Tuesday 6 March 2018

क्रिकेट कथा वाया यादों की गलियां




 क्रिकेट कथा वाया  यादों की गलियां 
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               वर्तमान चाहे कितना भी अच्छा क्यूँ ना हो शायद ये अतीत के प्रति मोहग्रस्तता है कि अतीत कहीं बेहतर नज़र आता है। अब क्रिकेट को ही लीजिए। भारतीय क्रिकेट टीम के दक्षिण अफ़्रीकी के हालिया दौरे पर मिली शानदार सफलता के बाद आप मान सकते हैं कि ये भारत की अब तक की सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट टीम है क्यूंकि इस प्रदर्शन ने दिखाया कि वे अपने देश की पाटा पिचों पर ही नहीं बल्कि तेज़ और उछाल वाली पिचों पर उतनी ही कुशलता के साथ खेल सकते हैं। सौरव गांगुली के साथ भारतीय क्रिकेट का जो रूपांतरण शुरू होता है उसे महेंद्र सिंह धोनी ने आगे बढ़ाया और विराट कोहली ने अपने अंजाम तक पहुंचा दिया।इन तीनों के नेतृत्व में भारतीय क्रिकेट टीम ने शानदार रिकॉर्ड जीतें दर्ज़ की हैं और वो भी खेल के हर फॉर्मेट में। 
             लेकिन इस सब के बावजूद इनमें से कोई भी जीत टेस्ट क्रिकेट में 1971 में अजित वाडेकर के नेतृत्व में इंग्लैंड में 1-0 की जीत और सीमित ओवरों के फॉर्मेट में 1983 के विश्व कप की जीत का मुक़ाबला नहीं कर सकती। आप इससे असहमत हो सकते हैं पर मेरे लिए यही सच है। 1971-72 में 7-8 साल की उम्र में उस जीत का सबक स्मृतियों पर ऐसा दर्ज़ हुआ कि बाद की कोई जीत मिटाने की तो बात छोड़िए ओवरलैप या ओवरशैडो भी नहीं कर पाई।और फिर उसके लगभग 12 वर्षों बाद 1983 के विश्व कप की जीत 1971 की जीत के समानांतर ऐसी दर्ज़ हुई कि बाद की कोई जीत उसे छू भी नहीं पाती। किसी ने उस जीत के बारे में सपने में भी नहीं सोचा होगा। शायद ख़ुद खिलाड़ियों ने भी नहीं। उसी विश्व कप में ज़िंबाबवे से लीग मैच था। भारत ने 17 रनों पर 5 विकेट खो दिए थे। तब कपिल देव ने 175 रनों की एक अद्भुत पारी खेली थी।सड़क पर एक पेड़ के नीचे सांस थाम कर वो पारी सुनी थी।उस पारी से बेहतर पारी हो सकती है क्या कोई ! उस जैसा रोमांच कोई दूसरी पारी पैदा नहीं कर सकी,यहां तक की सचिन,सहवाग और शर्मा के एक दिवसीय मैचों के दोहरे शतक भी। और फिर कोई भी स्पिनर बेदी प्रसन्ना चंद्रशेखर और वेंकट की चौकड़ी से बेहतर हो सकते हैं जब वे दोनों छोरों से गज़ब की लय के साथ बॉलिंग करते तो लगता मानो कोई तान छेड़ दी गयी हो।और फिर एकनाथ सोलकर को याद कीजिये। फॉरवर्ड शार्ट लेग पर बल्लेबाज़ से एक हाथ की दूरी पर बिना हेलमेट पहने मैच दर मैच जैसे कैच वे पकड़ते मो कैफ से लेकर रैना और कोहली तक कोई पकड़ पाता। आबिद अली याद हैं क्या आपको !दर्शकों की मांग पर जिस तरह  छक्के लगा कर जो रोमांच पैदा करते क्या सहवाग सचिन या धोनी या कोहली कर पाते!और हाँ विश्वनाथ जैसी कलात्मक और मोहिंदर जैसी सहज लयात्मक बैटिंग कोई दूसरा कर पाता ! ये कुछ उदाहरण भर हैं। सत्तर और अस्सी के दशक में बेशक़ भारतीय क्रिकेट आज जैसी बुलंदियों पर नहीं थी ,सफलता के सोपान बेहद कम थे लेकिनखेल अपनी कलात्मकता में और अपने क्लासिक मिजाज़ में बुलंदियों पर था।
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