Tuesday, 11 February 2025

खत ओ किताबत के पतझड़ में वसंत


प्रिय भाई कैलाश 

और

पंकज भाई

आप लोगों को पता चल ही गया होगा कि वसंत आ चुका है। जब शहर में रहने वालों को पता चल गया है कि वसंत आ गया है तो आप लोग तो गांव में रहते हैं आपको क्यूं कर ना पता चल पाया होगा। 

हरों में तो इस कदर भीड़ है कि वसंत को उतरने की कोई जगह ही कहां मिल पाती है। इसीलिए शहरों में वसंत धीरे धीरे और बहुत कम उतरता है। कई बार तो इतना कम कि पता ही नहीं चलता कि कब वसंत आया और कब गया। कई बार लोग इस बात से अंदाज़ा लगाते हैं कि ये फागुन का महीना है यानी वसंत आ गया है।


लेकिन गांव में। वहां वसंत का स्वागत करने को कितना कुछ है। पहाड़,नदियां,जंगल,पेड़,पक्षी और मनुष्य। खेत खलिहान तो हैं ही। तो फिर क्यों ना वसंत वहां झोर कर गिरे।

लेकिन मैं इस वसंत की बात नहीं कर रहा। मैं उस वसंत की बात कर रहा हूं जो वसंत आप लोगों ने वसंत के भीतर वसंत गिराया है। चिट्ठियों पर शब्द-शब्द फूल खिले हैं ज्यों खेत-खेत सरसों के पीले फूल। 

किसी पतझड़ के मौसम में वसंत को उतार लाना किसी अजूबे कम थोड़े ही ना है। पर मन में कुछ कुछ प्रेम,कुछ कुछ आस,कुछ कुछ उदासी की स्याही हो, और चाहत की कलम हो तो क्या नहीं हो सकता है। चिट्ठि लिखने के इस पतझड़ वाले समय में 'स्मृतिलोक से चिट्ठियां' वसंत से कम तो नहीं। 

विज्ञान और प्रगति ने हमारा सामने भले ही हमारे लिए सुख सुविधाओं के अंबार लगा दिए हों। पर हमसे हमारी बहुत सी कोमलताएं छीन ली हैं। चिट्ठियों के पते उनमें से एक है। पर क्या ही कमाल है कि कुछ ऐसे लोग अब भी बाकी हैं जो उन कोमलताओं को सहेज सके हैं। वे अभी भी चिट्ठियों से प्यार करते हैं,भरोसा करते हैं,उन्हें बहुत सारे पते अभी भी याद हैं और वे उन पतों पर आज भी चिट्ठियां भेजते हैं।

चिट्ठियों में कुछ उल्लास,कुछ उम्मीद,कुछ उदासी तब भी हुआ करती थी, जब बहुत सारे लोग बहुत सारी चिट्ठियां लिखा करते थे। आज जब ' स्मृतिलोक से चिट्ठियां' पढ़ी जा रही हैं, तो कुछ वैसा ही लग रहा है जैसा कभी एक वक्त लगा करता था, जो अब बीत गया है। पर इन चिट्ठियों को पढ़ते हुए लग रहा है, बीता वक्त लौट आया है। 

नमें भावनाओं का ज्वार है। मिलन की आस है। विछोह की उदासी है। दोस्ती की उमंग है। मोहब्बत की खुशबू है। बीते वक्त की छाया है और आने वाले समय की धूप। कुछ अपनी है। कुछ जग की। 

 'स्मृतिलोक से चिट्ठियां' दरअसल जादू की एक पोटली है।

प दोनों को मोहब्बत पहुंचे। और बहुत सारी चिट्ठियों के इंतजार में।

र हां 'कम लिखे को ज्यादा समझना'।


                                                  एक पाठक

Wednesday, 5 February 2025

जीरो माइल बरेली



हर शहर का एक भूगोल होता है और उस भूगोल का स्थापत्य  ये दोनों ही किसी शहर के वजूद के लिए ज़रूरी शर्तें हैं। इस वजूद की कई-कई पहचानें होती हैं। लेकिन ऐसी पहचानें किसी शहर का मुकम्मल परिचय नहीं करा सकतीं, बस एक हद तक उस शहर के बारे में जाना जा सकता है।

हर केवल कुछ ख़ास पहचान भर नहीं है। यदि किसी शहर को उसकी समग्रता में जानना है, तो उन लोगों के बारे में जानना होता है जो उस शहर को शहर बनाते हैं। उसमें जान फूंकते हैं। जो उसकी धड़कन हैं। जो उस शहर को एक ‘लाइव आइडेंटिटी’ देते हैं। हमें उसके चरित्र को समझना पड़ता है जो उस शहर के रहवासी सामूहिक रूप से अपनी आदतों, अपने रहन-सहन, अपनी रवायतों से और क्रियाकलापों से बनाते हैं।

र इसको तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक किसी शहर को आप ‘जीने’ नहीं लगते. उस शहर में जीने नहीं लगते। बिना शहर में धंसे और बिना उस शहर को अपने भीतर धंसाए किसी शहर को कहां समझा जा सकता है। कैसे उसे बताया जा सकता है। कैसे उसकी क़िस्सागोई की जा सकती है।

त्रकार, अनुवादक, लेखक और फ़ोटोग्राफ़र प्रभात की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘ज़ीरो माइल बरेली’ को पढ़कर समझा जा सकता है कि उन्होंने इस शहर को किस तरह जिया है। वाम प्रकाशन की शहरों के बारे में रोचक सीरीज़ ‘ज़ीरो माइल’ की यह पांचवीं पुस्तक है। इससे पहले पटना, अयोध्या, मेरठ और अलीगढ़ शहरों पर किताबें आ चुकी हैं।

प्रभात सर मूलतः एक छायाकार हैं। उनके कैमरे के पीछे उनकी बहुत पैनी निगाह होती है, जो बहुत ही सूक्ष्म बातों को लक्षित करती हैं और कमाल के दृश्य बनाती हैं। लेकिन वे ऐसा सिर्फ़ कैमरे से ही नहीं करते, बल्कि अपने दिलोदिमाग़ में देखे, भोगे, महसूसे को अपने शब्दों और भाषा से भी काग़ज़ पर उतने ही बेहतरीन दृश्य बनाते हैं, जैसे कि वे कैमरे से बनाते हैं।

स किताब में उन्होंने बरेली शहर को बहुत ही जीवंत तरीक़े से प्रस्तुत किया है। इस किताब को पढ़ते हुए आप को लगता है कि किसी बाइस्कोप के माध्यम से बरेली शहर को देख रहे हैं. बस माध्यम बदल जाते हैं। होता इतना है यहां आंख कैमरे की नहीं होती, बल्कि मन की होती है और लेंस की जगह शब्द होते हैं।

हर कोई निर्जीव चीज़ नहीं, बल्कि सजीव शय है। वो सांस लेता है। बढ़ता है। बदलता है। और जीवन के अनेक पड़ाव पार करता है। इस बदलाव को देखना बहुत रोचक भी होता है। कष्टकारी भी होता है। और कई बार सुखद भी। समय के साथ बदलते बरेली शहर की


तस्वीर को उन्होंने इस किताब के माध्यम से बहुत ही ख़ूबसूरती से प्रस्तुत किया है। शहर किस तरह किन हालात में बदल रहे हैं, यह किताब इस बात का प्रामाणिक बयान है। उन्होंने बरेली में अपना बचपन जिया और अब अपने जीवन का उत्तरार्ध जी रहे हैं। उन्होंने बदलते शहर को बहुत ही सूक्ष्म और गहरी नज़र से देखा है और उसे यहां कलमबद्ध किया है। इस किताब में दर्ज ब्यौरों को पढ़कर कोई भी पाठक इसे अपने शहर से रिलेट कर सकता है।

स किताब की ख़ूबसूरत बात यह है कि एक ओर तो वे उन विवरणों को अंकित करते हैं जो सार्वभौमिक हैं. जो हर शहर, हर क़स्बे और हर गांव पर लागू होते हैं। दूसरी और वे उन बातों को कहते हैं जो बरेली शहर की ख़ास विशेषताएं हैं, एकदम स्थानीय। उनकी दृष्टि कितनी बारीक़ चीज़ों को पकड़ती है, उसे यहां दर्ज़ उस एक छोटे से वाक़ये से समझा जा सकता है, जिसमें वे उस पंसारी के बारे में लिखते हैं जो अपनी दुकान पर आए बच्चे को सामान ख़रीदने के बाद गुड की डली देता है। यह पहले हर गांव और शहर की रवायत थी, जो अब ख़त्म हो गई है। मुझे आज भी याद है कि जब भी हम छुट्टियों में गांव जाते तो वहां पर पंसारी ऐसे ही बच्चों को नमकीन दिया करता था, जिसे वहां ‘लुभाभ’ कहा जाता था।

पुस्तक 12 भागों में विभक्त है. लेकिन उससे पहले उन्होंने एक़ रोचक भूमिका लिखी है जो इस किताब को पढ़ने का टेम्पो बना देती है। वे अनेक लोगों के उदाहरण के ज़रिए बताते हैं कि लोगों की नज़र में बरेली की पहचान किस रूप में हैं। और फिर इस बात को भी कहते हैं कि कोई भी एक पहचान बरेली की मुकम्मल पहचान नहीं है। बल्कि बरेली के रहवासियों का जीवन और उनके द्वारा बनाई गई सामासिक संस्कृति ही बरेली की असल पहचान है।

न 12 भागों में पहले दो भाग शहर की स्थापना से लेकर आज़ादी तक के इतिहास का बयान करते हैं। वे न केवल इस इतिहास को बहुत ही सरल रूप प्रस्तुत करते हैं बल्कि यह भी स्थापित करते हैं कि मेल-जोल की गंगा-जमुनी संस्कृति इस शहर की सदियों पुरानी रवायत है जो आज तक क़ायम है। उसके बाद के भागों में हर वो बात है जो आप एक शहर के बारे में जानना चाहते हैं। गली, मोहल्ले, चौराहे, नई-पुरानी पहचान, बाज़ार, विशिष्ट और आम आदमी, धार्मिक रवायतें और पूजा स्थल, शिक्षा और शिक्षण संस्थान, विशिष्ट संस्थान, सड़कें और फ्लाईओवर्स, जाम, भीड़, पार्क, तीज-त्योहार, सिनेमा और संगीत, और अपनी पत्रकारिता की भोगी तस्वीरें भी। सुरमा और झुमका का होना तो लाज़मी है। हां, कोई एक चीज़ जो इस किताब में अनुपस्थित है वो है बरेली का खेल परिदृश्य।

स किताब की एक जो बहुत ही उल्लेखनीय बात है वो है इसमें कोई भी टाइपिंग मिस्टेक, वर्तनी या प्रिंटिंग मिस्टेक या व्याकरणिक ग़लती का न होना। यह एक ऐसी बात है जो आपके पढ़ने के अनुभव को बेहतरीन बनाती है। नहीं तो आजकल बड़े से बड़े प्रकाशन की किताबों में ग़लतियां आम हैं. इसके लिए वाम प्रकाशन को और उनके प्रूफ़ रीडर को साधुवाद कहा जा सकता है।

कुल मिलाकर यह किताब बरेली शहर के बारे में एक ऐसा बयान है, जिसे पढ़कर उस शहर की एक ऐसी इमेज आपके दिल और दिमाग़ पर अंकित हो जाएगी कि जब कभी बाद में आपको उस शहर में जाने का अवसर मिलेगा तो आपको लगेगा कि आप किसी अजनबी नहीं बल्कि किसी जाने-पहचाने और भोगे हुए शहर में हैं।

गर आपकी रुचि शहरों को जानने में है तो आपको इस सीरीज़ की सारी किताबें और विशेष रूप से ‘ज़ीरो माइल बरेली’ ज़रूर पढ़नी चाहिए।



अ नुराग वत्स के संग्रह 'उम्मीद प्रेम का अन्न है' को पढ़ना वसंत से होकर गुजरना है। इससे होकर जाना संवेदनाओं के विविध रंगों से मन का र...