Sunday, 15 April 2018

चुपके से


                                    चुपके से
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"फरवरी की सर्दियों की धूप में
मुंदी मुंदी अँखियों से देखना
हाथ की आड़ से
निमि निमि ठण्ड और आग में
हौले हौले मारवा के राग में
मीर की बात हो
दिन भी ना डूबे
रात ना आये
शाम कभी ना ढले
शाम ढले तो सुबह ना आये
रात ही रात चले"
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उफ्फ ! क्या ही कमाल है ! आखिर ये होता कैसे है ! कि दिल में लावा सी पिघली हसरतें ज़िंदगी के सफों पर दर्ज़ होती जाती हैं ! रोशनाई की जगह प्यार बूँद बूँद कलम से रिसता है और शब्द शब्द ज़िंदगी बुनती चलती जाती है... और जब ये  रिसाव साज़िन्दों की उँगलियों के इशारों पर चलते साज़ों पर नदी सा बहता हुआ किसी बालसुलभ बुनावट वाली सधी ठहरी गंभीर आवाज़ की उष्मा से भाप बन कर उड़ता है और फिर बूँद बूँद मन पर बरसता हैं तो ज़िंदगी का सागर अनगिनत कही अनकही कहानियाँ से भरता जाता है !

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गुलज़ार के शब्द शब्द भँवरे रहमान के राग राग उपवन में साधना के गले से झरते फूल फूल सुरों पर गुंजन करते हैं 'चुपके से, रात की चादर तले' !
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बॉलीवुड सांग _4 





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