Tuesday, 8 April 2014

औरत

 औरत : एक   

शहर के पॉश इलाके में साईं बाबा का एक मंदिर है
कहते हैं सरकारी जमीन पर अतिक्रमण कर बनाया गया है
इसके निर्माण में न्याय से लेकर प्रशासन तक सभी ने 
यथा सम्भव योगदान किया है
अब ये हिट है। 

मंदिर में खूब भीड़ भाड़ होती है,
रोज़ भक्तों का बाबा से मिलन होता है,
बाहर भण्डारे चलते हैं,
अंदर चढ़ावे चढ़ते हैं,
और बेशकीमती कपड़ों से बाबा का श्रृंगार होता है। 

पर भक्तों की उस भीड़ में घूमती अधेड़ सी एक औरत है
बेखबर बेपरवाह इस सभी से,
भूख से बिलबिलाती,
झूठे पत्तलों को चाटती,
गर्मी में कुम्हलाती,
और सर्दी में किटकिटाती,
बिना किसी के आगे हाथ फैलाए,
बिना कुछ माँगे,
अनावृत यौनांगों को लिए हुए
वो संवेदनहीन सी।

वो निपट अकेली है क्योंकि वह 
बाज़ार के लिए घाटे का सौदा है
वर्ग संघर्ष के लिए भोथरा हथियार है
आस्तिकों के लिए कर्मों का फल है
नास्तिकों के लिए पाप का निशानी है 
समाज के लिए बोझ है 
शासन के लिए ज़िंदा लाश है 
तो क्या वो .... 
ना ना.…आप गलत सोच रहे हैं 
वो पागल कतई नहीं है 
मैं बताता हूँ 
दरअसल ये वो आईना 
जिसमें हमारा अक्स साफ़ साफ़ दिखाई देता है 
हम में बढ़ती जाती अजनबियत का 
दुगुनी होती संवेदनहीनता
पल पल मरते जाते ज़मीर का



औरत :दो 

शहर के दूसरे पॉश इलाके का ये मंदिर
सरकारी ज़मीन पर खड़ा 
हिस्ट्री शीटर पुजारी बना
गणेश जी ने दूध पिया
तो एक से दो बना
घूमती पगली सी इधर उधर एक नवयौवना का
इसी की छाया में आशियाना बना। 

कभी रेंगे थे आदमी इस शरीर पर
लिजलिजे कीड़ों की तरह
और छोड़ दिया था निर्जीव से शरीर को कबाड़ की तरह
आज वो आड़ कबाड़ को  खींचती है
फिर लाद लेती है अपने ऊपर उसे 
आदमी समझ कर
जैसे लादती आयीं हैं जन्म जन्मान्तर से। 
लेकिन अब एक अंतर आ गया है 
लादने के बाद 
वह उसे पीटती है,घसीटती है, फ़ेंक देती है 
और बार-बार यही प्रक्रिया दोहराती है,
मानो उन्हें दिखा रही हो उनका अक्स
कि तुम सिर्फ और सिर्फ़ कबाड हो
भले ही समाज और चिकित्सा विज्ञान उसे पागल कहे 
वह अब सभी बंधनों से आज़ाद है 
और वही करती है जो सही समझती है। 



औरत :तीन 

शहर के तीसरे पॉश इलाके का ये शानदार अपार्टमेंट
कब्जाई जमीन पर बना है
और  काली कमाई से खरीदे गए फ्लैट में
काम करती एक बाई है
जिसने अपने पेट की आग बुझाने के लिए
नशेड़ी पति की दारु के लिए
और बच्चों के दूध के लिए

बेच दिया
बच्चों के हिस्से का बेशकीमती समय
छोड़ दिया अपने हिस्से में आने वाला बच्चों का दुलार 

अब छूट गया 
बच्चों को बड़े होते देखने का सुख,
उनको दुलारने सहलाने की हूक,
उनको कुछ सिखाने की तमन्ना,
जवान होती बेटियों से राज़ बांटने की इच्छा,
खुद के सजने संवरने की चाह।  

खो गया  
मन का चैन,
और तन का सुख। 

टूट गए 
मन में सजाए सारे सपने,
और उन सपनों के सच होने की उम्मीद। 

अब वह शानदार मॉड्यूलर किचेन में खड़ी हो ढूंढती है
अपने हिस्से का सुख,
हटाती है उम्मीद के जूने से दुःख की झूठन,
जिंदगी के कमरों को झाड़ पोंछ कर
करती है जतन
किस्मत पर पडी धूल को हटाने का,
छींटती पछोटती है जिंदगी के कपड़ों को
और टाँग देती है क्लिप के सहारे रस्सी पर,
फिर देखती है आसमान की ओर इस आस में
कभी तो वो सुबह होगी
जिसकी धूप 
चुपके से सोख लेगी 
उसकी जिंदगी के अभावों के गीलेपन को
और उसकी जिंदगी में भी रह जाएंगे
निरे सुख। 

 



Saturday, 5 April 2014

सड़क




सड़क जिंदगी के समानांतर चलती है
अपने इतने करीब लगती है
जीवन की कहानी बयाँ करती सी लगती है
क्या कभी आपने सड़क को ध्यान से देखा है ?

जी हाँ
सड़क
सुबह सुबह
शांत,निर्मल, पवित्र सी
दूर क्षितिज तक जाती
जिसका कोई अंत नहीं
छोटे से बच्चे की तरह मासूम सी दिखती
अनंत सम्भावनाओं को समेटे
खाली स्लेट सी साफ़ सुथरी
जिस में कुछ भी रच बस सकता है
और पूरा शहर उसके आगोश में समा सकता है। 

सड़क
दोपहर होते होते पूरे जोश से भर जाती है
पूरी क्षमता भर लोगो को ढ़ोती है
और भाग रही होती है
यहाँ से वहाँ
फुर्सत नहीं होती सांस लेने की भी
अपने में मगन
मग़रूर नौजवाँ सी सड़क।

सड़क
साँझ ढलते ही लगने लगती है
थकी-थकी सी
रफ़्तार पड़ने लगती है मद्विम
रौनक भी होने लगती है कम
लोग लगते है साथ छोड़ने।

और
रात बढ़ने के साथ ही
बुढ़ापे की तरह
एकाकी होने लगती है सड़क
एक-एक करके सभी छोड़ जाते हैं साथ
रह जाती है निपट अकेली वो
अन्धकार कुछ इस तरह से लेता है जकड़
कि पैरों के पास ही ख़त्म होती लगती है दुनिया 
उसके आगे सिर्फ रह जाता है अन्धेरा ही अँधेरा 
अकेले जीने को अभिशप्त
कभी कभार इक्के दुक्के भूले भटके आए राहगीर के साथ चलकर कुछ दूर
नई सुबह की इंतज़ार में
अकेले रात काटती सड़क।

कितनी अपनी कहानी सी लगती है सड़क।  (दीपेन )




राकेश ढौंडियाल

  पिछले शुक्रवार को राकेश ढौंढियाल सर आकाशवाणी के अपने लंबे शानदार करियर का समापन कर रहे थे। वे सेवानिवृत हो रहे थे।   कोई एक संस्था और उस...