Sunday 9 April 2017



पतंग 
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                                  पतंग आपको हमेशा आकर्षित करती हैं।केवल बचपन में ही नहीं बल्कि जीवन के किसी भी मोड़ पर।किसी भी वक़्त। किसी भी जगह। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक।सर्दी से लेकर गर्मी तक। छतों से लेकर मैदानों तक।गली कूंचों से लेकर चौराहों तक। गांव से लेकर शहर तक। रंग बिरंगी खूबसूरत सी,हमेशा अपनी और खींचती सी लगती हैं। आपको हमेशा लगता है आपके पास खूब सारी पतंग हो। जब मर्ज़ी हो उड़ाए,पेंच लड़ाए और जब चाहे उतार कर अपने पास रख लें। ये पतंग आपको केवल रंग रूप के कारण ही अच्छी नहीं लगती बल्कि अपनी पूरी बनावट,अपनी सम्पूर्णता में अच्छी लगती हैं।ये महज़ कागज़ का एक टुकड़ा भर नहीं है। गौर से देखने पर एक अभिव्यक्ति सी दिखाई देती है।कई बार रंग अच्छे नहीं होते,कई बार आकार मुफीद नहीं होता,कई बार बनावट अच्छी नहीं होती। इस सब के बावजूद पतंगें अच्छी लगती हैं। दरअसल अपनी अन्विति में पतंगें इतनी परफेक्ट होती हैं कि आप दीवाने हो जाते हैं। वे आपके दिलो दिमाग पर छा जाती हैं।
                      वो दरअसल एक ऐसी ही पतंग थी जिसके रंग बहुत चमकीले नहीं थे। वो पतंग कुछ ऐसे रंग की थी जिसे सामान्यतः लोग पसंद नहीं करते।मटमैला सा फीका फीका सा रंग था उसका। जो भी आता उसे देख कर अलग कर देता। दुकानदार बड़े इसरार से कहता बहुत अच्छी है बहुत उड़ेगी। पर लोग उसे ना लेते। दरअसल ये खरीदने वालों की समझ का फेर था। उसका निर्माण किसी बड़े शहर के बड़े पतंगसाज़ के कारखाने में नहीं हुआ था। वो एक कस्बाई हुनरमंद हाथों से गढ़ी गयी थी। ध्यान देने की बात है वो बनाई नहीं गयी थी बल्कि गढ़ी गयी थी। उसमें किसी मशीन वाली सफाई नहीं थी बल्कि हाथों की बनावट वाला कच्चापन था। ये कच्चापन ही उसके सौंदर्य का चरम बिंदु था।उसका ये आंतरिक सौंदर्य लोगों को नहीं दिखाई देता।उस पतंग की पूरी बनावट,उसके विभिन्न अवयवों की आंतरिक संगति नहीं दिखाई देती। वो अपनी पूरी अन्विति में एक गज़ब का अनगढ़ सौंदर्य उत्पन्न करती। इस सौंदर्य को देखने के लिए मन की आँख की ज़रुरत थी।वो परफेक्ट नहीं थी। उसकी फिनिशिंग और पोलिसिंग नहीं हुई थी। लेकिन पूर्ण थी। अपूर्ण रूप से पूर्ण।दरअसल उसकी अनगढ़ता,उसकी अपूर्णता ही उसका असल सौंदर्य था। पर एक दिन पतंग का खरीदार आ ही गया।पतंग चली गयी। अब किसी और के पास उस अनगढ़ सौंदर्य को पढ़ने का मौक़ा नहीं था। 
           पतंग के अपने जीवन का भी एक शास्त्र होता है,एक दर्शन होता है,निश्चित नियति होती है। उसे एक बंधन में रहना है। डोर के बंधन में,उससे बंधकर। इस डोर का एक सिरा पतंगबाज़ के हाथ में। पतंगबाज़ जितना ऊंचा उड़ाए वो उड़े। जितनी ढील दे वो आगे जाए। जब डोर खींचे,वापस आए।  वो तो कठपुतली भर है ,पतंगबाज़ के हाथों की।पर सोचता हूँ आखिर एक पतंग की अपनी भी कोई इच्छा होती होगी। उसके पास आकाश में उड़ने का मौक़ा तो है पर पतंगबाज़ की इच्छा तक सीमित।और वो भी बंधन के साथ। उसकी नियति  बंधन में बंधना,पतंगबाज़ के हाथों की कठपुतली बनना ही क्यूँ है।  
                 कभी आप ध्यान से देखिए कटी पतंगें कितनी खूबसूरत लगती हैं। केवल ढील देने भर से उसमें कितना गज़ब का उत्साह आ जाता है। मंद गति से लहराती गजगामिनी की तरह मस्त नई उंचाईयों,गंतव्यों की तलाश में चल देती है। तो फिर कटी पतंगों का क्या कहना। ये सच है कटी पतंग का कोई ठिकाना नहीं होता। पर उसकी आज़ादी तो है। जहां चाहे बसेरा कर ले कभी किसी डाल पर तो कभी तार पर,कभी किसी छत पर तो कभी किसी वृक्ष पर। चाहे तो किसी और पतंगबाज़ के हाथ लग जाए और अपनी पर आ जाये तो  मिट जाए फट जाए पर कही ऐसी अटके कि किसी के हाथ ना आये। ये एक विरोधाभास है पतंग के जीवन का। वो सुन्दर है  इसलिए बंधन में है। क्या हर सुन्दर उपयोगी चीज़ का आदमी के हाथ  की कठपुतली बनना नियति है ,यहां तक कि सुंदर प्रकृति को भी। 
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क्या ऐसी कल्पना करना बेमानी है कि कभी पतंगें भी पक्षियों की तरह खुले आकाश में बिना डोर बिना बंधन के उन्मुक्त उड़ सकें। 













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