडियो फीचर्स के मास्टर थे। भोपाल में रहते हुए  'उज्जैन कुंभ' के अवसर पर 'पानी' पर एक अद्भुत सीरीज की थी। पानी के हर पहलू को उन्होंने पकड़ा था। उसके भौतिक पक्ष को, अध्यात्म पक्ष को,दर्शन को भी।

छोटे कद का ये पहाड़ी पहाड़ सी ऊंचाई से व्यक्तित्व का मालिक है। सहज और सरल। बहते झरने सा। देहरादून प्रवास को जिन दो व्यक्तियों ने आसान और आनन्ददायक बनाया उनमें अनिल भाई के अलावा वे ही थे। आकाशवाणी देहरादून में साथ काम करते वे अकसर कहते यार साथ साथ मकान बनाया जाए। मेरठ में रहते हुए पिछले एक साल से हर रोज उनकी ये बात याद आती है और बात ना माने का अफसोस भी। लेकिन जिंदगी में हर मुराद पूरी होने के लिए नहीं होती।

किसी की सेवानिवृति पर 'सरकारी बंधन से मुक्त होने' और 'अब अपने शौक पूरे करने' जैसे जुमले कह देना आसान होता है। लेकिन  तीस पैंतीस सालों के पैशन,अनुशासन,आदत के एक लम्हे में खत्म हो जाने से सामंजस्य बैठाना उतना आसान भी नहीं होता। लेकिन हम जानते हैं कि वे बहुत ही क्रिएटिव हैं। घूमना उनका पैशन है। पहाड़ दर पहाड़ वे खाक छानते हैं। तस्वीरें उतारना उन्हें भाता है। उनका अपना एक लोकप्रिय यू ट्यूब चैनल है। निश्चित ही उन्हें अपने जीवन के इस दूसरे हिस्से से तादात्मय बैठाना अधिक सहज और सरल होगा। हमारी भी यही कामना है।

फ़िलवक्त तो एक शानदार ब्रॉडकास्टर,उम्दा अधिकारी और बहुत ही ज़हीन इंसान के आकाशवाणी के शानदार और सफल सफर के निर्बाध अंत पर हार्दिक बधाई और आगे के जीवन के लिए ढेरों शुभकामनाएं। 

आपका आगामी समय शुभ हो।


Tuesday, 11 March 2025



नुराग वत्स के संग्रह 'उम्मीद प्रेम का अन्न है' को पढ़ना वसंत से होकर गुजरना है। इससे होकर जाना संवेदनाओं के विविध रंगों से मन का रंग  जाना है।


ये काव्यात्मक सौंदर्य की ऊष्मा और गद्यात्मक तटस्थता के शीत से बने समताप का वसंत है- 


'तुम सुंदर हो

यह अनुभव किया जा सकता है

कहा नहीं जा सकता

तुम जिन वजहों से सुंदर और करीब हो

उन वजहों की भाषा में 

समाई संभव नहीं है।' 

००

'दोपहर बारिश हुई। बारिश इतना और यह करती है कि सब एक छत के नीचे खड़े हो जाएं। वह मेरी बग़ल में आकर खड़ी रहे। मुझे पहली बार ऐसा लगा कि उसे यहीं,ऐसे ही,बहुत पहले से होना चाहिए था। और अभी, इसे दर्ज करते हुए यह इच्छा मेरे भीतर बच रहती ही कि हर बारिश में वह मेरे साथ हो।' 


 ये मुस्कानों के ताप और उदासियों के शीत से बना  वसंत है। ये प्रेम की ऊष्मा और इतर संवेदनाओं के शीत से बने समताप का वसंत है - 


'तुम्हारे चेहरे पर इकलौता तिल

जैसे सफ़ेद सफ़े पर स्याही की पहली बूँद

कविता का पहला शब्द :

तुम।' 

००

'हम प्रेम करते हुए अक्सर अकेले पड़ जाते हैं। दुःख इस बात का नहीं कि यह अकेलापन असह्य है। दुःख इस बात का है कि इसे सहने का हमारा ढंग इतना बोदा है कि वह आलोक तक हमसे छिन जाता है, जो प्रेम के सुनसान में हमारे साथ चलता।' 


इस संग्रह को पढ़ना वसंत के भीतर वसंत को महसूस करना है जिसमें प्रेम और इतर अनुभूतियों के विविध रंगी फूल मन के भीतर खिलते और झरते रहते हैं। इस वसंत प्रेम के इस संग्रह को पढ़ने से बेहतर और क्या हो सकता है कि


'तुम बहुत देर से आईं मेरी पंक्ति में

जैसे बहुतेरे शब्दों के बाद आता है

दुबला-लजीला पूर्ण-विराम

पिछले बाक़ी का अर्थ-भार सम्भालता

प्रेम के पन्ने पर सबसे अन्तिम अंकन।'

Monday, 10 March 2025

चैंपियन



खेलों में हार जीत लगी रहती है। पर ये दिल ओ दिमाग पर प्रभाव ना डालें, ऐसा नहीं हो सकता। वे बहुत गहरे से मन में पैठ जाती हैं। फिर हार हो या जीत। कोई एक जीत बहुत सारे जख्मों पर मरहम का काम करती है। घायल ईगो को सहलाती है। पिछली उदासियों को मुस्कान में तब्दील कर देती है। ठीक वैसे ही जैसे कोई एक हार दिल पर गहरी चोट कर जाती है। मन पर उदासियों को पसार देती है। खेल में ऐसा होता है। 

रविवार नौ मार्च की रात दुबई के इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम में भारत की क्रिकेट टीम एक इतिहास रच रही थी। आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी के बहुत ही रोमांचक और उतार चढ़ाव भरे फाइनल में न्यूजीलैंड को चार विकेट से हराकर भारतीय टीम तीसरी बार ये चैंपियनशिप जीत रही थी। इससे पहले भारत 2002 में चैंपियंस ट्रॉफी का श्रीलंका के साथ संयुक्त विजेता था और उसके बाद 2013 में दूसरा खिताब जीता था। 

ये एक तरह का स्वीट रिवेंज था। याद कीजिए 2000 की दूसरी चैंपियंस ट्रॉफी का फाइनल जो नैरोबी केन्या में खेला गया था। उसमें भी भारत और न्यूजीलैंड आमने सामने थे। न्यूजीलैंड की टीम 264 रनों का पीछा करते हुए 132 रनों पर पांच विकेट खो चुकी थी। लेकिन क्रिस केर्न्स के नाबाद 102 रन और क्रिस हैरिस के साथ 122 रनों की साझेदारी ने भारत को चैंपियंस ट्रॉफी जीतने से वंचित कर दिया था। लेकिन इस बार न्यूजीलैंड इतिहास को ना दोहरा सका।


इससे पहले पहले ही मैच में भारत ने पाकिस्तान को हराया था। पाकिस्तान पहले मैच में न्यूजीलैंड से हार चुका था। मेजबान बाहर हो चुका था। भारत की सेमीफाइनल की जीत ने ट्रॉफी को भी पाकिस्तान से बाहर कर दिया था। जिस समय भारत की टीम न्यूजीलैंड को हराकर ये ट्रॉफी जीत रही थी तो उनकी यादों में इस ट्रॉफी का पिछला फाइनल भी तैर रहा होगा। 18 जून 2017 को खेले गए फाइनल में पाकिस्तान के विरुद्ध हार गए थे। उस समय कप्तान कोहली थे भारतीय खिलाड़ियों के चेहरे उतरे हुए थे और कंधे झुके हुए। वो हार कप्तान विराट कोहली के साथ-साथ हर भारतीय क्रिकेट प्रेमी के दिल में चुभी थी। लेकिन इस बार पहले ही मैच में उसे हरा दिया। ये जीत सामान्य जीत से कहीं अधिक स्वीट थी या उन्हें महसूस हुई होगी।

 जब वे सेमीफाइनल में ऑस्ट्रेलिया को हरा रहे थे जरूर उनके जहां में 2024 का विश्व कप क्रिकेट का फाइनल घूम रहा होगा जिसमें ऑस्ट्रेलिया ने भारत को हरा दिया था। निश्चित रूप से ये जीत सामान्य से कुछ अधिक रही होगी। कई बार जीत और हार सामान्य से कुछ अधिक हो जातीभाईं ठीक वैसे ही जैसे कुछ खास प्रतिद्वंदियों के विरुद्ध जीत और हार सामान्य से कुछ अधिक होती है। 

निःसंदेह ये जीत कई मायनों में सामान्य से अधिक ही थी।

आज एक बार फिर भारतीय कप्तान रोहित शर्मा टॉस हार गए। न्यूजीलैंड के कप्तान सेंटनर ने जीता और बैटिंग करने का फैसला किया। उनका ये फैसला उनके ओपनर बल्लेबाजों के ताबड़तोड़ खेल से सही साबित किया। सलामी बल्लेबाज विल यंग और रचिन रविंद्र की जोड़ी ने आठ ओवरों में ही 57 रन की साझेदारी की। 



तब इस टूर्नामेंट में भारत के संकटमोचक बने वरुण चक्रवर्ती ने भारत को पहली सफलता दिलाई। उन्होंने यंग (15) को पवेलियन का रास्ता दिखाया। रचिन रविंद्र 29 गेंद में 37 रन बनाकर आउट हुए। कुलदीप ने उन्हें क्लीन बोल्ड किया। उसके बाद जल्द ही केन विलियमसन को भी 11 रन पर चलता कर दिया। टॉम लैथम ने 30 गेंद में 14 रन का योगदान दिया। ग्लेन फिलिप्स ने 34 रन की पारी खेली। 46 वें ओवर में मोहम्मद शमी ने डैरिल मिचेल को आउटकर भारत को बड़ी सफलता दिलाई। डैरिल मिचेल ने 101 गेंदों में तीन चौके लगाते हुये 63 रनों की जूझारू पारी खेली। सातवें विकेट के रूप में 49वें में कप्तान मिचेल सैंटनर आठ रन बनाकर आउट हुए। माइकल ब्रेसवेल ने 40 गेंदों में तीन चौके और दो छक्के लगाते हुए नाबाद 53 रनों की महत्वपूर्ण पारी खेली। न्यूजीलैंड ने निर्धारित 50 ओवरों में सात विकेट पर 251 रन का स्कोर खड़ा किया। उन्होंने आखिरी पांच ओवरों में 50 रन जोड़े और और टीम को ढाई सौ के पार पहुंचाने में मदद की।

भारत की ओर वरूण चक्रवर्ती और कुलदीप यादव ने दो-दो विकेट लिये। रविंद्र जडेजा और मोहम्मद शमी ने एक-एक बल्लेबाज को आउट किया। आज पिच ने तेज गेंदबाजों का साथ नहीं दिया। वे खासे महंगे साबित हुए और निष्प्रभावी भी। शामी ने नौ ओवरों में 74 रन और हार्दिक ने तीन ओवरों में तीस रन दिए। लेकिन तेज गेंदबाज जितने महंगे और निष्प्रभावी साबित हुए स्पिनर्स ने उतनी प्रभावी और शानदार गेंदबाजी की और न्यूजीलैंड को एक बड़ा स्कोर बनाने से रोक दिया। स्पिनर्स ने कुल मिला कर 38 ओवर फेंके जो भरता की और से किसी भी एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय मैच तीसरे सबसे ज्यादा फेंके गए ओवर्स थे। आज भारत की फील्डिंग भी अच्छी नहीं रही। उन्होंने कुल मिलाकर महत्वपूर्ण मौकों पर चार महत्वपूर्ण कैच छोड़े।अन्यथा न्यूजीलैंड की पारी पहले ही सम्मत हो गई होती।

ब्लैककैप्स के खिलाफ 252 रनों का पीछा करते हुए  भारत ने भी शानदार शुरुआत की। उन्होंने बिना विकेट खोए 100 रन बनाए। न्यूजीलैंड की तरफ से भी के तेज गेंदबाज ज्यादा प्रभाव नहीं डाल पाए। लेकिन जैसे ही स्पिनर्स परिदृश पर आए उन्होंने ना केवल भारत की रंगती पर अंकुश लगाया बल्कि  जल्द जल्द तीन विकेट लेकर मैच में वापसी की। पहले शुभमन गिल गए। फिर एक रन बनाकर कोहली भी आउट हो गए। उसके बाद जल्द ही रोहित शर्मा के 76 रनों की शानदार पारी खेलकर बड़ा हिट लगाने के चक्कर में आउट हो गए। तीन विकेट लेकर न्यूजीलैंड ने मैच में वापसी की। लेकिन श्रेयस अय्यर और अक्षर पटेल ने 61 रनों की एक अच्छी साझेदारी की और भारत की वापसी करा दी। लेकिन मैच खत्म हो पाता कि 183 रनों के कुल स्कोर पर 48 रनों की महत्वपूर्ण पारी खेलकर श्रेयस अय्यर आउट हो गए। इस पूरी प्रतियोगिता में श्रेयस ने शानदार बल्लेबाजी की और रचित रविन्द्र के बाद सांसे अधिक रन बनाए। पहले अक्षर पटेल के साथ और फिर हार्दिक पंड्या के साथ महत्वपूर्ण के एल राहुल साझेदारी की और  नाबाद 34 रनों की महत्वपूर्ण पारी की बदौलत भारत को चार विकेट से जीत दिला दी।

मैन ऑफ द मैच का खिताब रोहित शर्मा को और मैन ऑफ द टूर्नामेंट का खिताब न्यूजीलैंड के के रचिन रविन्द्र को मिला। रचिन ने टूर्नामेंट में सर्वाधिक 263 रन बनाए और पांच से भी कम की औसत से गेंदबाजी करते हुए तीन विकेट भी लिए।

प्रतियोगिता का आरंभ 19 फरवरी को मेजबान पाकिस्तान और न्यूजीलैंड  के बीच ग्रुप ए के मैच से हुआ था। इस मैच में न्यूजीलैंड ने पाकिस्तान को 60 रनों से हरा दिया। इस ग्रुप की दो अन्य टीमें भारत और बांग्लादेश की थीं। भारत ने अपने सभी मैच दुबई में खेले। अपने पहले ग्रुप मैच में भारत ने बांग्लादेश को छह विकेट से हराकर साहंदार शुरुआत की। उसके बाद दूसरे मैच में पाकिस्तान को भी आसानी से छह विकेट से हरा दिया। तीसरे और अंतिम ग्रुप मैच में न्यूजीलैंड को 44 रनों से हराया और इस प्रकार भारत ने अपने तीनों मैच जीतकर अपने ग्रुप में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। जबकि न्यूजीलैंड ने दो मैच जीतकर दूसरा स्थान प्राप्त किया। 

ग्रुप बी में ऑस्ट्रेलिया,दक्षिण अफ्रीका,अफगानिस्तान और इंग्लैंड की टीम थीं।  ग्रुप स्टेज में दक्षिण अफ्रीका ने बेहतरीन खेल दिखाते हुए पहले स्थान पर और ऑस्ट्रेलिया दूसरे स्थान पर रहीं और सेमीफाइनल के लिए क्वालीफाई किया। इस ग्रुप में अफगानिस्तान की टीम ने भी शानदार खेल दिखाया और इंग्लैंड को हरा दिया लेकिन ऑस्ट्रेलिया से पीछे रहकर नॉकआउट के लिए क्वालीफाई नहीं कर सकी।

पहला सेमीफाइनल भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच हुआ। ऑस्ट्रेलिया की टीम पहले बैटिंग करते हुए 49.3ओवर में  264 रनों पर आउट हो गई। 265 रनों का पीछा करते हुए कोहली के शानदार शतक की बदौलत 11गेंदे शेष रहते हुए 6विकेट पर 267 रन बनाकर मैच चार विकेट से जीतकर फाइनल में प्रवेश किया।

दूसरा सेमीफाइनल न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका के बीच खेला गया। इस मैच में  पहले बल्लेबाजी करते हुए न्यूजीलैंड ने  06 विकेट खोकर 362 रनों का विशाल स्कोर खड़ा किया। इस लक्ष्य को पाने की कोशिश में दक्षिण अफ्रीका की टीम निर्धारित 50 ओवरों में  09 विकेट पर 312 रन ही बना सकी और न्यूजीलैंड ने 50 रनों से शानदार जीतकर फाइनल में प्रवेश किया।

इस तरह फाइनल में न्यूजीलैंड को हरा कर रोहित शर्मा की कप्तानी वाली भारतीय क्रिकेट टीम रविवार 09 मार्च को इतिहास रच दिया है। भारत 12 साल बाद आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी फाइनल जीतकर अपने नाम लगातार दो आईसीसी खिताब अपने नाम किए। 10 महीने पहले भारत ने रोहित  की ही कप्तानी में आईसीसी टी20 वर्ल्ड कप अपने नाम किया था। 

इस प्रतियोगिता की भारत सबसे सफल टीम है जिसने ये तीन बार जीती है। ऑस्ट्रेलिया ने इसे दो बार जीता है। इसके अलावा श्रीलंका,दक्षिण अफ्रीका,पाकिस्तान और वेस्टइंडीज ने एक एक बार जीत हासिल की है।

Thursday, 6 March 2025

अलविदा प्रिय पैडी

 



सुनील गावस्कर ने अपनी किताब 'आइडॉल्स' में अपने पसंदीदा क्रिकेटर्स के बारे में लिखा है। इनमें से 22वें नंबर पर पद्माकर शिवालकार और 23वें नंबर पर राजेंद्र गोयल हैं। इन दोनों को ही उन्होंने बहुत ही शिद्दत से याद किया है। राष्ट्रीय फलक पर अपने हुनर से चमक बिखेरने वाले ये दोनों ऐसे हुनरमंद सितारा स्पिनर्स थे जिन्हें नियति ने क्रिकेट के अंतर्राष्ट्रीय फलक पर अपनी जवांमर्दी दिखाने से महरूम कर दिया।

ये वो समय था जब स्पिन गेंदबाजी की कला अपने चरम पर थी। बेदी, प्रसन्ना,चंद्रशेखर और वेंकट राघवन की चौकड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी घुमावदार और उड़ान वाली गेंदों से स्पिन गेंदबाजी की वेस्टइंडीज,इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया की खौफनाक तेज गेंदबाजी के बरक्स एक अलहदा छवि बना रही थी। वे चारों खौफ के बजाए ललचा-ललचा कर बल्लेबाजों को छका रहे थे। 

और जिस समय ये चौकड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर ये काम कर रहे थे,ठीक उसी समय भारत के दो और गेंदबाज पद्माकर शिवालकर और राजिंदर गोयल का युग्म राष्ट्रीय स्तर पर उसी काम को अंजाम दे रहे थे। दरअसल उस महान चौकड़ी के समानांतर स्पिन गेंदबाजी के एक प्रति संसार की निर्मिति कर रहे थे। इस युग्म द्वारा रचा जा रहा संसार योग्यता और स्पिन कला कौशल में चौकड़ी द्वारा निर्मित दुनिया की आभा से ज़रा भी कम ना था। बस कुछ कम था तो नियति के साथ का अभाव भर था। योग्यता और प्रतिभा की आभा दोनों जगहों पर एक सी थी। पर एक में खुशकिस्मती की चमक थी दूसरे में बदकिस्मती की छाया। एक प्रसिद्धि से गमक गमक जाता। दूसरा कुछ ना मिल पाने की उदास छाया से आच्छादित रहता। 

उन दोनों को देखकर समझा जा सकता है कि एक मौका मिलने और ना मिलने भर से जीवन में कितना बड़ा अंतर आ जाता है या आ सकता है। कई बार होता है आप एक गलत समय पर पदार्पण करते है। शायद उन दोनों की ये बदकिस्मती थी कि वे बिशन सिंह बेदी के समकालीन थे। अगर नियति उन दोनों पर मेहरबान हुई होती तो हम एक दूसरा इतिहास पढ़ रहे होते। प्रभूत क्षमता और प्रतिभा होने के बाद भी भारत की ओर से खेलने का उन्हें एक मौका नहीं मिला। दोनों की नियति एक थी। दोनों की त्रासदी एक थी। दोनों यूं ही बीत गए,रीत गए,जाया हो गए।

पर वे दोनों घरेलू क्रिकेट के उस्ताद खिलाड़ी थे। दोनों वामहस्त धीमी गति के ऑर्थोडॉक्स लेग स्पिनर। ये उन चार खिलाड़ियों में से थे जिन्हें बिना टेस्ट खेले बीसीसीआई के सी के नायडू लाइफ टाइम पुरस्कार से नवाजा गया। दो ऐसे खिलाड़ी जिन्हें बिना भारत की ओर से खेले गावस्कर की किताब  'आइडॉल्स' में जगह मिली।

राजिंदर गोयल का निधन 2020 में हुआ और अब 03 मार्च 2025 को 84 साल की उम्र में शिवालकर ने इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कहा।

पद्माकर शिवालकर क्या ही प्रतिभाशाली रहे होंगे कि जब पहली बार उन्होंने ट्रायल दिया तो उन्होंने क्रिकेट की गेंद को छुआ भी नहीं था। वो उस समय तक केवल टेनिस बॉल से खेला करते थे। उन दिनों उन्हें काम की जरूरत थी और बीनू मांकड़ को अपनी फैक्ट्री टीम के लिए खिलाड़ियों की। उन्होंने शिवालकर को चुना और कहा 'मेरी या किसी और की शैली की नकल ना करना।' उस युवा ने इस बात की गांठ बांध ली। अपनी खुद की शैली ईजाद की और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

उन्होंने 1961-62 में पहली बार प्रथम श्रेणी मैच खेला और 1987-88 तक 48 वर्ष की उम्र तक खेलते रहे। उन्होंने इस दौरान कुछ 124 मैचों में 19.69 की औसत से 589 विकेट और 16 विकेट लिस्ट ए मैचों में लिए।

एक गेंदबाज के रूप में पलक झपकते विपक्षी टीम को ध्वस्त करने की अद्भुत क्षमता थी उनमें। उनकी सबसे शानदार गेंदबाजी का उदाहरण 1973 का रणजी फाइनल है। ये फाइनल मैच चेन्नई के  चेपॉक स्टेडियम में मुंबई और तमिलनाडु के बीच खेल गया था। पिच वेंकटराघवन और वी वी कुमार के अनुकूल थी। मुंबई की पहली पारी 151 रन पर सिमट गई और तमिलनाडु ने पहले दिन के खेल की समाप्ति पर दो विकेट पर 62 रन बना लिए थे और बड़ी बढ़त लेने के लिए तैयार दिख रहा था। उस समय माइकल दलवी और अब्दुल जब्बार की साझेदारी ने 56 रन बनाए थे। पर अगले दिन शिवालकर जब गेंदबाजी करने आये और पहली गेंद तेजी से घूमी और उछली तो उस टीम के सदस्य कल्याण सुंदरम बताते हैं कि उस गेंद को देखते ही तमिलनाडु टीम को आभास हो गया था कि जल्द ही सभी का बैटिंग नंबर आने वाला है। और ये आशंका सही साबित हुई। बाकी के आठ विकेट केवल 18 रन जोड़ सके और तमिलनाडु की टीम 80 रन पर ऑल आउट हो गई। उस इनिंग में शिवालकर ने 16 रन पर 08 विकेट लिए और दूसर पारी 18 रन देकर 05 विकेट। पांच दिन का मैच दो दिन में खत्म हो गया।

एक स्पिन गेंदबाज के दो प्रमुख विशेषता होती हैं। एक, हवा में उड़ान और लूप। दूसरी, पिच से गेंद का घुमाव। वे फ्लाइट और लूप के मास्टर गेंदबाज थे। वे एक और तो हवा में गेंद की उड़ान से बल्लेबाज को भरमाते,तो दूसरी और वे अपनी गेंद की गति और लंबाई से बल्लेबाजों को परेशान करते। बल्लेबाजों को स्टंप आउट कराना उनका सबसे प्रिय शगल था और खासियत भी।

वे एक शानदार और सफल गेंदबाज थे। उन्होंने 13 बार दस या दस से अधिक विकेट लिए और 42 बार एक पारी में पांच या पांच से अधिक विकेट लिए। इस सब के बावजूद वे भारतीय टीम के लिए नहीं चुने जा सके। इसका उन्हें हमेशा मलाल रहा। और इसे हमेशा उन्होंने बहुत शिद्दत से महसूस किया।

एक कहावत है 'सफलता से अधिक सफल कुछ नहीं होता'। इस बात को सबसे ज्यादा वही समझ सकता है जिन्हें सफलता नहीं पाई हो। वे अपनी सारी योग्यता और प्रतिभा के बावजूद भारतीय टीम में जगह ना बना पाने की असफलता और उससे उपजी निराशा को और सफलता की ऊष्मा को और उसके महत्व को शिवालकर से बेहतर भला और कौन समझ सकता है। 


और उनकी इस निराशा और उदासी को सबसे अधिक उनके गायन में महसूस की जा सकती है। 

वे एक शानदार प्रोफेशनल गायक भी थे। पक्के गायक। अगर वे क्रिकेटर ना होते तो शायद वे एक सफल और शानदार गायक होते। उन्होंने अपने कुछ गीतों में कहा है कि कैसे एक व्यक्ति का भाग्य  उसके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है रूप से 'हा चेंदु दैवगतिचा......' गीत में। जब वे ये गीत गाते तो अहसास होता है कि मानो वे अपना जीवन गा रहे हों। कितनी शिद्दत से उनका दर्द उस गीत में छलक छलक जाता है। जब वे गाते हैं तो लगता है उसमें उन्होंने अपनी आत्मा का समावेश कर दिया है। ये उनके जीवन का मानो थीम गीत हो - 


"भाग्य का यह चक्र निरंतर घूमता रहता है, 

कभी ऊँचाइयों तक ले जाकर तो 

कभी किसी का जीवन बिखेरकर। 


यह समय की चाल कैसी है, 

इसे कोई नहीं समझ पाया। 

जब भी कुछ होता है, 

लोग बिना सोचे-समझे दोषारोपण करने लगते हैं और हज़ारों ज़ुबानें बड़बड़ाने लगती हैं।


इस भाग्य के खेल को ज़रा करीब से देखो

जिस तरह समुद्र में नावें छोड़ी जाती हैं 

और लहरों की मार से उनकी परीक्षा होती है, 

वैसे ही जीवन में कठिनाइयाँ आती हैं। 

जो इन लहरों से लड़ने की ताकत रखते हैं,

 वे विजयी होते हैं, 

तो कुछ लोग इन्हीं लहरों में समा जाते हैं।


परंतु यह सब तो जीवन का स्वाभाविक क्रम है, फिर दुखी होने से क्या लाभ?

जो भी सुख के पल हमारे पास बचे हैं, उन्हें प्रेम और सहेज कर रखो।

इन्हीं सुखद पलों से जीवन का मधुर संगीत बनता है, जो हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।"


बाद में उन्होंने 'हा चेंदु दैवगतिचा' (समय का ये चक्र) नाम से किताब भी लिखी। सच में वे समय के चक्र में फंसे थे और नियति का शिकार थे। वे इसे जानते समझते थे और इसको शिद्दत से महसूस करते थे। एक उदास संगीत हमेशा उनके जीवन के पार्श्व में बजता था। उसकी लय पर उनका जीवन थिरकता था।

क्या ही विडंबना है कि जिसने गेंद की उड़ान को साध लिया हो, जो गेंद की उड़ान का जादूगर हो,उसका साधक हो,नियति ने उसे उड़ने न दिया। उसे उन ऊंचाइयों से महरूम कर दिया जिन ऊंचाइयों का वो हकदार था और जिन ऊंचाइयों को वो छूना चाहता था।

पर कुछ जीवन अपूर्ण इच्छाओं को लिए ही पूर्ण हो जाते हैं। पद्माकर शिवालकर भी गेंदबाजी के एक ऐसे ही साधक थे जिनकी बहुत सी इच्छाएं अपूर्ण ही रहनी थी।  शायद उनकी महानता इस अपूर्णता से ही बनती है और वे इसीलिए याद किए जाते रहेंगे।

अलविदा प्रिय पैडी।


Monday, 3 March 2025

रोहित द हिटमैन

 

कई बार आपको किसी विषय की सही जानकारी नहीं होती या बिल्कुल नहीं होती। 'मोटा होने' और 'फिट होने' में अंतर करना आपको आना चाहिए। 

जब आप रोहित को मोटा कहकर फिट ना होने की बात करते हैं तो उस पूरे सिस्टम को प्रश्नांकित करते हैं जिसके तहत उनका टीम में चयन किया जाता है। और तब सवालों के घेरे में चयन समिति, कोच और टीम के फिटनेस ट्रेनर और समूचा स्टाफ भी आता है और बीसीसीआई भी।

आपको पता होने चाहिए बीसीसीआई का फिटनेस टेस्ट बहुत कठिन होता है।

जहां तक एक कप्तान के रूप में उनकी सफलता की बात है वे सबसे सफल कप्तानों में से एक हैं।

अगर कोई मोटा होने को एक खिलाड़ी का अवगुण मानता है तो उन्हें महिला टेबल टेनिस की महिला खिलाड़ियों को देखना चाहिए जिन्होंने हाल के वर्षों में इस खेल में भारत के लिए असाधारण उपलब्धियां हासिल की हैं। और हां सरफराज खान को भी ध्यान में रखना चाहिए जिन्होंने घरेलू क्रिकेट में सफलता के नए मानदंड स्थापित किए हैं।

रोहित एक शानदार खिलाड़ी और एक सफल कप्तान हैं। और रहेंगे। लव यू रोहित।

Tuesday, 11 February 2025

खत ओ किताबत के पतझड़ में वसंत


प्रिय भाई कैलाश 

और

पंकज भाई

आप लोगों को पता चल ही गया होगा कि वसंत आ चुका है। जब शहर में रहने वालों को पता चल गया है कि वसंत आ गया है तो आप लोग तो गांव में रहते हैं आपको क्यूं कर ना पता चल पाया होगा। 

हरों में तो इस कदर भीड़ है कि वसंत को उतरने की कोई जगह ही कहां मिल पाती है। इसीलिए शहरों में वसंत धीरे धीरे और बहुत कम उतरता है। कई बार तो इतना कम कि पता ही नहीं चलता कि कब वसंत आया और कब गया। कई बार लोग इस बात से अंदाज़ा लगाते हैं कि ये फागुन का महीना है यानी वसंत आ गया है।


लेकिन गांव में। वहां वसंत का स्वागत करने को कितना कुछ है। पहाड़,नदियां,जंगल,पेड़,पक्षी और मनुष्य। खेत खलिहान तो हैं ही। तो फिर क्यों ना वसंत वहां झोर कर गिरे।

लेकिन मैं इस वसंत की बात नहीं कर रहा। मैं उस वसंत की बात कर रहा हूं जो वसंत आप लोगों ने वसंत के भीतर वसंत गिराया है। चिट्ठियों पर शब्द-शब्द फूल खिले हैं ज्यों खेत-खेत सरसों के पीले फूल। 

किसी पतझड़ के मौसम में वसंत को उतार लाना किसी अजूबे कम थोड़े ही ना है। पर मन में कुछ कुछ प्रेम,कुछ कुछ आस,कुछ कुछ उदासी की स्याही हो, और चाहत की कलम हो तो क्या नहीं हो सकता है। चिट्ठि लिखने के इस पतझड़ वाले समय में 'स्मृतिलोक से चिट्ठियां' वसंत से कम तो नहीं। 

विज्ञान और प्रगति ने हमारा सामने भले ही हमारे लिए सुख सुविधाओं के अंबार लगा दिए हों। पर हमसे हमारी बहुत सी कोमलताएं छीन ली हैं। चिट्ठियों के पते उनमें से एक है। पर क्या ही कमाल है कि कुछ ऐसे लोग अब भी बाकी हैं जो उन कोमलताओं को सहेज सके हैं। वे अभी भी चिट्ठियों से प्यार करते हैं,भरोसा करते हैं,उन्हें बहुत सारे पते अभी भी याद हैं और वे उन पतों पर आज भी चिट्ठियां भेजते हैं।

चिट्ठियों में कुछ उल्लास,कुछ उम्मीद,कुछ उदासी तब भी हुआ करती थी, जब बहुत सारे लोग बहुत सारी चिट्ठियां लिखा करते थे। आज जब ' स्मृतिलोक से चिट्ठियां' पढ़ी जा रही हैं, तो कुछ वैसा ही लग रहा है जैसा कभी एक वक्त लगा करता था, जो अब बीत गया है। पर इन चिट्ठियों को पढ़ते हुए लग रहा है, बीता वक्त लौट आया है। 

नमें भावनाओं का ज्वार है। मिलन की आस है। विछोह की उदासी है। दोस्ती की उमंग है। मोहब्बत की खुशबू है। बीते वक्त की छाया है और आने वाले समय की धूप। कुछ अपनी है। कुछ जग की। 

 'स्मृतिलोक से चिट्ठियां' दरअसल जादू की एक पोटली है।

प दोनों को मोहब्बत पहुंचे। और बहुत सारी चिट्ठियों के इंतजार में।

र हां 'कम लिखे को ज्यादा समझना'।


                                                  एक पाठक

Wednesday, 5 February 2025

जीरो माइल बरेली



हर शहर का एक भूगोल होता है और उस भूगोल का स्थापत्य  ये दोनों ही किसी शहर के वजूद के लिए ज़रूरी शर्तें हैं। इस वजूद की कई-कई पहचानें होती हैं। लेकिन ऐसी पहचानें किसी शहर का मुकम्मल परिचय नहीं करा सकतीं, बस एक हद तक उस शहर के बारे में जाना जा सकता है।

हर केवल कुछ ख़ास पहचान भर नहीं है। यदि किसी शहर को उसकी समग्रता में जानना है, तो उन लोगों के बारे में जानना होता है जो उस शहर को शहर बनाते हैं। उसमें जान फूंकते हैं। जो उसकी धड़कन हैं। जो उस शहर को एक ‘लाइव आइडेंटिटी’ देते हैं। हमें उसके चरित्र को समझना पड़ता है जो उस शहर के रहवासी सामूहिक रूप से अपनी आदतों, अपने रहन-सहन, अपनी रवायतों से और क्रियाकलापों से बनाते हैं।

र इसको तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक किसी शहर को आप ‘जीने’ नहीं लगते. उस शहर में जीने नहीं लगते। बिना शहर में धंसे और बिना उस शहर को अपने भीतर धंसाए किसी शहर को कहां समझा जा सकता है। कैसे उसे बताया जा सकता है। कैसे उसकी क़िस्सागोई की जा सकती है।

त्रकार, अनुवादक, लेखक और फ़ोटोग्राफ़र प्रभात की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘ज़ीरो माइल बरेली’ को पढ़कर समझा जा सकता है कि उन्होंने इस शहर को किस तरह जिया है। वाम प्रकाशन की शहरों के बारे में रोचक सीरीज़ ‘ज़ीरो माइल’ की यह पांचवीं पुस्तक है। इससे पहले पटना, अयोध्या, मेरठ और अलीगढ़ शहरों पर किताबें आ चुकी हैं।

प्रभात सर मूलतः एक छायाकार हैं। उनके कैमरे के पीछे उनकी बहुत पैनी निगाह होती है, जो बहुत ही सूक्ष्म बातों को लक्षित करती हैं और कमाल के दृश्य बनाती हैं। लेकिन वे ऐसा सिर्फ़ कैमरे से ही नहीं करते, बल्कि अपने दिलोदिमाग़ में देखे, भोगे, महसूसे को अपने शब्दों और भाषा से भी काग़ज़ पर उतने ही बेहतरीन दृश्य बनाते हैं, जैसे कि वे कैमरे से बनाते हैं।

स किताब में उन्होंने बरेली शहर को बहुत ही जीवंत तरीक़े से प्रस्तुत किया है। इस किताब को पढ़ते हुए आप को लगता है कि किसी बाइस्कोप के माध्यम से बरेली शहर को देख रहे हैं. बस माध्यम बदल जाते हैं। होता इतना है यहां आंख कैमरे की नहीं होती, बल्कि मन की होती है और लेंस की जगह शब्द होते हैं।

हर कोई निर्जीव चीज़ नहीं, बल्कि सजीव शय है। वो सांस लेता है। बढ़ता है। बदलता है। और जीवन के अनेक पड़ाव पार करता है। इस बदलाव को देखना बहुत रोचक भी होता है। कष्टकारी भी होता है। और कई बार सुखद भी। समय के साथ बदलते बरेली शहर की


तस्वीर को उन्होंने इस किताब के माध्यम से बहुत ही ख़ूबसूरती से प्रस्तुत किया है। शहर किस तरह किन हालात में बदल रहे हैं, यह किताब इस बात का प्रामाणिक बयान है। उन्होंने बरेली में अपना बचपन जिया और अब अपने जीवन का उत्तरार्ध जी रहे हैं। उन्होंने बदलते शहर को बहुत ही सूक्ष्म और गहरी नज़र से देखा है और उसे यहां कलमबद्ध किया है। इस किताब में दर्ज ब्यौरों को पढ़कर कोई भी पाठक इसे अपने शहर से रिलेट कर सकता है।

स किताब की ख़ूबसूरत बात यह है कि एक ओर तो वे उन विवरणों को अंकित करते हैं जो सार्वभौमिक हैं. जो हर शहर, हर क़स्बे और हर गांव पर लागू होते हैं। दूसरी और वे उन बातों को कहते हैं जो बरेली शहर की ख़ास विशेषताएं हैं, एकदम स्थानीय। उनकी दृष्टि कितनी बारीक़ चीज़ों को पकड़ती है, उसे यहां दर्ज़ उस एक छोटे से वाक़ये से समझा जा सकता है, जिसमें वे उस पंसारी के बारे में लिखते हैं जो अपनी दुकान पर आए बच्चे को सामान ख़रीदने के बाद गुड की डली देता है। यह पहले हर गांव और शहर की रवायत थी, जो अब ख़त्म हो गई है। मुझे आज भी याद है कि जब भी हम छुट्टियों में गांव जाते तो वहां पर पंसारी ऐसे ही बच्चों को नमकीन दिया करता था, जिसे वहां ‘लुभाभ’ कहा जाता था।

पुस्तक 12 भागों में विभक्त है. लेकिन उससे पहले उन्होंने एक़ रोचक भूमिका लिखी है जो इस किताब को पढ़ने का टेम्पो बना देती है। वे अनेक लोगों के उदाहरण के ज़रिए बताते हैं कि लोगों की नज़र में बरेली की पहचान किस रूप में हैं। और फिर इस बात को भी कहते हैं कि कोई भी एक पहचान बरेली की मुकम्मल पहचान नहीं है। बल्कि बरेली के रहवासियों का जीवन और उनके द्वारा बनाई गई सामासिक संस्कृति ही बरेली की असल पहचान है।

न 12 भागों में पहले दो भाग शहर की स्थापना से लेकर आज़ादी तक के इतिहास का बयान करते हैं। वे न केवल इस इतिहास को बहुत ही सरल रूप प्रस्तुत करते हैं बल्कि यह भी स्थापित करते हैं कि मेल-जोल की गंगा-जमुनी संस्कृति इस शहर की सदियों पुरानी रवायत है जो आज तक क़ायम है। उसके बाद के भागों में हर वो बात है जो आप एक शहर के बारे में जानना चाहते हैं। गली, मोहल्ले, चौराहे, नई-पुरानी पहचान, बाज़ार, विशिष्ट और आम आदमी, धार्मिक रवायतें और पूजा स्थल, शिक्षा और शिक्षण संस्थान, विशिष्ट संस्थान, सड़कें और फ्लाईओवर्स, जाम, भीड़, पार्क, तीज-त्योहार, सिनेमा और संगीत, और अपनी पत्रकारिता की भोगी तस्वीरें भी। सुरमा और झुमका का होना तो लाज़मी है। हां, कोई एक चीज़ जो इस किताब में अनुपस्थित है वो है बरेली का खेल परिदृश्य।

स किताब की एक जो बहुत ही उल्लेखनीय बात है वो है इसमें कोई भी टाइपिंग मिस्टेक, वर्तनी या प्रिंटिंग मिस्टेक या व्याकरणिक ग़लती का न होना। यह एक ऐसी बात है जो आपके पढ़ने के अनुभव को बेहतरीन बनाती है। नहीं तो आजकल बड़े से बड़े प्रकाशन की किताबों में ग़लतियां आम हैं. इसके लिए वाम प्रकाशन को और उनके प्रूफ़ रीडर को साधुवाद कहा जा सकता है।

कुल मिलाकर यह किताब बरेली शहर के बारे में एक ऐसा बयान है, जिसे पढ़कर उस शहर की एक ऐसी इमेज आपके दिल और दिमाग़ पर अंकित हो जाएगी कि जब कभी बाद में आपको उस शहर में जाने का अवसर मिलेगा तो आपको लगेगा कि आप किसी अजनबी नहीं बल्कि किसी जाने-पहचाने और भोगे हुए शहर में हैं।

गर आपकी रुचि शहरों को जानने में है तो आपको इस सीरीज़ की सारी किताबें और विशेष रूप से ‘ज़ीरो माइल बरेली’ ज़रूर पढ़नी चाहिए।



Friday, 31 January 2025

देहरादून 'द सिटी ऑफ लव'



 गर इक अरसा बीत जाने के बाद भी इक छूटे शहर की सुबहें आपको याद आएं और वे आपके कांधे बैठ हौले हौले मुस्कुराएं,गर उस शहर की दोपहरें बेचैन करने लगें और उन दोपहरों की धूप आपके साथ खिलखिलाए,गर उस शहर की शामें आपको सुकून से भर देती हों और आपके साथ हाथ में हाथ डालकर जब तब चहलकदमी करने  लगती हो तो समझना चाहिए कि आप उस शहर के इश्क़ में थे। 

शहर छूटने के बहुत बहुत दिन बाद भी उसकी सड़कें आवारागर्दी करने को आवाजें देती हो, उसकी गलियां विस्मय से भर देती हों और अपने साथ चहलकदमी करने को बुलाती हो,उस शहर के बाजारों की आवाजें कानों में रस घोलती सी लगती हों,तो समझिए कि अभी भी शहर के इश्क़ में हैं।

उस शहर का कोई एक दिन उसे छोड़ देने के बाद भी ताज़गी से भर देता हो और कोई रात मन को आर्द्र कर जाती हो,गर उसकी बारिशें रोमान से भर देती हों और सरसराती हवाएं कानों में संगीत सी घुलती जाती हों,गर उस शहर की रोशनी आपकी खुशियों की चमक बढ़ा देती हो और उस शहर के अंधेरे आपके दुखों के छिपने की पनाहगाह बन जाते हों तो यकीन करना ही होता है कि आप अब भी शहर की मोहब्बत की गिरफ्त में हैं।

अब जिस समय एक छूटे हुए शहर इलाहाबाद में आए जन सैलाब की खबरें आ रही हैं,मन में यादों का एक और सैलाब आया हुआ है। पर यादों का ये सैलाब इलाहाबाद की ओर से नहीं,छूटे शहर देहरादून की ओर से आया है। एक ऐसा सैलाब जो मन को लगातार अतीत में धकेले जा रहा है।

कुछ शहरों के बारे में आपको उन शहरों में रहते हुए नहीं,उसके छूट जाने के बाद पता चलता है कि वे आपके भीतर किस कदर धंस गए थे और आप उनके भीतर। दरअसल वे एक दूजे के भीतर इतने चुपके से प्रवेश करते हैं कि अहसास ही नहीं होने पाता। और फिर छूटने के क्रम में कितना कुछ कोई शहर हमारे साथ हो लेता है और कितना कुछ अपना हम उस शहर के हवाले कर आते हैं।

और शहर छूटने कितने कितने ही दिनों बाद जब किसी एक दिन आप खुद को ढूंढते हैं,तब पता चलता है कि 'कितना आप' तो आपके के पास हैं ही नहीं। 'कितना आप' उस शहर में छूट गए हो। और अब कितना कुछ ऐसा है जो उस शहर का आपके भीतर भीतर चला आया है। उस 'छूटे आप' से बने रिक्त को भरने के लिए। तब पता चलता है कि आप कदर उस शहर की मोहब्बत में गिरफ्त में थे।

साल बीत जाने पर भी 'इश्क़ का शहर देहरादून' ऐसे ही यादों पर सवार हो आता है। आखिर भला वो कौन कमबख्त होता होगा जो इस शहर की मोहब्बत में ना पड़ जाता होगा। पांच साल का वक़्फ़ा भले ही बहुत ज्यादा ना होता हो पर इतना जरूर होता है कि आप उस शहर में जीने लगें। उस शहर को जीने लगें।

देहरादून 'द सिटी ऑफ लव' के दो रूप मन और दिमाग पर अभी भी तारी हैं। एक, सुकून से भर भर देने वाला आम,लीची और बासमती की खुशबू से महकता गमकता खूबसूरत शहर। दूजा, बेजा बोझ और उसके दबाव से जूझता शहर।


पहली बार ये शहर किसी सुकोमल, कमनीय राजकुमार सा लगा था। एक ऐसा शहर जिसे मौसम की मार से बचाने के लिए चारों ओर पहाड़ियों ने दुशाला ओढ़ा रखा है। एक शहर जिसे   घनी धूप से बचाने को गहरी हरियाली ने उसके सिर पर छावा कर दिया हो। जिसके शीश पर मसूरी मुकुट सी शोभायमान होती। मानो धान के हरे खेत उसके लिबास  बन जाते और रसीले आप और लीची उस लिबास पर टंके सितारे। राजपुर सड़क गले में पड़े हार सी तो रिस्पना उसकी कमर पर लटकी करधनी और वे एलीट संस्थाएं मसलन भारतीय सैन्य अकादमी, फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, डील, सर्वे कार्यालय उसके गले में शोभते तमगे।


लेकिन कुछ तो ऐसा है इस शहर में कि तमाम कमियों के बावजूद इससे मोहब्बत कम नहीं होती बल्कि बढ़ती जाती है। निश्चय ही इस पर ईश्वर की नेमत है। तभी तो गुरु रामराय ने इस धरती को अपना डेरा बनाया होगा। इसके चारों और की पहाड़ियों पर स्थानीय महासू देवता का निवास है। बारिशों के बाद इन पहाड़ियों के नीले रंग को देखिए तो लगेगा कि इसके वाशिंदों के गलतियों के विष को पीकर इतनी तो नेमत बख्श ही दी है कि इस जगह से आदमी को मोहब्बत हो जाए।

और फिर क्या ही खूबसूरत विडंबना है कि दो एक दूसरे से एकदम विपरीत एहसासों के द्वैत में जीता है ये शहर। प्रेम और युद्ध के द्वैत में। ये द्वैत कितने शहरों के हिस्से आता होगा।  

 इस शहर का विशेषण है 'सिटी ऑफ लव' यानी मोहब्बत का शहर। कैसे और क्योंकर मिला होगा इस शहर को ये नाम। शायद इसीलिए ना कि ये इतना खूबसूरत है कि हर कोई इसके प्रेम में पड़ जाता होगा। सच है ना। और प्रेम के इसी शहर में सैन्य विद्या का दुनिया का सबसे मकबूल संस्थान है भारतीय सैन्य अकादमी। जो नौजवान स्नातकों को युद्ध विद्या और युद्ध रणनीति में निष्णात करता है। इस शहर के हर कोने में सैनिकों का वास है। इस शहर में ही प्रीमियर रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान है। इस शहर में ही युद्ध में गोरखा वीरता का अमर स्मारक ' खलंगा युद्ध स्मारक' है और यहीं पर 'वार मेमोरियल' भी है। और इसी शहर में कलिंग युद्ध से बेजार हुए शांति और प्रेम के अमर शासक अशोक का कलसी स्तंभ भी है। प्रेम और युद्ध दो विपरीत भावों के साथ जीता कोई और शहर कहां मिलेगा।

और फिर शहर में एक दिल भी तो धड़कता है। आखिर इंसान तो इसी में रहते हैं और शहर उन्हीं में तो जीता है। ये जो इस शहर को मोहब्बत के शहर का तमगा मिला है उन्हीं के कारण है। वे प्रेम से भरे हैं। आत्मीयता से भरे हैं। उल्लास और उत्साह से भरे हैं। वे अब भी इस शहर में विश्वास करते हैं और इससे प्यार करते हैं। वे ही उसमें जान फूंकते हैं। वे ही उसकी प्राण वायु हैं। उसकी धड़कन हैं। सच तो ये है कि ये शहर शरीर से कितना भी जर्जर हो जाए, आत्मा तो ज़िंदादिल बनी रहेगी क्योंकि इसके रहवासी जो जिंदादिल है।

शहर भी कोई बेजान शय तो नहीं। ये भी तो वैसे ही जीता है जैसे आदमी। उसी तरह सांसे लेता है और अपना जीवन जीता है। ये भी जवां होता है, बूढ़ा होता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। नहीं तो क्या वजह हो सकती है कि बीती सदी के नब्बे के दशक वाला एक खूबसूरत राजकुमार सा शहर अगली सदी के दो दशक बाद ही हांफता खांसता अधेड़ सा लगने लगता है। समय के साथ कितना बदल जाता है शहर कि तीस बरस के अंतराल पर एक ही शहर दो शहर से लगने लगते हैं। कितने मुख्तलिफ। कितने अजनबी। एक दूसरे से कितने अलहदा। 

क्या ही दुख भरी दास्तां है इस शहर की कि तीस साल बाद जब उस शहर से दूसरी मुलाकात हुई तो एक ऐसा उदास,विकल और अपने ही बोझ से झुका सा हांफता सा नजर आया । क्या ही दुख है कि एक खूबसूरत,स्वप्न सरीखा शहर कैसे धीरे धीरे अपनी मृत्यु की और बढ़ रहा था।

एक शहर जिसे कुदरत ने बेइंतहा प्राकृतिक सौंदर्य की नेमतों से बक्शा हो,उसे उसी कुदरत के सबसे स्वार्थी नुमाइंदे मनुष्य ने कुरूप बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।  इस शहर के विकास के लिए जिस खास सौंदर्य बोध की जरूरत थी वैसा शायद ही किसी नगर नियोजक व्यक्ति या संस्था के पास  रहा हो। नहीं तो क्या ही कारण रहा कि अनियमित और अनियंत्रित अनियोजित रूप से विकसित होती कालोनियां इसकी खूबसूरती के बदनुमा दाग   बन गईं।

निर्मल जल से भरी नहरों और नदियों वाले इस शहर को बजबजाते नालों वाले शहर में तब्दील होना मानो इस शहर की नियति में था। नहरें सड़कों में तब्दील हो गईं और खूबसूरत नदियां बिंदाल और रिस्पना गंदे नालों में।

इस शहर की इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि जिस शहर में एक दो नहीं बल्कि आधा दर्जन प्रीमियर और विश्व प्रसिद्धि संस्थाएं प्रकृति और पृथ्वी का अध्ययन करने और उसके संरक्षण के लिए हो, वहां प्रकृति का सबसे निर्दयता और निर्ममता से दोहन किया जा रहा है। इन संस्थानों में वन अनुसंधान संस्थान,भारतीय वन्य जीव संस्थान,राष्ट्रीय वन अकादमी,वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान  शुमार हैं। इन सब के होने के बावजूद विकास के नाम पर जिस तरह से वनों और पेड़ों का कटान हो रहा है और नगर के प्राकृतिक सौंदर्य को नष्ट किया जा रहा है,इससे दुखद और क्या बात हो सकता है। सहस्त्रधारा रोड पर चौड़ीकरण के नाम पर हजारों पेड़ काट दिए गए हैं। एक्सप्रेस वे के नाम पर दो सौ साल तक के पुराने और बहुमूल्य सागौन के पेड़ काट डाले गए और अब अभी हाल में खलंगा क्षेत्र में हजारों पेड़ काटने की योजना। दरअसल पेड़ों का ये कटान शहर के सौंदर्य भर को नष्ट कर देना बाहर नहीं है बल्कि उसकी आबोहवा को दूषित कर देना और सांस लेने को और दुष्कर कर देना भी है। ये एक शहर के लिबास को उतार कर उसे अनावृत कर देना है।

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इस शहर को तिल तिल मरते देख एक बार फिर तो ज्ञानरंजन याद आते हैं और उनका कथन याद आता है कि 'बाज शहर अपनी मृत्यु में भी खूबसूरत हो सकता है।' देहरादून एक ऐसा ही शहर है। जो अपनी मृत्यु के बाद भी खूबसूरत ही रहेगा।

Thursday, 23 January 2025

प्रयाग का कुम्भ मेला

 

(25जनवरी,2025 दैनिक हिंदुस्तान)

भारतीय संस्कृति मूलतः उत्सवधर्मी है। इसमें उत्सवों का विशेष महत्व है। वर्ष भर यहां अलग अलग अवसरों पर इतने उत्सव और मेलों का आयोजन होता है कि शायद ही दुनिया के किसी कोने में होता हो। और कुंभ मेले का आयोजन इसका सबसे बड़ा प्रमाण। 

कुम्भ मेला विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक मेला ही नहीं है, बल्कि हिंदुओं की धार्मिक परम्पराओं का,उनकी धार्मिक आस्थाओं का और उनके धार्मिक विश्वासों का सबसे बड़ा शाहकार भी है। इतना ही नहीं ये उनकी इस जीवन के पार पारलौकिक दुनिया के बारे में विश्वासों और धारणाओं के अतिरेक का प्रमाण भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो इतनी बड़ी संख्या में लोग तमाम असुविधाओं,परेशानियों,यहां तक की जीवन के जोखिम को उठाकर भी अपने इस जीवन के साथ साथ परलोक को भी साधने के लिए इसमें भाग लेने क्यों आते।  दरअसल इस मेले में एक अजब सा आकर्षण है जिससे वशीभूत हो दुनिया के कोने कोने से लोग खिंचे चले आते है। वे भी जिनकी इसमें आस्था है और वे भी जिनकी कोई आस्था नहीं है।

जीवन के प्रति अपने नज़रिए,रीति रिवाज़ों,परम्पराओं और मान्यताओं के कारण हम भारतीय पूरे संसार में यूं ही नहीं अनोखे समझे जाते हैं,अद्भुत समझे जाते हैं। गज़ब का जीवट और धैर्य होता है हम में। हम कई बार अतिवाद के ऊपरी छोर पर पहुँच कर पागलपन की चौहद्दी लांघते से लगते हैं। जीवन के सुख दुःख को इतनी समदृष्टि से देखते हैं कि दुखों का भी खुशियों की तरह उत्सव मनाते हैं। पूर्णिमा की उजली रात की तरह अमावस्या की स्याह रात का भी महा उत्सव रचते हैं। और कुम्भ मेला इसका प्रतिरूप है। इस मेले में भारतीय जनमानस के धार्मिक सांस्कृतिक जीवन भर को ही नहीं जाना जा सकता है बल्कि उसके मानस (pshyche) को भी समझा जा सकता है।


चार स्थानों पर लगने वाले ये कुम्भ मेले अपने उद्भव और अंतर्वस्तु में समान हैं। समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश वाली कथा,अखाड़े,उनकी शोभा यात्राएं,पेशवाई,शाही स्नान,भजन कीर्तन,प्रवचन,लाखों श्रद्धालु, साधु संत और श्रद्धा व आस्था की बहती अबाध  धारा। इन चारों स्थानों नासिक, उज्जैन,हरिद्वार और प्रयाग के मेले एक जैसी अंतर्वस्तु और धार्मिक भावना से अनुस्यूत होने के बावजूद अपनी प्रकृति और चरित्र में बहुत भिन्न हैं! और निसंदेह प्रयागराज में लगने वाला  कुम्भ मेला बाकी सब मेलों से से अलग, अनोखा और महत्वपूर्ण है। गंगा यमुना और अदृश्य सरस्वती नदियों के पवित्र संगम पर आयोजित होने के कारण इसके विशिष्ट धार्मिक महत्व के कारण ही नहीं, बल्कि अपने पूरे  स्वरूप के कारण भी।

प्रयागराज का कुम्भ मेला माघ मास में आयोजित होता है। यूं तो संगम तट पर हर साल माघ मेला आयोजित होता है और कुम्भ मेले को इस माघ मेले के वृहत और विस्तारित रूप देखा समझा जा सकता है। माघ मास में प्रयागराज की इस पावन भूमि पर कल्पवास का विधान है। कल्पवास का विधान प्रयागराज की विशिष्टता है। यहां कल्पवासी पूरे एक माह संगम की रेती पर शुचिता और संयम के साथ रहकर अपनी आत्मा को निर्मल और पवित्र करने का उपक्रम करते हैं। दरअसल ये कल्पवास का विधान केवल लोगों के मन की अधीरता को ही नहीं थामता है, वरन मेले की गतिशीलता को भी एक ठहराव प्रदान करता है। मेले के बाहरी भौतिक कलेवर के भीतर वैराग्य की एक अंतर्धारा मेले में प्रवाहित करता है। यही प्रयागराज के कुम्भ मेले की विशिष्टता बन जाती है। प्रयाग में भक्त अपनी भागती दौड़ती ज़िन्दगी में भी यहां आकर ठहर जाते हैं। ये एक माह का कल्पवास इस ठहराव का सबसे बड़ा वक्तव्य बन जाता है।

मेले की बाहरी गतिशीलता और शोर के भीतर जो ठहराव,निश्चिंतता और शांति की निर्मिति प्रयागराज के कुम्भ मेले में होती है,वो केवल कल्पवास के विधान भर से नहीं होती,बल्कि इसका भूगोल और प्रकृति भी रचती है। यहां गंगा बिना किसी बंधन या रुकावट के अपने प्राकृतिक बहाव में हैं। गंगा मां पहाड़ों से उतर कर यहां तक आते आते शांत चित्त हो जाती हैं,बेहद सुकून में,मंद मंद गति से अपनी मस्ती में बहती हुई। इसीलिए वहां के माहौल में गति नहीं है। गतिहीनता की स्थिति है,एक ठहराव है। वहां गंगा भक्तों में भी कोई हड़बड़ी या जल्दबाजी नहीं दीखती। वे ठहर जाना चाहते है और ठहरते भी हैं। शायद यही कारण है कि एक माह के कल्पवास का प्रावधान केवल यहीं है। 

क और बात, यहां के मेला क्षेत्र का कोई भी निर्माण पक्का या स्थायी है ही नहीं।(हालांकि इस बार कुछ पक्के घाटों का निर्माण किया गया है) यहां तक कि मुख्य स्नान घाट संगम नोज भी हर बार अपना स्थान बदल लेता है। चारों तरफ रेत ही रेत है और  घाटों पर रेत की बोरियां हैं,पुआल है। ये सब यहां के ठहराव के ही अनुरूप है और वातावरण को और अधिक गतिहीन करते हैं। और ये सब मिलकर इस मेले को कहीं अधिक कोमल और पवित्र स्वरूप प्रदान करता है। अधिक सहज और सरल बनाते हैं,स्नानार्थियों के अनुभव को और आनंददायक बनाते हैं।

स मेले का मूल स्वर अभी भी काफी हद तक ग्रामीण है। अभी भी परंपराओं का निर्वहन होता है। प्रयागराज के कुम्भ मेले में मनोरंजन और देशाटन की भावना अंतर्निहित होते हुए भी धार्मिक भावना प्रधान है।


 सकी तुलना में हरिद्वार के कुम्भ मेले को देखिए।    हरिद्वार में मानव ने गंगा के प्राकृतिक बहाव को अवरुद्ध कर उस को बांधने का प्रयास किया। उसकी एक धारा को मोड़कर अपने अनुसार दिशा दी और उसके किनारों को ईंट,पत्थर और सीमेंट से बांधकर उसे नियंत्रित करने का प्रयास किया। नाम दिया 'हर की पैड़ी'। वहां गंगा का बहाव बहुत तीव्र है। उस वेग से जो ध्वनि वहां गूंजती है उससे बाज वक्त एक सिहरन सी पैदा होती है। ऐसा लगता है मानो इस बंधन से गंगा मां नाराज हैं, उद्विग्न हैं। इस बंधन से मुक्ति के लिए वेग से वहां से निकल जाना चाहती हैं। वहां पूरे वातावरण में एक अंतर्निहित गतिशीलता है। पूरा वातावरण ही गतिशील है। यहां सिर्फ गंगा ही गतिशील नहीं हैं बल्कि गंगा भक्त भी उतने ही गतिशील लगते हैं। यहां स्नानार्थी भी एक तरह की जल्दी में लगते हैं। कोई ठहराव नहीं है। उन्हें जल्द से जल्द स्नान पुण्य अर्जित कर शीघ्रातिशीघ्र वापस जाना है। 

रिद्वार में सारे निर्माण स्थायी हैं। पक्के घाट हैं। यहां भरपूर चकाचौंध है। यहां रंग बिरंगा प्रकाश है। ये रोशनी यहां अंधेरा खत्म करने से कहीं ज़्यादा सजावट के लिए है। कुल मिलाकर पूरा माहौल एक प्रकार की कृत्रिमता लिए हुए है। प्रगति का,आधुनिकता का सूचक है और यहां के माहौल की अंतर्निहित गतिशीलता को और गति प्रदान करता है। हरिद्वार में हर जगह ईंट और पत्थर हैं और उसकी कठोरता है।

 क ही कथा से उद्भूत और एक जैसी अन्तर्वस्तु लिए दो जगह लगने वाला एक ही मेला भूगोल और इतिहास के चलते अपनी प्रकृति में कितने अलग लगने लगते हैं।

हां यूं तो पूरे कुम्भ में और विशेष रूप से विशिष्ट तिथियों पर आयोजित शाही स्नान के अवसर पर स्नानार्थियों का अपार जनसमूह स्वयं संगम का प्रतिरूप रचता है। परेड ग्राउंड और संगम क्षेत्र के मध्य बांध पर खड़े होकर इस दृश्य को देखना अपने आप में अनोखा अनुभव है। शहर में दक्षिण और पच्छिम  दिशाओं से आने वाले यात्रियों के लिए परेड क्षेत्र से होकर आने वाला काली मार्ग संगम क्षेत्र में प्रवेश का मुख्य मार्ग होता है तो दूसरी और उत्तर से शहर में प्रवेश करने वाले यात्रियों के लिए दारागंज से होकर बाँध के नीचे वाला समानांतर मार्ग है जो बाँध के ठीक नीचे काली सड़क से मिलता है। दोनों तरफ से अनवरत जन प्रवाह आता है। जो मिलकर जनसैलाब का रूप धारण करता है। चारों तरफ नरमुंड ही नरमुंड चमकते हैं। ये बिलकुल गंगा यमुना के संगम सा दृश्य प्रस्तुत करता सा प्रतीत होता है। उत्तर दिशा से दारागंज से आता जनप्रवाह मानो गंगा हो जिसमें  दक्षिण दिशा से परेड होकर काली मार्ग से आता यमुना जैसा अपेक्षाकृत बड़ा जनप्रवाह बाँध के नीचे दारागंज से आने वाले जनप्रवाह में मिलकर एक विशाल जनप्रवाह का निर्माण करता है। 

रअसल प्रयागराज का कुम्भ मेला एक ऐसा कैनवास है जिस पर ऐसे ही अनगिनत अद्भुत, अनोखे और आनंददायक अनुभवों,दृश्यों और फ्रेमों से भारतीय समाज के धार्मिक जीवन और उसकी उत्सवधर्मिता का चित्र अंकित होता है।

लेकिन दुख इस बात का है कि इसके मूल स्वरूप के साथ छेड़छाड़ की जा रही है। पूरे मेले पर व्यावसायिकता हावी हो रही है। चकाचौंध बढ़ रही है। मनोरंजन तत्व हावी हो रहा है और धार्मिकता विमुख। सादगी और सरलता का स्थान चालक दमक और क्लिष्टता ले रही है। संख्या बल पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। 

शायद प्रशासन की प्राथमिकताएं गलत दिशा में जा रही हैं। हर स्थान और आयोजन की एक सीमा होती है। उस सीमा का अतिक्रमण होने पर कितना भी प्रयास क्यों ना किया जाए,अव्यवस्था उत्पन्न होती ही है। प्रयागराज के कुम्भ मेले में बिना प्रचार प्रसार के ही करोड़ों लोग अपनी आस्था के वशीभूत स्वयं आते हैं। ये संख्या कम नहीं है। लेकिन प्रशासन का लक्ष्य अधिकाधिक संख्या बल है। अब मेला क्षेत्र दोगुने से भी अधिक कर दिया गया है। विशिष्ट तिथियों पर बहुसंख्या को संगम नोज आने ही नहीं दिया जाता बल्कि बहुत दूर पर स्नान कराकर वापस भेज दिया जाता है। संगम तक आने के लिये मीलों पैदल चलना पड़ता है। होना ये  चाहिए कि संख्याबल बढ़ाने के बजाए जो लोग आ रहे हैं उन्हें संगम क्षेत्र में आने का अवसर मिले और इस क्रम में उन्हें कम से कम असुविधा हो। इस क्षेत्र में मूलभूत सुविधाओं का विस्तार होना चाहिए।

लेकिन आम जनता इन असुविधाओं की आदी होती है।  इन परेशानियों से दो चार होना उसकी नियति है। उसके लिए उसकी धार्मिक मान्यताओं के निर्वहन में ये असुविधाएं तो कुछ भी नहीं,असुविधाओं का पहाड़ भी सामने हो तो उसे भी लांघने का हौसला और जूनून रखती हैं। 

र आम जनता का जूनून और उसकी मेले में सहर्ष भागीदारी से ही कुम्भ मेला एक अद्भुत अहसास बनता है। इसी से तो पता चलता है कि कुम्भ मेला भारतीयों की धार्मिक आस्था और विश्वास  का,उनके हर्ष, उल्लास,उनकी सामूहिकता,विश्व बंधुत्व की भावना का शाहाकार ही नहीं है बल्कि उनकी अतिवादिता का,जो पागलपन की सीमा को छू छू जाती है, का भी उदाहरण है। ये कुम्भ मेला  एक ऐसा बयान है जो उस भारतीय मानसिकता को निदर्शित करता है जिसमें वे देश का अवाम दुःख और अभावों के इस कदर आदी हो जाता है कि सुख के अभाव में दुखों का भी उत्सव गान करता हैं और  पूर्णिमा की उजली रात की तरह अमावस की स्याह रात का भी उत्सव राग बुनता है।



Wednesday, 22 January 2025

शतरंज की बिसात पर भारत की बिसात


 वे बचपन के दिन हुआ करते थे जब हम भी चौसठ खानों की बिसात पर शह और मात के खेल के दीवाने होते थे। पर इससे पहले कि हम बिसात के मोहरों की चालों के उस्ताद हो पाते, उन चालों को सिखाने वाले उस्ताद पिता को सरकार ने किसी एक स्थान पर जमने ना दिया और उनका साथ ना मिलने के कारण हम शतरंज के खेल का उस्ताद बनते बनते रह गए। शौक था कि छूट गया और एक सपना कि टूट गया।

पने टूट जाते हैं,पर उनकी कसक बनी रहती है। बिसात पर प्यादों को लड़ाने का शौक भले ही छूट गया हो,भले ही चालों को चलने का हुनर ना सीख पाएं हों,पर उस खेल से मोहब्बत में हम पड़े रहे। हम उस खेल को खेलने वाले उस्ताद खिलाड़ियों से और खेल की गतिविधियों से बावस्ता रहे। उनकी खबरों को पढ़ पढ़कर अपने सपने को जीते रहे।

ये वो समय था जब विकटों के बीच दौड़ने वाला ग़िंदू टोरे (गेंद बल्ले) का खेल भारत के लोगों का धर्म नहीं बना था। हॉकी सही अर्थों में उस समय तक राष्ट्रीय खेल ही होता था और हॉकी स्टिक राष्ट्रीय उपकरण। उन दिनों हॉकी की स्टिक मैदान के भीतर खिलाड़ी के हाथों में सफेद बॉल से खेलने वाला एक खेल उपकरण होने से अलहदा भी बहुत कुछ हुआ करता थी। मसलन दादानुमा लड़कों के हाथों में उनके वर्चस्व को संभालने का हथियार भी होती और आम आदमी के घर पर अवांछित लोगों से निपटने और उनकी रक्षा का सबसे आजमाया और भरोसेमंद साथी भी हुआ करती।

न दिनों पत्रकारिता किसी मिशन सरीखी साख रखती और अखबारों की अपनी अच्छी खासी पैठ हुआ करती थी। उनके खेलपृष्ठों पर क्रिकेट की खबरें तब भी होतीं। पर उसमें रोहिन्टन बारिया कप,शीशमहल ट्रॉफी और मोइनुद्दौला कप जैसी प्रतियोगिताओं की खबरें भी अहमियत पातीं। फिर रणजी ट्रॉफी तो राष्ट्रीय प्रतियोगिता थी,तो उसकी खबरें तो विस्तार से होती ही थीं। लेकिन मार्के की बात ये है हर खेल की खबरें समान स्पेस पाती थीं। हर खेल की राष्ट्रीय और अखिल भारतीय प्रतियोगिताओं की खबरें इतना विस्तार जरूर पातीं कि हम हर खेल के उस्ताद खिलाड़ियों,खेलों की चैंपियन टीमों और विजेताओं को भली भांति जानते पहचानते। फिर वो खेल फुटबॉल हो,बास्केटबॉल हो,हॉकी हो,टेबल टेनिस या खो-खो,कबड्डी हो या फिर शतरंज का खेल हो। दरअसल ये अखबार,खेल पत्रिकाएं और रेडियो कमेंट्री ही थी कि खेलों से हम अपनी मोहब्बत को जिंदा रख पाए थे।


 ये उन्हीं दिनों की बात है जब शतरंज के खेल में मैनुअल आरोन सबसे बड़े खिलाड़ी हुआ करते थे। वे नौ बार राष्ट्रीय चैंपियन बने। वे साल दर साल चैंपियन बने जाते और हम आरोन के बड़े  फैन हुए जाते तो जनाब सैयद नासिर अली साहेब और राजा रविशेखर उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंदी। फिर एक समय ऐसा आया कि आरोन की चालों में वो तासीर ना रह पाई और तब प्रवीण थिप्से और दिव्येंदु बरुआ का सितारा बलंद हुआ जाता था। लेकिन उनके राष्ट्रीय फलक पर प्रसिद्धि पाने के दो  चार साल बाद ही भारत में एक ऐसे खिलाड़ी का आगमन होना था जिसको भारतीय शतरंज की पहचान को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर स्थापित करना था। इस शख़्स का नाम विश्वनाथन आनंद था।

ये अस्सी का दशक था जब तमिल भूमि का  बालक विश्वनाथन आनंद शतरंज की बिसात पर अपनी बहुत तेज चालों के कारण 'लाइटनिंग किड' के नाम से जाना जा रहा था और  सन 1984 में एशियाई जूनियर चैंपियन बन कर अपने भविष्य की झलक दिखा दी थी। 14 साल की उम्र में उन्होंने नौ बाजियों में नौ जीत के परफेक्ट स्कोर के साथ इंडियन नेशनल सब-जूनियर चैंपियनशिप जीत ली थी। 15 साल की उम्र में वे अंतरराष्ट्रीय मास्टर खिताब हासिल करने वाले सबसे कम उम्र के भारतीय बन गए थे। 1986 से 1988 तक उन्होंने लगातार तीन राष्ट्रीय चैंपियनशिप में जीत हासिल की। ​​17 साल की उम्र में आनंद ने 1987 में विश्व जूनियर चैंपियनशिप जीती तो वे विश्व शतरंज खिताब जीतने वाले पहले एशियाई बने। आनंद ने 1988 में अंतरराष्ट्रीय ग्रैंडमास्टर खिताब अर्जित किया। वे पहले भारतीय ग्रैंडमास्टर थे। ये किसी शतरंज खिलाड़ी द्वारा प्राप्त की जा सकने वाली सबसे बड़ी उपाधि होती है।


1975 में अमेरिकी बॉबी फिशर के पराभव के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहले अनातोले कारपोव और फिर गैरी कास्परोव ने अगुआई में रूस का एकछत्र राज रहा था। इस वर्चस्व का अंत आनंद को ही करना था,ये बात 1991 में ही तय हो गई थी। उस साल उन्होंने कैंडिडेट्स टूर्नामेंट में पिछले कैंडिडेट्स के चार सेमीफाइनलिस्टों के साथ एक स्थान अर्जित किया और पहले गैर-रूसी विश्व चैंपियन बनने के प्रबल दावेदार बनकर उभरे।

अंततः सन 2000 में आनंद ने फ़िडे विश्व चैंपियनशिप जीती। उसके बाद 2007 में उन्होंने दूसरी बार विश्व खिताब जीता। इस बार उनका खिताब निर्विवाद था। उसके बाद तीन बार अपने इस खिताब की रक्षा की। वे कुल पांच बार विश्व चैंपियन रहे और भारत को शतरंज की बिसात पर स्थापित ही नहीं किया, बल्कि उनकी असाधारण सफलता ने भारत में शतरंज को अत्यधिक लोकप्रिय कर दिया और खिलाड़ियों की एक पूरी पीढ़ी तैयार हुई जिसने भारत को शतरंज के शिखर पर पहुंचाया। आज भारत में ग्रैंडमास्टर्स की एक पूरी फौज खड़ी है। आज भारत में कुल 85 ग्रैंडमास्टर्स हैं।

विश्वनाथन आनंद का इस खेल के लिए सबसे बड़ा योगदान ये है कि उन्होंने युवाओं को ना केवल विश्व चैंपियन बनने का सपना देखना सिखाया बल्कि विश्व चैंपियन बनने के लिए जरूरी आत्मविश्वास और सलाहियत भी दी।

ये साल 2013 था। वे चौथी बार अपने खिताब को   बचाने का प्रयास कर रहे थे। उन्हें चुनौती दे रहे थे नॉर्वे के मैगनस कार्लसन। नवंबर की नीम सर्द में चेन्नई के हयात रिजेंसी होटल में ये मुक़ाबला हो रहा था। जिस हॉल में ये मुक़ाबला चल रहा था उस हाल के शीशे के पार एक सात साल का बालक ये मुक़ाबला देख रहा था जिसने अभी अभी बिसात के मोहरों से दोस्ती की थी। विश्वनाथन आनंद ये मुक़ाबला हार गए और विश्व चैंपियन का खिताब भी। लेकिन ये हार इतनी निराशाजनक भी नहीं थी। क्योंकि उस हार ने भी एक भविष्य के एक चैंपियन को जन्म जो दे दिया था। 


शीशे की दीवार के पार जो सात साल का बच्चा था उसका नाम डी. गुकेश था। उस मुकाबले को देखते हुए उस बच्चे ने सोचा था कि उस सीट पर बैठना कितना शानदार होगा जिस पर आनन्द बैठे हैं। उस दिन उस बालक के मन में सपना जगा। उस सीट पर बैठने का और विश्व विजेता बनने का।

11 साल बाद सात साल का वो लड़का 18 साल हो चुका था। वो बचपन का सपना अब भी जी रहा था। हां अब उसके साकार होने का समय आ चुका था। साल 2024 का नवंबर दिसंबर के महीने। सिंगापुर के रिजॉर्ट वर्ल्ड सेंटोसा में डी. गुकेश नाम का वो लड़का विश्व चैंपियन चीन के डिंग लॉरेन को चुनौती दे रहा था। मुकाबला 14वीं बाज़ी तक चला और अंततः 14 वीं बाज़ी में डिंग को हराकर मुकाबला जीत लिया। एक जिया जा रहा सपना हकीकत में बदल गया था।

तरंज की बादशाहत एक बार फिर भारत लौट चुकी थी। विश्व को शतरंज का एक नया उस्ताद मिल चुका था। वो अब तक का सबसे कम उम्र का उस्ताद था। डी.गुकेश। उम्र 18 साल। 

विश्व खिताब के लिए सजी बिसात की पहली ही बाज़ी में जब डिंग ने जीत हासिल की तो लगा डिंग अपने खिताब की रक्षा कर ले जायेंगे। ये जीत डिंग को काले मोहरों से मिली थी। इस बाज़ी में उन्होंने फ्रांसीसी डिफेंस खेलकर सबको चौंका दिया था। दूसरी बाज़ी ड्रॉ हुई। तीसरी बाज़ी में गुकेश सफेद मोहरों से खेल रहे थे। क्वींस गैम्बिट डिक्लाइन्ड ओपनिंग के साथ गेम जीत कर मुकाबले में वापसी की। इसके बाद लगातार सात बाज़ी बराबरी पर छूटीं। 11वीं बाज़ी में गुकेश ने डिंग को एक बार फिर हरा दिया और मुकाबले में पहली बार बढ़त हासिल की। लेकिन डिंग लॉरेन ने अगली ही बाज़ी में इंग्लिश ओपनिंग के साथ खेलते हुए गुकेश को हरा दिया। 13वीं बाज़ी फिर बराबरी पर छूटी। और फिर आई आखिरी बाज़ी। गुकेश अपनी चालों को तीव्रता से चलने के लिए जाने जाते हैं और समय का दबाव उन पर नहीं रहता। इससे विपक्षी दबाव में आता है। डिंग लॉरेन के साथ यही हुआ। उनके पास समय बहुत कम बचा। इस दबाव में 56वीं चाल में वे एक बेजा गलती कर बैठे और फिर वापसी का कोई मौका गुकेश ने नहीं दिया। 


ब एक चौसठ खानों की बिसात का एक नए बादशाह की ताजपोशी हो चुकी थी। गुकेश डी की। विश्व का सबसे कम उम्र का चैंपियन। इसकी आंखों में आंसू थे। खुशी के। शहद से मीठे। एक इतिहास की निर्मिती हो चुकी थी। उसने प्रतिद्वंदी से हाथ मिलाया और फिर बैठ गया। वो एक बार फिर बिसात पर धीरे धीरे मोहरों को सेट करने लगा। वो अपने 18 साला जीवन के 'सबसे अविस्मरणीय और महान क्षण' को भरपूर जी लेना चाहता था। हमेशा के लिए स्मृतियों को क़ैद कर लेना चाहता था। निःसंदेह उसकी आंखों के पानी में वे सारे क्षण झिलमिला रहे होंगे जो इस सपने को पूरा करने की यात्रा के सबसे अहम पड़ाव रहे होंगे। वो इन्हें एक बार फिर से जी लेना चाहता था।

ये भारतीय शतरंज खेल के ही नहीं, बल्कि समूचे भारतीय खेल इतिहास के सबसे गौरवशाली क्षणों में से एक था। 11 साल बाद खिताब उसी शहर चेन्नई में लौट आया था जहां से गुकेश के मेंटर और गुरु विश्वनाथन आनंद ने गंवा दिया था। ये एक शिष्य की अपने गुरु को सबसे शानदार गुरुदक्षिणा थी। आखिर वे विश्वनाथन की वेस्टब्रिज आनन्द चेस अकादमी के प्रशिक्षु थे।

क गुरु के लिए इससे बढ़कर और क्या ही हो सकता है कि वो अपने शिष्य को अपने नक्शे कदम पर चलता देखे और अपने से आगे बढ़ता देखे। साल 2023 के सितंबर माह में गुकेश ने ही आनन्द के 37 साल के लंबे एकछत्र राज को खत्म  करके भारत का नंबर एक चेस प्लेयर बनने का गौरव हासिल किया था। आनंद ने इसे जुलाई 1986 में दिव्येंदु बरुआ से पाया था।

रअसल गुकेश की ये सफलता जितनी उसकी अपनी नैसर्गिक प्रतिभा और अपनी लगन,दृढ़ संकल्प और मेहनत की है,उतनी ही उसके माता पिता के प्रयासों और समर्थन की भी है,और उतनी ही भारत और विशेष रूप से चेन्नई के पिछले दस सालों में शतरंज के लिए बने वातावरण और खेल संस्कति की भी है जिसने भारत में शतरंज के खिलाड़ियों की फौज खड़ी कर दी है। ये यूं ही नहीं है कि भारत के 85 ग्रैंडमास्टर्स में से 31 केवल और केवल चेन्नई से हैं।

ये पिछले कुछ सालों में भारत में निर्मित चेस संस्कृति का ही सुफल है कि 2024 में बुडापेस्ट में आयोजित 45वें चेस ओलंपियाड में भारत ने महिला और पुरुष दोनों वर्गों में स्वर्ण पदक जीते और साथ ही चार वैयक्तिक स्वर्ण पदक भी। उसके बाद गुकेश विश्व चैंपियन बने और हरिका रैपिड शतरंज की दूसरी बार विश्व चैंपियन। ये इस विकसित चेस संस्कृति की ही देन है कि आज गुकेश के अलावा अर्जुन एरिगेसी,विदित गुजराती और प्रज्ञानंद जैसे विश्व चैंपियन बनने की सलाहियत रखने वाले युवा खिलाड़ी भारत में है।

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निःसंदेह शतरंज के इस खेल में भारत का भविष्य उज्जवल है।


Saturday, 11 January 2025

अकारज 23




वे दो एकदम जुदा। 

क गति में रमता,दूजा स्थिरता में बसता। एक को आसमान भाता,दूजे को धरती सुहाती। एक भविष्य के कल्पना लोक में सपने देखता,दूजा वर्तमान की धरती पर यथार्थ के चित्र उकेरता। एक बाल सुलभ चंचलता से चहकता, दूजे अनुशासन की डोर से हनकता। 

क बसंत की बहार,दूजा शिशिर का ठहराव। एक अमावस की सांवली रात, दूजा पूर्णिमा का उजला चांद।

वे दो एक दूजे का प्रतिपक्ष।

लेकिन ये जो वैभिन्य है ना,दरअसल यही दोनों के बीच संबंधों का सबसे मजबूत पुल है। सबसे जरूरी संवाद सूत्र।

वे दो जैसे दो धड़कते दिलों की एक धड़कन।❤️❤️


राकेश ढौंडियाल

  पिछले शुक्रवार को राकेश ढौंढियाल सर आकाशवाणी के अपने लंबे शानदार करियर का समापन कर रहे थे। वे सेवानिवृत हो रहे थे।   कोई एक संस्था और उस...