उसे विरल होते गरम दिन रुचते। मैं सघन होती सर्द रातों में रमता। उसे चटकती धूप सुहाती। मुझे मद्धिम रोशनी। लेकिन इन तमाम असंगतियां के बीच एक संगति थी। दोनों को सर्द रातों की चांदनी रात में बैठे रहना खूब भाता।
दिसंबर की सघन होती एक रात में टहलते हुए उसने कहा 'ये सर्द रातें इस कदर ढीठ हो आती हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेतीं।'
मैंने कहा 'नहीं, ये ढीठ कहां होती हैं। ये सर्द कोमल छुवन से 'राग' हो आती हैं और विलंबित में बजती रहती हैं जैसे गर्मियों में दिन।'
उसे इस तरह के जवाब सुनने की आदत हो चली थी। वो हौले से मुस्कुराई और कहा 'रात का तो ठीक है,पर दिसंबर तो इतनी तेजी से भागता है कि हाथ ही नहीं आता।'
मैंने उसी लय में कहा 'ये समय भी तो राग हो आता है। शुरू में विलंबित में इस कदर मग्न होता है कि उसे खुद के बीत जाने का अहसास ही कहां हो पाता है और जब साल का अंत होने को आता है तो सम को लांघकर सीधे द्रुत में बीतने लगता है।'
उसके चेहरे पर मुस्कान कुछ गहरी हुई और प्रेम के रंग से निखर आई। उसने कहा 'जानते हो तुम भी मेरे अस्तित्व में संगीत की तरह घुल मिल गए हो और राग की तरह बजते हो।'
मैंने उसकी आंखों में देखा। शरारत मचल कर होठों पर आ गई 'जानती हो, जीवन अब साठ पार हो चला है। जीवन राग भी द्रुत में सांसे लेने लगा है। द्रुत में अक्सर समय कम होता है और राग यकायक खत्म हो आता है। जीवन - समय सब राग की तरह तो होते हैं।'
अब मौन इस कदर सघन हो चला था कि सांसों की लय को सुना जा सकता था। दिल में उमड़ते घुमड़ते भाव कुछ विलंबित में और कुछ द्रुत में गाने लगे थे। और दो धड़कते दिल थे कि तबले की तरह उनकी संगत कर रहे थे।