Friday 11 October 2024

स्मृति शेष पिता

 "चले गए थे वे अकेले

एक रहस्यमय जगत में

जहां से आज तक लौटकर नहीं आया कोई

वह शय्या अभी भी है

वह सिरहाना अभी भी है

मैं भी हूं तारों-भरे आकाश के नीचे

पृथ्वी के लोगों के बीच


चल रहीं हूं अकेली उन्हें याद करती हुई

जीवन के बीच जीवन ढूंढती हुई।"


असमिया कवयित्री मणिकुंतला भट्टाचार्य की कविता 'पिता' का अंश।

णिकुंतला की ये पीड़ा सिर्फ उनकी पीड़ा नहीं है, शायद पूर्ण हुए हर पिता के बच्चों की है। पिता का उनके सिर पर रखा हाथ दुनिया की सबसे बड़ी आश्वस्ति है। और उसका सिर से उठ जाना एक ऐसा अभाव जिसे कभी पूरा नहीं किया जा सकता।

किसी के जाने से जिंदगी रुकती नहीं है। पिता के जाने पर भी कहां रुकती है। चलती जाती है वो बिना रुके। हमें भी कहां रुकने देती है! लेकिन जिंदगी रुके भले ही ना, पर वो पहले जैसी रह भी कहां जाती है। बस होता इतना भर है कि पैरों तले धरती की मुलामियत थोड़ी कम हो जाती है और सिर के ऊपर का आसमान थोड़ा और दूर। धरती का हरा रंग थोड़ा कम हरा दीखने लगता है और आसमान का रंग थोड़ा कम नीला। सूरज का ताप कुछ और तीक्ष्ण हो जाता है और हवा की चुभन कुछ और नुकीली। सर्द रातें कुछ ज्यादा सर्द होती जाती हैं और गरम दिन कुछ और गरम। बारिशें हैं कि बेमानी हुई जाती हैं और आंसू खारे। बस जिंदगी है कि चलती जाती है। कुछ और भारी होती हुई। कुछ और उदास होती हुई। रुकती, ठिठकती, सहमी हुई सी। सिर पर से पिता के हाथ का उठ जाना जिंदगी का निष्कवच हो जाना जो होता है।

लेकिन किया भी जाए तो क्या किया जा सकता है। मानना ही पड़ता है कि ज़िंदगी की सबसे बड़ी और अंतिम सच्चाई ही ये है कि इसे एक दिन खत्म हो जाना ही है। ये धीमे धीमे समय में घुलती जाती है और फिर किसी एक दिन पूरी तरह घुल कर खत्म हो जाती है। और तब रह जाते हैं खत्म हुए जीवन के वे अवशेष जो दिल और दिमाग के गहरे भीतरी कोनों में दबे रह जाते हैं। स्मृतियां के रूप में। अब वे स्मृतियां ही सबसे बड़ी पूंजी होती हैं। होती हैं सबसे अनमोल धरोहर। सबसे मजबूत कवच। ये स्मृतियां ही शेष रह जाती हैं जिन्हें खुशबू सा हो ज़िंदगी को ताउम्र महकाना है। उन्हें अंधेरे समय का उजास बन जाना है। मुश्किल समय में उनका हल। उदास समय की मुस्कान बन जाना है। रुके समय की गति।

पिता को गए तीन साल होने को आए। इस बीच कोई एक दिन ऐसा नहीं बीता जिस दिन पिता की स्मृति ने बेचैन ना किया हो। इतना वक़्फा बीत जाने के बाद भी ऐसा लगता है जैसे उनका जाना बस कल की ही तो बात है। उनकी स्मृतियां उदासी का सबब भी बनती हैं और मुस्कान का भी। हंसाती हैं, तो रुलाती भी हैं। कभी गुदगुदाती हैं। कभी कसक पैदा करती हैं। 

पिता की स्मृति इकहरी नहीं है। ये कई कई परत वाली हैं। अलग अलग भावावेगों वाली। जटिल। अलग अलग समय में अलग अलग भावोद्वेग पैदा करती हुई आती हैं और तिरोहित हो जाती हैं।

पिता का व्यक्तित्व बहुत ही सुदर्शन था। लंबे। छछहरे बदन। रक्ताभ वर्ण। रुआबदार व्यक्तित्व।शुरुआती जीवन अभावों से बना था। इसलिए जो भी किया खुद के बूते। सेल्फमेड। खिलाड़ी। गुस्सैल इतने कि परिवार क्या गांव जवार भी सहमता। लेकिन सोच में पुरुषवादी। पूरी तरह पितृसत्ता वादी। 

वे ऐसे कैसे हुए। पता नहीं। हो सकता है ये जातीय संस्कार रहे हों या परिवेशगत संस्कार। मेरे बाबा और परबाबा ज़मीदार की रैयत रहे। उसकी जमीन जोतते और उसे लगान देते। ये तो 1956 का ज़मीदारी उन्मूलन कानून था कि ज़मीन उनकी अपनी हुई और वे स्वतंत्र किसान बने। क्या पता उस सामंतवादी व्यवस्था का हिस्सा होने के संस्कार रहे हों।

लेकिन ये उनके व्यक्तित्व का विरोधाभास था कि पुरुषवादी सोच के बावजूद बेटी को बेइंतहा प्यार करते। उसे अगर ज़्यादा भी नहीं तो कभी बेटे से कम भी नहीं समझा। एक समय पर वे दकियानूसी लगते तो किसी दूसरे समय पर बेहद प्रगतिशील।

जो भी हो,बचपन उनसे डरते बीता। ना जाने कितनी बार मार खाई। एक ऐसा बचपन जो हमेशा अपने पिता से छिपता फिरता। उनसे बचता फिरता। इतने डर के बावजूद उनका होना सबसे बड़ी आश्वस्ति थी। सबसे बड़ा संबल था। वे मां की तरह नहीं थे। हो भी नहीं सकते थे। मां किसी नदी की तरह। बात बात में प्यार छलकता। पिता किसी चट्टान की तरह। ऊपर से कठोर। अपने बच्चों के प्रति प्रेम को भीतर समेटे हुए लेकिन बाहर से निर्लिप्त, निस्पृह,कठोर,अनमने से।

बेहद ज़िद्दी थे। वे अपने मन में हर बात के लिए एक धारणा बना लेते। उनको लगता वही सही है जो उन्होंने सोचा है। बहुत बार उस समय तक डांट या मार खाते जब तक हम वो बात ना कह देते जो उन्होंने सोच रखी है। भले ही वो गलत हो। इससे उनका अहम तुष्ट होता। हम बहुत बार पहले ही वो बात कह देते जो उन्होंने सोच रखी होती थी। हालांकि वो बात सच नहीं होती थी। पर इससे हमारा जल्द बचाव हो जाता। 

वे बहुत अनुशासनप्रिय थे और बहुत नियमित भी। सुबह बहुत जल्द उठते और हमें भी कान पकड़कर बहुत सुबह उठा देते। इस सुबह का मतलब सुबह के चार बजे होता। गर्मियों में ही नहीं बल्कि सर्दियों में भी। हमें पढ़ने के लिए बैठा देते और खुद रेडियो पर गाने लगा देते और व्यायाम करते। सुबह उठना बहुत कष्टप्रद लगता। लेकिन धीरे धीरे गाने सुनने का चस्का लगा और सुबह उठना उस तरह से कष्टप्रद ना रह गया। उन्हें रेडियो सुनने का बड़ा शौक था। रेडियो कश्मीर से रात्रि आठ बजे प्रसारित होने वाला कार्यक्रम 'वादी की आवाज़' उनका बहुत ही पसन्दीदा कार्यक्रम था जिसके स्टॉक करेक्टर मुंशीजी और निक्की की नोक झोंक केवल उन्हें ही नहीं माँ और हमारे भी मन को गुदगुदाती।

वे सरकारी नौकरी में थे। लेकिन वे बिल्कुल भी महत्वाकांक्षी ना थे। वे ईमानदारी और स्वाभिमान से जीना चाहते। उनकी चाहतें बहुत ही साधारण। हम चाहते कि हमारा दाखिला कान्वेंट स्कूल में हो। पर वे कहते वहां पढ़ने का मतलब बच्चे ना अंग्रेजी ठीक से सीख पाएंगे और ना हिंदी। हालांकि हम जानते थे कि वे दो बच्चों को कान्वेंट में पढ़ाना अफोर्ड नहीं कर सकते थे।

न्होंने अपने बेटे से भी कोई बहुत बड़ी उम्मीद नहीं लगाई थी। वे सिर्फ इतना चाहते थे कि वो एक अच्छा खिलाड़ी बने और दबंगई करे। वे खुद भी एक अच्छे खिलाड़ी रहे और कालेज में रहते हुए दबंगई भी की। उस समय अपने इकलौते बेटे से ऐसी उम्मीद रखना वाकई चकित कर देने वाला था। इसके लिए उन्होंने अपने तईं खूब प्रयास किए। वे अपने साथ शाम को मैदान पर ले जाते और सुबह फिटनेस के लिए। 

लेकिन उनकी इस इच्छा को पूरा नहीं ही होना था। बेटे की खेलों में रुचि तो हुई। खेला भी खूब। पर उस स्तर पर ना पहुंच सका जहां वे उसे देख रहे थे। दबंगई तो बिल्कुल भी ना हुई। वे बेटे को अक्सर लड़ाई झगड़े के लिए प्रेरित करते। इस मायने में कि बेटा दब्बू ना बने। वे अक्सर कहते पिटो या पीटो, पर डरकर घर मत आओ। कितने पिता अपने इकलौते बेटे को इस तरह की छूट देने का साहस कर पाते होंगे। आज की तरह ना सोचें बल्कि आज से लगभग आधी सदी पहले के समय को रखकर देखे तो ये बात मुझे तो आज भी अचंभे से भर देती है।

नका हमारे दिलों में गजब का खौफ होता। इतना ज्यादा कि सही बात ही भूल जाते। कक्षा आठ की बात है। वार्षिक परीक्षा में गणित का पर्चा देकर घर आया था। उन्होंने कहा ये सब अभी हल करके दिखाओ। घबराहट में सारे सवाल गलत किए। बहुत मार पड़ी। जब परिणाम आए तो गणित के उस पर्चे में 50 में से 49 अंक आए थे। 

लेकिन ये जीवन की शायद आखिरी मार थी। पिता जी का दूसरी जगह स्थानांतरण हो गया। हम वहीं बने रहे और पिताजी आते जाते रहे। ये मेरे लिए सुकून की बात थी। उस समय नौवीं कक्षा में ही विषय चुनने होते थे। पिताजी ने कला वर्ग में दाखिला दिलाया ताकि खेलने के लिए अधिक समय मिल सके। ऐसा उस समय हो रहा था जब सबसे नकारा बच्चे कला वर्ग में दाखिला लिया करते थे। लेकिन उनकी अपने इकलौते बेटे से अपेक्षाएं सामान्य चलन से बहुत अलग थी।

हाई स्कूल की बोर्ड की परीक्षा उनके बगैर दीं। परीक्षा परिणाम को लेकर ना तो उन्हें बहुत उम्मीद थी और ना ही भरोसा। लेकिन जब उन्होंने परिणाम देखा तो वे हैरान थे। उनका बेटा डिस्टिकंशन से उत्तीर्ण हुआ था। छियत्तर प्रतिशत अंकों के साथ। उनके मूंह से निकला था 'ये तो हाथ से गया।' ये बेहद अप्रत्याशित प्रतिक्रिया थी। उन्हें ये अहसास हो गया था जो वे चाहते हैं वो कभी पूरा नहीं होगा। लेकिन उससे अधिक गर्व से भरा मैंने उन्हें अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखा। उनकी उम्मीदें बदल गईं थी। उसके बाद उन्होंने पढ़ाई को लेकर ताजिंदगी कोई सवाल या संदेह नहीं किया।

लेकिन समय बदल जाता है। हमारे संबंध भी बदल रहे थे। हम अपनी नई भूमिकाओं के लिए तैयार हो रहे थे। मैं पढ़ने इलाहाबाद आ गया था। एक घटना से घबराकर पिताजी को एक पत्र लिखा था जिसमें अकेले रहने के डर को व्यक्त किया था। उस समय तक फोन अस्तित्व में नहीं आया था। पत्रों पर सवार हो भावनाएं,

ज्बात,विचार इत उत डोलते रहते। जवाब में उन्होंने जो पत्र लिखा था वो आज भी अंधेरे मन को रोशन कर देता है। वे बहुत सुंदर लिखते। सिर्फ हस्तलिपि सुंदर नहीं होती बल्कि उसका कंटेंट उससे भी सुंदर होता। वो पत्र भौतिक रूप में भले ही पास नहीं है। पर किसी रोशनी की तरह दिल में हमेशा बना रहता है। उनके लिखे का आशय था कोई भी सारी उम्र साथ नहीं होता। वे भी नहीं रहेंगे। हर किसी को अपना मार्ग स्वयं बनाना है। बल्कि इस बात के लिए भी खुद को तैयार करना होता है कि जो हाथ अब तक तुम्हे संभालते रहे हैं अब उन हाथों को भी संभालने की सलाहियत भी पैदा करनी है। 

भी नहीं सोचा था कि वो समय भी आएगा कि उन हाथों को संभालना होगा जिन हाथों ने बचपन से जवानी तक सहारा दिया था। पर समय सबसे बलवान होता है। होनी अपनी करके रहती है। समय से निर्दय,निष्ठुर और क्या होता है,किसी को पता हो तो बताए।

 वे सेवानिवृत हो गए थे। उन्होंने गांव में रहना चुना। लेकिन कुछ साल बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा। अब उन्हें हम नौकरी पर साथ ले आए थे। 

न्हें जीवन से बहुत प्यार था। वे जीना चाहते थे। लंबा बहुत लंबा। उन्हें ड्रिंक का शौक था। धूम्रपान का भी। लेकिन डॉक्टर ने सब मना कर दिया था। उन्होंने डॉक्टर की हर सलाह का अक्षरशः पालन किया। उन्होंने हद से ज्यादा संयमित जीवन जीना शुरू कर दिया था। 

बायपास सर्जरी के बाद वे 15 सालों तक अच्छे से रहे। बस इस बीच उन्होंने बहुत कुछ जिम्मेदारियों से मुक्त होना शुरू कर दिया था। जिम्मेदारियां अपने बेटे को हस्तांतरित करना शुरू कर दिया था। ये उन्होंने इतने सहज और सरलता से किया कि किसी को अहसास ही नहीं हुआ कि वे क्या कर रहे हैं। उन्होंने खुद को अपने बहु- बेटे के हवाले कर दिया था। ठीक वैसे ही जैसे कभी हम उनके हवाले हुआ करते थे।

नके स्वास्थ्य की सबसे बड़ी बाधा उनकी दृष्टि का धीमे धीमे क्षय होते जाना था। तमाम इलाज के बावजूद उनकी दृष्टि लगातार कमजोर होती जा रही थी। डॉक्टर कुछ नहीं कर पा रहे थे। क्षीण होती दृष्टि उनकी रोजमर्रा की गतिविधियों को लगातार सीमित कर रही थी। 

ये वो समय था जब कोरोना बीमारी मानवता पर कहर बनकर टूट पड़ी थी। उनकी आंखों की रोशनी लगातार कम होती जा रही थी। इस बीच एक और बीमारी ने उन्हें अपना शिकार बना लिया था। वे डिमेंशिया से प्रभावित होने लगे थे। वे चीजें भूलने लगे थे। वे मां को भी पहचानना भूल जाते थे। एक समय ऐसा आया जब वे सिर्फ और सिर्फ अपनी पुत्रवधु को पहचानते थे। उन्हें केवल उस पर भरोसा रहा गया था। मां को अक्सर पूछते 'ये कौन है'। अपने बेटे को अब वे एक अनजान साहब के तौर पर पहचानते। ये हृदय विदारक था।

 ई दुख आपके लिए ऐसे होते हैं जो बहुत सारे दुखों के समुच्चय से भी गहरे होते हैं। मन को गहरी टीस से भर देते हैं। वे आपकी आत्मा पर फफोलों की तरह उभर आते हैं जिनसे दुख रिसता रहता है। पिता को इस तरह से देखने से बड़ा दुख और क्या हो सकता था। लेकिन नियति अपना कार्य निस्पृह होकर करती रहती है। उसके लिए क्या दुख, क्या सुख।

ब वे शारीरिक रूप से भी बहुत कमजोर हो चले थे। वे किसी छोटे से बालक की तरह। उन्होंने पूरी तरह से खुद को हमें सौंप दिया था। वे बच्चों की तरह इसरार करते। उनकी देखभाल करते हुए हमें अपनी बेटियों का बचपन याद आने लगता। कई बार उनके हाथों को हम पकड़े बैठे रहते। उनके हाथ ऐसे लगते जैसे बचपन में बेटियों के हाथ। उतने ही कोमल, अशक्त। सोचते वृद्धावस्था और बाल्यावस्था में क्या फ़र्क होता है।

नके हाथों की कोमलता भले ही हमें बेटियों के बचपन का अहसास कराती,पर उन हाथों का ठंडापन हमें अव्यक्त भय से भर देता। बेटियों और पिता के हाथों की कोमलता का अहसास एक होते हुए भी हमे अंतर साफ नजर आता। बचपन के हाथों का अहसास जीवन का अहसास है। आगत का अहसास है। नवजीवन और नवसृजन का अहसास है। वृद्धावस्था के हाथों की कोमलता का अहसास जाने का अहसास है। जीवन की समाप्ति का अहसास है। बुझती लौ का अहसास है। कुछ छूटते जाने का अहसास है।

नके हाथों का कोमल स्पर्श हमें दो अलग अलग एहसासों से एक साथ भर देता। उनके हाथों की कोमलता हमारे अंतर्मन को तरलता से भर देती। वो प्यार के सोते सी फूट पड़ती। लेकिन उनके हाथों का ठंडापन भय से शुष्क कर देता। अथाह पीड़ा से भर देता।

क ऐसे व्यक्ति को जो हमारे लिए शक्ति का पर्याय  हो। जीवन का संबल हो। जिसकी छत्रछाया में खुद को महफूज़ समझते रहे हो, जो हमारे लिए साहस का पुंज रहा हो,उसे इस कदर अशक्त देखकर आत्मा चीत्कार ना कर उठे तो और क्या करे। जिन हाथों पर कभी झूला झूले हों, जिन हाथों से जीवन का संगीत सुना हो,उन हाथों से मृत्यु राग सुनते हुए मन दुख छालों से ना भर जाता तो और क्या होता।

ससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है जिन हाथों से मार खाने में कभी आप डरते हों आज उन हाथों से मार खाने की इच्छा जाग जाए। कैसे अशक्त हो गए होंगे वे हाथ।

ब पिता की हालत गंभीर होती जा रही थी। हम उन्हें रोज मृत्यु के थोड़ा और करीब जाते देख रहे थे। इससे भयावह अहसास और क्या हो सकता था। अंततः उन्हें अस्पताल में दाखिल करना पड़ा। डॉक्टर का हर आश्वासन उनकी आगत मृत्यु का पैगाम होता। हम उन्हें देहरादून से मेरठ ले आए। वे अक्सर कहा करते उन्हें उनकी जन्मभूमि ही ले जाया जाए। यहां तीन दिन बाद 11 अक्टूबर 2021 को एक जीवन की डोर टूट गई। नियति का एक जीवन चक्र पूर्ण हुआ। पिता पूर्ण हुए। एक आत्मा शरीर के बंधन से मुक्त हुई। शरीर अपनी माटी से जा मिला।

दुख दुख होता है। समय उनका सबसे बड़ा मलहम  होता है। दुख मिट जाते हैं। पर कोई कोई दुख जीवन में एक ऐसा अभाव भर देता है जिसे कभी भी,कोई भी कहां पूरा कर पाता है। पिता का जाना एक ऐसा ही दुख है।

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सच तो ये है कि पिता का जाना जीवन के एक हिस्से का अलग हो जाना है। जिंदगी के अमूल्य क्षणों में से कुछ का छूट जाना है। सपनों की एक शाख का सूख जाना है। खुशियों के एक हिस्से का अनंत में विलीन हो जाना है। 

दरअसल पिता का जाना आपकी आत्मा पर पड़ा दुख का ऐसा अमिट निशान है जिसे अब कभी नहीं जाना है।

Tuesday 8 October 2024

दीपा करमाकर,एक लाजवाब जिमनास्ट




 पनी बात इलाहाबाद की एक स्टोरी से शुरू करता हूँ। वहां एक शख़्स हुआ करते थे डॉ यू के मिश्र। वे आबकारी विभाग में उच्चाधिकारी थे। लेकिन जिस वजह से मैं उनका उल्लेख कर रहा हूँ वो उनकी दूसरी पहचान के कारण कर रहा हूँ। दरअसल वे एक उम्दा जिम्नास्ट भी थे। वे थे तो बहुत छोटे कद के। लेकिन उनके सपने बहुत बड़े थे। उनके दो सपने थे। दो लक्ष्य थे। एक, स्वस्थ भारत का। दो,भारत को ओलंपिक में जिम्नास्टिक का पदक दिलाने का। 

ये उनका केवल सपना भर नहीं था,बल्कि इसे हकीकत में बदलने का उन्होंने हर संभव प्रयास किया। शुरुआत उन्होंने मिर्जापुर से की। वहां उन्होंने एक जिम की स्थापना की। लेकिन ये उनके सपने को पूरा  करने के लिए पर्याप्त ना था। तो 1989 में उन्होंने इलाहाबाद के बॉयज हाई स्कूल में एक जिम्नास्टिक अकादमी की स्थापना की। ये उनका अपना निजी प्रयास था। इसके लिए उन्होंने हर उस जगह से एयरबस व्यक्ति व संस्था से सहायता ली जहां से ये संभव थी। उन्होंने अपनी उस अकादमी में अच्छे से अच्छे जिम्नास्टिक उपकरण और कोच लाने का प्रयास किया। सफल भी हुए। उन्होंने रूस तक के कोच बुलाए। अनेक राष्ट्रीय और एक दो अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं का आयोजन भी कराया। जब हाई स्कूल वाला जिम्नेजियम छोटा पड़ने लगा,तो झलवा में एक बड़ा जिम्नेजियम भी बनाया। कुछ बेहतरीन परिणाम भी आए। भारत के सर्वश्रेठ पुरुष जिम्नास्ट में से एक आशीष कुमार उनकी अकादमी की ही देन है जिन्होंने भारत के लिए  पहला अंतरराष्ट्रीय जिम्नास्टिक पदक 2010 के कॉमनवेल्थ खेलों में जीता था। इसके अलावा मयंक श्रीवास्तव ,रोहित जायसवाल , दीपांशु,साहू और विवेक मिश्र जैसे कुछ बेहतरीन जिम्नास्ट उनकी अकादमी ने दिए। 

लेकिन व्यक्तिगत प्रयासों की सीमाएं, धन की कमी, वैयक्तिक महत्वाकांक्षा और सबसे ऊपर खेल और खेल संघों की राजनीति के चलते ये अकादमी एक समय के बाद अपनी चमक खोने लगी और ओलंपिक गोल्ड तो क्या कोई भी पदक लाने का सपना सपना बनकर रह गया। अब उस अकादमी की और डॉ मिश्रा की क्या  स्थिति है,नहीं पता। लेकिन उनका ये प्रयास भारत में खेलों के उठान और उसे गति देने का एक उम्दा व्यक्तिगत प्रयास था, भले ही उसके वांछित परिणाम ना रहे हों।

रअसल इस अकादमी की और डॉ मिश्रा की याद इसलिए आई कि देश की सबसे सफल और बेहतरीन जिम्नास्ट और डॉ यू के मिश्र के सपने के सबसे करीब से होकर लौटी जिम्नास्ट दीपा करमाकर ने 31 साल की उम्र में बीत सोमवार को सक्रिय स्पर्धात्मक जिम्नास्टिक को अलविदा कह दिया।

दीपा करमाकर डॉ मिश्र की अकादमी से कोई ताअल्लुक नहीं रखतीं हैं। लेकिन वे देश की एकमात्र महिला जिम्नास्ट हैं जिन्होंने 2016 के रियो ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया और डॉ मिश्र के सपने के करीब पहुंची।

बिला शक दीपा देश की सर्वश्रेष्ठ जिम्नास्ट हैं जिन्होंने अपने करियर में सत्तर से भी अधिक पदक जीते हैं जिसमें एशियन चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक भी शामिल है। ऐसा करने वाली वे पहली भारतीय जिम्नास्ट हैं। 

सफलताएं कही भी हो और कैसी भी हो कभी भी वांछित नहीं होती। लेकिन कुछ असफलताएं अवांछित होकर इतनी प्रभावशाली होती हैं कि वे व्यक्ति की कीर्ति को अमरत्व ना भी दें तो अविस्मरणीय अवश्य बना देती हैं। भारतीय खेल इतिहास में मिल्खा सिंह और पी टी उषा न्यूनतम अंतर से पदक ना पा पाने की वजह से जाने जाते हैं। दीपा करमाकर को भी कम से कम उस समय तक उनकी उस असफलता के लिए बहुत शिद्दत से याद किया जाएगा जब तक ओलंपिक में जिम्नास्टिक में कोई भारतीय जिम्नास्ट पदक नहीं जीत लेता। 2016 के रियो ओलंपिक में वे मात्र .15 अंक के अंतर से कांस्य पदक पाने से चूक गयी थीं। यहां वॉल्ट की व्यक्तिगत स्पर्धा में स्विट्ज़रलैंड की गुलिया स्टैन ग्रूबेर के  15.216 के मुकाबले दीपा ने  15.066 अंक प्राप्त किए और कांस्य पदक से चूककर चौथे स्थान पर रही थीं। इस स्पर्धा का स्वर्ण पदक विश्वविख्यात जिम्नास्ट सिमोन बाइल्स ने जीता था।



दीपा करमाकर को भारतीय खेल इतिहास में दो कारणों से याद रखा जाना चाहिए और रखा जाएगा। 

क, उन्होंने जिम्नास्टिक और विशेष तौर पर महिला स्पर्धा में भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। उन्होंने ग्लासगो में 2014 राष्ट्रमंडल खेलों में कांस्य पदक जीता तो इन खेलों में पदक जीतने वाली वे पहली भारतीय महिला जिमनास्ट बनीं। उन्होंने एशियाई चैंपियनशिप में भी कांस्य जीता तो वे पहली भारतीय जिम्नास्ट थीं। उसके बाद 2015 विश्व चैंपियनशिप में पाँचवाँ स्थान हासिल किया तो ऐसा करने वाली भी वे पहली भारतीय जिम्नास्ट बनीं। ओलंपिक में प्रतिस्पर्धा करने वाली पहली भारतीय महिला जिमनास्ट भी वे ही हैं और इस स्पर्धा के फाइनल में पहुंचने वाली भी। किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय जिमनास्ट भी वे ही बनीं, जब उन्होंने  2018 में तुर्की के मर्सिन में एफआईजी आर्टिस्टिक जिमनास्टिक्स वर्ल्ड चैलेंज कप की वॉल्ट स्पर्धा में पहला स्थान हासिल किया।

दो,उन्होंने ये उपलब्धियां तमाम प्रसिद्ध भारतीय एथलीटों की तरह विपरीत परिस्थितियों और कठिनाइयों के बीच से उनसे लड़ते,जूझते हुए प्राप्त कीं। उन्होंने 6 साल की उम्र में जिम्नास्टिक शुरू की। लेकिन उनका बेसिक पोस्चर ही जिम्नास्टिक के लिए ठीक नहीं था। उनके तलुए फ्लैट थे जो दौड़ने या एक्सरसाइज के उपयुक्त नहीं माने जाते। यहां तक कि सेना और पुलिस में भी फ्लैट पैरों वालों को भर्ती नहीं किया जाता। ये उनके सामने पहली बड़ी चुनौती थी। लेकिन उनके कोच विशेश्वर नंदी और सीमा नंदी ने उन पर अतिरिक्त काम किया और इस कमी से पार पाया। दूसरे, शुरुआत में खुद दीपा की जिम्नास्तिक में रुचि नहीं थी। वे अपनेनपीता की इच्छा के लिए इस खेल में आईं। लेकिन कहते हैं ना जब सफलता का स्वाद मूंह लग जाए तो भूख बढ़ती जाती है। दीपा के साथ भी ऐसा ही हुआ। जब 2008 में जलपाईगुड़ी में आयोजित जूनियर चैंपियनशिप में स्वर्ण जीता तो वे इसमें गहरी रुचि लेने लगीं। उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। तब से अब तक वे अपने करियर में कुल 77 पदक जीत चुकी हैं जिसमें 67 स्वर्ण पदक हैं।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके जैसा प्रदर्शन करने के लिए वर्षों की कड़ी मेहनत और लगन की जरूरत होती है और साथ ही बहुत ही आधुनिक और उच्च स्तर की सुविधाओं की और आधारभूत ढांचे की भी। लेकिन उनके पास इसमें से कुछ भी नहीं था। उनके सामने अब सबसे बड़ी चुनौती ही बेहतरीन प्रशिक्षण और सुविधाओं की थीं। वे भारत के सुदूरवर्ती एक छोटे से शहर अगरतल्ला से थीं। उस समय तक देश में जिम्नास्टिक खेल की कोई समृद्ध परंपरा या इतिहास नहीं था और ना ही विश्व स्तरीय सुविधाएं उपलब्ध थीं। इसीलिए इलाहाबाद में डॉ मिश्र का काम इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण है जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। वे जिस जिमनेजियम में अभ्यास करती थीं,वो बहुत ही बेसिक सुविधाओं वाला था। टिन शेड वाला। जहां मानसून के दौरान ना केवल बाढ़ के पानी की समस्या से जूझना होता बल्कि चूहों और कोकरोचों के प्रकोप का भी सामना करना होता। आप समझ सकते हैं किन परिस्थितियों में विश्व स्तरीय प्रदर्शन करने वाला एक जिमनास्ट तैयार हो रहा था। इसी वजह से दीपा की उपलब्धियां खास मानी जानी चाहिए।

क तीसरी वजह से भी उनकी उपलब्धि विशेष है और वो है उनकी प्रोदुनोव वाल्ट पर विशेषज्ञता। कठिनाई और खतरे के कारण इसे 'वाल्ट ऑफ डेथ' की संज्ञा दी जाती है। इसकी कठिनाई को इस बात से समझा जा सकता है कि अब तक विश्व भर में कुल पांच जिमनास्ट हैं जिन्होंने इसमें दक्षता हासिल की है और प्रोदुनोवा वाल्ट पर सफल लैंडिंग की है। और वे उन पांच में से एक हैं। रियो ओलंपिक के फाइनल में वे इसी वजह से पहुंच सकी थीं कि उन्होंने प्रोदुनोवा वाल्ट पर परफॉर्म करना चुना था। इसमें कठिनाई के अधिक अंक मिलते हैं। 

दीपा करमाकर की खेल यात्रा इस बात की पुष्टि करती है कि कोई भी शून्य से शिखर पर पहुंच सकता हैं बशर्ते व्यक्ति में दृढ़ संकल्प,कठिन परिश्रम और कभी भी हार ना मानने का जज़्बा हो। बहुत ही साधारण परिवार से आने और बहुत ही साधारण व बेसिक उपकरणों की उपलब्धता तथा शारीरिक दोष के बावजूद विश्व स्तरीय प्रदर्शन ये कहता है कि उनकी उपलब्धियां जितनी दिखती हैं उससे कहीं अधिक बड़ी और महत्वपूर्ण हैं। निसंदेह ये उपलब्धियां और उनका जीवन भविष्य के जिम्नास्टों के लिए प्रेरणादायी साबित होगा। भारतीय जिम्नास्टिक्स में उन्होंने बड़ा मुकाम हासिल किया है जिसे भर पाना कठिन होगा। 

दीपा के संघर्ष को,परिश्रम को और उपलब्धियों को सलाम।

Saturday 5 October 2024

लघु पत्रिका अक्षत




ज के समय में अगर कोई व्यक्ति लघु पत्रिका निकालने की हिम्मत रखता है तो निसंदेह इसे उस व्यक्ति की वैचारिक प्रतिबद्धता और उसकी जिद ही समझा जाना चाहिए। कौशल पांडे सर प्रसार भारती से निदेशक राजभाषा पद से सेवानिवृत हैं और जाने माने बाल साहित्यकार हैं। उनकी अनेक बाल कविताएं,कहानियां और निबंध विभिन्न बोर्डों के पाठ्यक्रम में शामिल किए गए हैं। 

 न्होंने बरसों पहले एक लघु पत्रिका के प्रकाशन का सपना देखा था। उसे साकार भी किया। उन्होंने एक पत्रिका निकाली 'अक्षत'। लेकिन तीन अंकों के बाद अपरिहार्य कारणों से उसका प्रकाशन स्थगित करना पड़ा। उनका सपना स्थगित भले ही हो गया हो, लेकिन वो कभी भी मरा नहीं था। जैसे ही उस सपने को परिस्थितियों की उर्वर जमीन हासिल हुई, वो सपना सजीव हो हकीकत में तब्दील हो गया। लगभग चालीस साल बाद अक्षत पत्रिका का चौथा अंक प्रकाशित हुआ। 

ये एक बेहतरीन अंक बन पड़ा है। इसका मुखपृष्ठ ही बहुत आकर्षक है। अंक पत्रकारिता और संचार माध्यमों पर केंद्रित है। ये गागर में सागर जैसा है। 56 पृष्ठों में बहुत ही पठनीय सामग्री है। इसके लिए पांडे सर साधुवाद के पात्र हैं कि अपने स्वयं के संसाधनों से पत्रिका निकालने का संकल्प लिया और उसे पूर्ण किया। 

समें कृष्ण बिहारी,डा. भगवान प्रसाद उपाध्याय, कैलाश बाजपेयी,अनूप शुक्ल,डा. सुनील देवधर,डा. रमेशचन्द्र शुक्ल,अरुण प्रिय,डा. राकेश शुक्ल, हीरालाल नागर,डा. रंजना दीक्षित, अर्पणा पाण्डेय,चक्रधर शुक्ल,डा. हेमन्त कुमार, भोलानाथ,डा. राजेश कुमार पाठक,सुनील राही, मनमोहन सरल के महत्वपूर्ण आलेख है। साथ ही जयराम जय,निवेदिता झा और जयराम सिंह गौर की कविताएं भी शामिल हैं। इस अंक का मूल्य 50 रुपए है।

Friday 4 October 2024

एक सेवानिवृति:कुछ नोट्स



(चित्र 2020 का आकाशवाणी देहरादून में आयोजित समन्वय समिति की बैठक के बाद मालदेवता का है)

1.

मुख पुस्तिका की इस भित्ति विशेष पर पिछले दस दिनों ने एक उत्सव चल रहा है। ये उत्सव जीवन के एक पड़ाव की समाप्ति का उत्सव है। नए जीवन में प्रवेश का उत्सव। महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों से मुक्ति का उत्सव भी और बहुत से चाहे अनचाहे बंधनों से मुक्ति का भी। ये जीवन की सांध्य बेला में प्रवेश करने का उत्सव है। एक अंत का उत्सव है एक आरंभ का उत्सव है। ये 33 सालों की राजकीय सेवा से निवृत होने का उत्सव है। इस उत्सव को हर उस व्यक्ति को देखना और महसूसना चाहिए जो किसी सेवा में है और उसे एक दिन सेवानिवृत होना है।

2.

सेवानिवृति के अंतिम वर्ष/माह/पखवाड़े/सप्ताह में कुछ उदासी,कुछ हताशा,कुछ निसंगता,कुछ बेचैनी,कुछ आशंका और कुछ राहत के साथ निवृति की सरकारी औपचारिकताओं में व्यस्त होते तो लोगों को अक्सर देखा जाता है, लेकिन अपनी सेवानिवृति को उत्सव में बदल देने का ये एक दुर्लभ अवसर है। ये काम कोई ऐसा अकुंठ व्यक्ति ही बदल सकता है जिसने अपने काम को पूरी निष्ठा, तन्मयता, ईमानदारी से लेकिन एक खास तरह के निसंग एटीट्यूड के साथ अंजाम दिया हो। तभी तो जिस सहजता, कर्तव्यनिष्ठा और लगनशीलता से अपनी जिम्मेदारी को पूरा किया, उसी भाव से उससे विदा भी ली जा सकती है।

3.

सुश्री मीनू खरे मैम 33 वर्षों की लंबी सेवा के बाद बीते 30 सितंबर को आकाशवाणी लखनऊ के उपनिदेशक कार्यक्रम के पद से सेवानिवृत हो रही थीं। अपने बहुत सारे नवाचारों और अपने इनोवेटिव कार्यक्रमों की तरह इस अवसर को भी वे अपनी तरह से रच रही थीं। उन्होंने सरकारी औपचारिक रवायत को एक उत्सव में जो तब्दील कर दिया था। ये वे ही कर सकती थीं। उन्होंने किया।

4.

छोटा कद पर एक प्रभावशाली व्यक्तित्व। बहुआयामी। शानदार अधिकारी। संवेदनशील लेखक। आला दर्जे की प्रोग्रामर। बेहतरीन कमेंटेटर। सुप्रसिद्ध लोक गायिका। इन सब से ऊपर एक बहुत ही ज़हीन शख़्सियत। एक व्यक्तित्व जो विज्ञान के विवेक,लोक गीत के हुलास, लेखन की संवेदनशीलता,रेडियो की प्रामाणिकता,कमेंटेटर की सजीवता और संगीत की रागात्मक से निर्मित होता है। ये कोई और नहीं,मीनू खरे मैम हैं।

5.

संस्थाएं और उनमें कार्य करने वाले व्यक्ति दोनों एक दूसरे को समृद्ध करते चलते हैं। ये एक दोतरफा प्रक्रिया है। यदि कोई संस्था एक व्यक्ति को पहचान देती है, तो वो व्यक्ति भी अपनी योग्यता,अपनी काबिलियत,अपनी मेहनत से उस संस्थान की गरिमा को,उसके महत्व को बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान देता है। मीनू खरे मैम एक ऐसा ही व्यक्तित्व हैं जिन्हें जितनी रेडियो ने उन्हें बनाया,उससे कहीं अधिक उन्होंने अपने कंटेंट से,अपनी काबिलियत से उसे समृद्ध किया।

उन्होंने रेडियो के लिए शानदार कार्यक्रम किए। बदले में रेडियो ने तमाम पुरस्कारों से उस योग्यता को मान्यता दी।

एक रेडियो प्रोग्रामर के रूप में उनके खाते में शानदार उपलब्धियां हैं। उन्होंने अभी जल संरक्षण पर एक साल तक चलने वाला शानदार कार्यक्रम ' बूंदों की ना टूटे लड़ी ' किया। विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए बेहतरीन रेडियो कार्यक्रम किए। सुंदर बाल कार्यक्रम किए। महिला सशक्तिकरण पर कार्यक्रम किए। महत्वपूर्ण अवसरों पर कमेंट्री की तो खेल आयोजन कवर किए और कमेंट्री की।

रेडियो से इतर वे एक संवेदनशील लेखिका हैं और दो कविता संग्रह उनके हिस्से आते हैं। वे लोक संगीत की जानकार हैं और सिद्ध लोक गायिका हैं। उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत हैं।

6.

इतनी बड़ी भूमिका भी उस व्यक्तित्व के लिए छोटी है। लेकिन ये इसलिए ज़रूरी है कि कल 30 सितंबर को उनका रेडियो का 33 साल लंबा सफर औपचारिक रूप से समाप्त हुआ। 

रेडियो में ब्रॉड़कास्टर के रूप में एक विराट पारी के शानदार समापन की हार्दिक बधाई और जीवन में एक नई पारी की उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं।


 (चित्र 1994 का आकाशवाणी वाराणसी संगीत स्टूडियो)




स्मृति शेष पिता

  "चले गए थे वे अकेले एक रहस्यमय जगत में जहां से आज तक लौटकर नहीं आया कोई वह शय्या अभी भी है वह सिरहाना अभी भी है मैं भी हूं तारों-भरे ...