Wednesday 26 September 2018

अलविदा जसदेव सिंह!



खेल सिर्फ वो भर नहीं होता जो खिलाड़ी मैदान में खेल रहे होते हैं। खेल मैदान से बाहर जो दर्शक होते हैं वे उस खेल को सम्पूर्णता प्रदान कर रहे होते हैं। और दर्शक मात्र वे भर नहीं होते जो वहां प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होते हैं बल्कि वे दर्शक उसे पूर्णता प्रदान कर रहे होते हैं जो अपने श्रवणेन्द्रियों के माध्यम से मष्तिष्क पटल पर उस खेल की प्रतिकृति को देख रहे होते हैं।मैदान से उन अनुपस्थित दर्शकों के लिए खेल की प्रतिकृति तैयार करके उन दोनों को एक कर देने वाली कड़ी कमेंटेटर होता है। खेल और अनुपस्थित दर्शकों के बीच रागात्मक एकता उत्पन्न करने वाली सबसे मज़बूत कड़ी आज टूट गई और खेलों की प्रतिकृति तैयार वाली सबसे बेहतरीन कूंची का स्वामी अंततः चला गया। आवाज़ के जादूगरों-मर्विन डीमेलो(अंग्रेजी कमेंट्री),देवकी नंदन पांडेय(समाचार वाचन),अमीन सयानी(मनोरंजन) और जसदेव सिंह(हिंदी कमेंट्री) की जिस चौकड़ी को सुनते हुए हमारी पीढ़ी बड़ी हुई उसका एक और स्तम्भ आज ढह गया। जसदेव सिंह  ने इस नश्वर संसार को अलविदा कहा। अब कमेंट्री चाहे जैसी हो पर वैसी बिलकुल नहीं होगी जैसी उनके होने से होती थी। 

                             दरअसल जसदेव सिंह आवाज के ऐसे जादूगर थे जो अपनी आवाज़ की कूंची से आरोह अवरोह की टेक्नीक और जोश,उत्साह,उमंग,आस,निराश,हर्ष,विषाद जैसे संवेगों  के रंगों से सुनने वाले के मन के कैनवास पर घटनाओं की हूबहू अमिट तस्वीर बना देते थे। सन 1975 में जब मैं 11 साल का था,उन्होंने हॉकी विश्व कप फाइनल की एक ऐसी ही तस्वीर उकेरी थी जो आज भी अमिट है। उनकी वो आवाज़ आज भी कानों में वैसे ही गूंजती है और हमेशा गूंजती रहेगी,चाहे वे रहें या ना रहें।उनका जाना एक व्यक्ति या एक कमेंटेटर का जाना भर नहीं है। ये पूरे एक युग का अवसान है। अलविदा जसदेव सिंह!

Friday 21 September 2018

'इलीट' और 'मासेस' के खांचे बहुत स्पष्ट हैं



'इलीट' और 'मासेस' के खांचे बहुत स्पष्ट हैं
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               विराट कोहली को 'खेल रत्न' मिला। बिला शक वे इस के हक़दार हैं। उन्हें बधाई।तो क्या बजरंग पूनिया की उपलब्धियां उनसे कम हैं। मेरा जवाब ना। तो उन्हें 'खेल रत्न' क्यों नहीं। और यहीं मेरा संदेह थोड़ा और बढ़ जाता है कि हमारे दिमागों में अभी भी 'इलीट' और 'मासेस' के खांचे बहुत स्पष्ट हैं।यहां बहुधा ऐसा होता है कि सोना कोई 'उगाता' है। सोने की चमक कोई और ले उड़ता है। और उगाने वाले के पास बिना चमक वाली धातु मसलन कांसा बच रह जाता है। 
             इसी समय तरनवा स्लोवाकिया में जूनियर विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप चल रही है। ग्रीको रोमन शैली के 77 किलो भार वर्ग में साजन भानवाला ने रजत पदक जीता। टेम्पेरे में आयोजित पिछली प्रतियोगिता में उन्होंने कांस्य पदक जीता था। इस तरह से वे बैक टू बैक पदक जीतने वाले पहले भारतीय पहलवान बने। इसके अलावा वे एशियाई चैम्पियनशिप में पहले कांसा और फिर स्वर्ण जीत चुके हैं। उनकी ये उपलब्धि बहुत बड़ी है क्योंकि भारत में ग्रीको रोमन शैली बहुत प्रचलित और लोकप्रिय नहीं है। दरअसल इस शैली में पहलवान को कमर से नीचे हाथ नहीं लगाना होता है। साजन हरयाणा के एक साधारण से कृषक परिवार से है। जब उसकी जीत की खबर उनके परिवार को मिली तो उनकी प्रतिक्रिया इतनी ही थी कि  उनके लड़के ने देश के लिए नाम किया है। ये प्रतिक्रिया वैसी ही थी जैसी जीवन में आमतौर पर होती है। वे ज़मीन से जुड़े है।वे  धरती पुत्र हैं और धरती उनकी माता है। वे अपनी किस्मत के बीज धरती में बोते हैं,श्रम से निकले पसीने के खाद पानी देकर फसल के रूप में सोना उगाते हैं। लेकिन उसकी चमक  बिचौलिए ले उड़ते हैं। उनके पास बचता है उनकी मेहनत का लोहा और नमक जिससे सहारे वे ज़िंदगी की पहाड़ सी दुश्वारियों का सामना करते हैं और फिर फिर सोना उगाने के कर्म में प्रवृत होते हैं।  
                     आप कुछ दिन पीछे की और घूमे और 18वें एशियाई खेलों में पदक विजेताओं की सूची देखिए उनमे से कितने ही साधारण किसान परिवारों से हैं। फिर और पीछे जाईये। 5 साल,10 साल,15 साल या फिर 20 साल। स्मृति पर ज़ोर डालें और देखें अधिसंख्य पदक विजेता साधारण कृषक परिवारों वाली बैकग्राउंड वाले खिलाड़ी हैं। यानी धरती से सोना उगाने वाली पृष्ठभूमि से। वे जब गांव से निकल कर खेल मैदानों में प्रवेश करते हैं तो ये मैदान ही उनके लिए उर्वर भूमि बन जाते हैं जिसमे वे अपने सपनों के बीज बोते हैं,उम्मीदों और लगन की खाद और श्रम से पैदा पानी लगाते और उससे पदकों की फसल उगाते हैं। ये फसल इतनी ज़्यादा लहलहा सकती है यदि उन्हें तकनीकी सहयोग,कुशल प्रशिक्षण और प्रोत्साहन के न्यूट्रिएंट सप्लीमेंट मिल सकें। लेकिन  उससे भी ज़रूरी है इस फसल को बेईमानी,भाई भतीजावाद और भ्रष्टाचार की कीट-व्याधियों से बचाया जाए और हां उससे भी ज़रूरी उनकी मेहनत के कमाई की चमक लूटने वाले बिचौलियों और परजीवियों से बचाया जाए। अन्यथा लहलहाती फसल को नष्ट होने में भी देर नहीं लगती। 
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Monday 17 September 2018

ओ सरदारा पाजी तू घना याद आंदा

सरदारा पाजी खेल मैदान से अलविदा
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आप चाहे जीवन के खेल में दो चरम बिंदुओं के बीच मध्यम मार्ग चुन कर मज़े से खेल सकते हैं,लेकिन खेल के जीवन में  मध्यम मार्ग उतना सीधा और सरल नहीं होता,बल्कि यूँ कहा जा सकता है कि ये सबसे कठिन होता है।यहां बात हॉकी और फुटबॉल की है और उनके मिडफ़ील्ड की है। दरअसल मिडफ़ील्ड की पोजीशन सबसे महत्वपूर्ण होती है और इसीलिए इस पर खेलना सबसे कठिन भी। 

       चाहे फॉरवर्ड हों या फुल बैक उन्हें सिर्फ अपनी पोजीशन के खेल में महारत हासिल करनी रहती है। लेकिन मिडफील्डर को अपनी पोजीशन के खेल की महारत हासिल करने के लिए फॉरवर्ड और फुल बैक/डिफेंडर दोनों की पोजीशन के खेल में महारत  हासिल करनी होती है।मिडफील्डर वो केंद्र बिंदु जिसके इर्द गिर्द खेल चलता है।वे पहले तो आक्रमण की ज़मीन तैयार करते हैं,मूव बनाते हैं और फिर फॉरवर्ड के साथ विपक्षी किले पर आक्रमण करते हैं। और साथ ही विपक्षी के आक्रमण की जंगे मैदान के बीचों बीच धार भोथरी ही नहीं करते बल्कि अपने डिफेंडरों के साथ मिल कर अपने क़िले की रक्षा भी करते हैं। दरअसल वे ही हैं जो अपने गोल से लेकर विपक्षी गोल तक मार्च करते हैं और पेट्रोलिंग भी। आज के टोटल गेम में भी सबसे ज़्यादा मेहनत उन्हें ही करनी होती है। अभी  हाल ही संपन्न हुए विश्व कप फुटबॉल ने साबित किया कि जब जिस टीम के मिडफील्डरों ने शानदार खेल दिखाया जीत उन्हें ही नसीब हुई।
 
लेकिन आप जब भारत की हॉकी के मिडफील्ड की बात करते हैं तो दो नाम ही याद आते हैं। अजीत पाल सिंह और सरदार सिंह।पहला पंजाब के संसारपुर गांव से तो दूसरा हरयाणा के संत नगर गांव से। भारतीय हॉकी के दो भिन्न कालखडों के दो सर्वश्रेष्ठ मिडफील्डर।अजीत स्वर्णिम दौर के सबसे बेहतरीन सेंटर हॉफ तो सरदार सिंह अधोगति के बाद पुनर्निर्माण दौर के सबसे बेहतरीन मिडफील्डर। 
            सरदार सिंह ने 2006 अंतर्राष्ट्रीय हॉकी में प्रवेश किया और एशियाई खेलों में खराब प्रदर्शन के बाद अपने 12 साल लम्बे अंतर्राष्ट्रीय खेल जीवन को अलविदा कहा। दरअसल वो 20वीं शताब्दी के पहले दो दशकों का सबसे शानदार खिलाड़ी है। उसने भारत के लिए 300 से ज़्यादा  मैच खेले। भारतीय हॉकी के इस पुनर्निर्माण के  वो एकमात्र ऐसा खिलाड़ी था  विश्व की किसी भी टीम के लिए खेल सकता था।वो दो बार एफआईएच के प्लेयर ऑफ़ द ईयर के लिए नामांकित हुआ। वो शानदार प्लेमेकर था।आक्रमण के लिए मूव बनाते समय वो मैदान में पानी सा बहता और प्रतिपक्ष के आक्रमण के समय चट्टान सा खड़ा हो जाता। वो अपने साथियो को शानदार पास देता। इसमें उसको गज़ब की महारत हासिल थी। वो राइटहेंडर था। एक राइट हेंडर के लिए दांये से बाँए पास देना सबसे आसान होता है। लेकिन उसने एक नया पास इज़ाद किया। बिलकुल क्रिकेट के रिवर्स स्वीप सा। वो ड्रिब्लिंग करते हुई बांये से दांये रिवर्स पास करता। वो असंभव कोणों से पास करता। उसके पास बेहद सटीक होते। जिस समय 32 साल की अपने बूट खूंटी पर टाँगे उस समय वो हिन्दुस्तान का सबसे फिट एथलीट था। भारतीय खेलों में फिटनेस का पर्याय माने जाने वाले  कोहली से भी ज़्यादा। एशियाई खेलों  में जाने से पहले उसने यो-यो फिटनेस टेस्ट में 21.4  का स्कोर किया जबकि उसी समय कोहली का उस टेस्ट में स्कोर 19 था।
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उसके खेल मैदान में ना होने का ख्याल मन में एक अजीब सा खालीपन को भर देता है। और ये तय है कि इस खालीपन को जल्द भर पाना संभव नहीं। तो अपने एक और पसंदीदा खिलाड़ी को खेल मैदान से अलविदा !








Friday 14 September 2018

चैम्पियन नाओमी ओसाका






       पत्रकार-साहित्यकार नीलाभ लिखते हैं कि ‘जैज संगीत एफ़्रो-अमेरिकंस के दुःख-दर्द से उपजा चट्टानी संगीत है’. फ्लशिंग मीडोज़ का बिली जीन किंग टेनिस सेंटर और विशेष रूप से आर्थर ऐश सेन्टर कोर्ट मुझे एक ऐसा स्थान लगता है, जहां ये संगीत नेपथ्य में हर समय बजता रहता है क्योंकि हर बार कोई एक अश्वेत खिलाड़ी मानो उस समुदाय के दुख-दर्द के किसी तार को हौले से छेड़ देता हो और फिर उसकी अनुगूंज बहुत दूर तक और बहुत देर तक सुनाई देती रहती है.

                ये एक ऐसा सेन्टर है जहां खेल के साथ-साथ इस समुदाय के लिए गौरव भरे क्षण उपस्थित होते रहते हैं. याद कीजिए, 2017 का महिला फ़ाइनल. ये दो एफ़्रो-अमेरिकन खिलाड़ियों के बीच मुक़ाबला था. स्लोअने स्टीफेंस ने मेडिसन कीज को 6-3, 6-0 से हराकर अपना पहला ग्रैंड स्लैम जीता और मैच पूरा होते ही ये दो प्रतिद्वंद्वी लेकिन दोस्त एक-दूसरे को इस तरह से जकड़े थीं मानो अब जुदा ही नहीं होना है और दोनों की आँखों से अश्रुओं की ऐसी अविरल धारा बह रही थी जैसे सावन बरस रहा हो. वह एक अद्भुत दृश्य भर नहीं था बल्कि टेनिस इतिहास की और एफ़्रो-अमेरिकन इतिहास के एक अविस्मरणीय क्षण की निर्मिति भी थी. उस दिन से ठीक साठ बरस पहले 1957 में पहली बार एफ़्रो-अमेरिकन महिला खिलाड़ी एल्थिया गिब्सन द्वारा यूएस ओपन जीतने की 60वीं वर्षगाँठ का पहले एफ़्रो-अमेरिकी पुरुष एकल यूएस ओपन विजेता आर्थर ऐश कोर्ट पर दो एफ़्रो-अमेरिकी खिलाड़ी फ़ाइनल खेल कर जश्न मना रही थीं.

                 अगले साल 2018 के फ़ाइनल में एकदम युवा खिलाड़ी ओसाका नाओमी और उनके सामने उनकी रोल मॉडल टेनिस इतिहास की महानतम खिलाड़ियों में से एक 37 वर्षीया सेरेना विलियम्स थीं. अम्पायर के एक फ़ैसले से नाराज़ होकर सेरेना ने वो मैच अधूरा छोड़ दिया था और अम्पायर पर भेदभाव करने का आरोप लगाया. उनका ये आक्रोश जितना अपनी सन्निकट आती हार से उपजा था, उतना ही अपने साथ हुए भेदभाव को लेकर बनी मनःस्थिति को लेकर भी था. अब टेनिस और खेल जगत में पुरुषों के बरक्स महिलाओं से भेदभाव को लेकर एक बहस शुरू हो गई थी. और टेनिस जगत को एक नई स्टार खिलाड़ी मिली थी जो न केवल उसी समुदाय से थी बल्कि हूबहू अपने आदर्श की तरह खेलती थी. बिल्कुल उसी की तरह का पावरफुल बेस लाइन खेल और सर्विस.

                          2019 में एक बार फिर सेरेना फ़ाइनल में थीं. अपना रिकॉर्ड 24वां ग्रैंड स्लैम जीतकर सर्वकालिक महिला खिलाड़ी बनने की राह पर. पर एक बार वे फिर चूक गईं. इस बार एक दूसरी टीनएजर कनाडा की एंड्रेस्क्यू ने उनका सपना तोड़ दिया. जैज संगीत फिर सुना गया पर कुछ ज़्यादा उदास था. सेरेना के खेल के आसन्न अवसान की ध्वनि से गूंजता ये संगीत कम कारुणिक नहीं था.

                       यूएस ओपन में साल दर साल यही होता आ रहा है. तो 2020 का यूएस ओपन अलग कैसे हो सकता था. कोरोना के साए में बड़े खिलाड़ियों और दर्शकों की अनुपस्थिति में शुरुआत कुछ नीरस-सी थी,पर प्रतियोगिता ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती गयी, रोचक होती गई. इस बार यह प्रतियोगिता वैसे भी माओं के नाम रही. महिला वर्ग में नौ खिलाड़ी ऐसी थीं, जो मां बन चुकी थीं. इनमें से तीन सेरेना, अजारेंका और पिरेन्कोवा क्वार्टर फ़ाइनल तक पहुंची. दो सेरेना और अजारेंका सेमीफ़ाइनल तक पहुंची. यहां 39 वर्षीया सेरेना का 24 वां ग्रैंड स्लैम ख़िताब जीतने का सपना अजारेंका ने तोड़ा. और तब एक खिलाड़ी जो माँ थी, फ़ाइनल में पहुंची वो अजारेंका थीं. बेलारूस की अजारेंका अब 31 साल की हो चुकी थी और 2012 में नम्बर वन खिलाड़ी थीं और दो बार ऑस्ट्रेलियाई ओपन के साथ साथ 21 एटीपी ख़िताब जीत चुकी थीं. उनके पास पर्याप्त अनुभव था. वे गुलागोंग, मार्गरेट कोर्ट और किम क्लाइस्टर्स के बाद चौथी ऐसी खिलाड़ी बन एक इतिहास की निर्मिति के बिल्कुल क़रीब थीं, जिसने माँ बनने के बाद ग्रैंड स्लैम जीता हो.

                       दूसरे हॉफ से 2018 की चैंपियन हेतीयन पिता और जापानी माँ की संतान 22 वर्षीया नाओमी उनके सामने थीं. वे अदम्य ऊर्जा और जोश से लबरेज खिलाड़ी थीं. लेकिन उल्लेखनीय यह है कि वे खिलाड़ी भर नहीं हैं बल्कि सोशल एक्टिविस्ट भी हैं. उन्होंने अश्वेत समुदाय के विरुद्ध हिंसा के विरोध में हुए प्रदर्शनों में सक्रिय प्रतिभाग किया और यहां बिली जीन किंग टेनिस सेन्टर में भी वे मैदान में अपने प्रतिद्वंद्वियों से दो-दो हाथ नहीं कर रहीं थी बल्कि अश्वेत समुदाय के विरुद्ध हिंसा का प्रतिरोध भी कर रहीं थीं. इसके लिए हर मैच में हिंसा के शिकार एक अश्वेत का नाम लिखा मास्क पहन कर कोर्ट पर आतीं. फ़ाइनल में उनके मास्क पर 12 वर्षीय अश्वेत बालक तमीर राइस का नाम था, जो 2014 में क्लीवलैंड में एक श्वेत पुलिस अफ़सर के हाथों मारा गया था. उन्होंने सात मैच खेले और हर बार हिंसा के शिकार अश्वेत के नाम का मास्क लगाया. अन्य छह नाम थे – फिलैंडो कास्टिले ,जॉर्ज फ्लॉयड, ट्रेवॉन मार्टिन, अहमोद आरबेरी,एलिजाह मैक्लेन और ब्रेओना टेलर. नाओमी की स्मृति में 2018 का मुक़ाबला भी ज़रूर रहा होगा जब उनके पहले ख़िताब के जश्न और जीत को बीच में अधूरे छूटे मैच ने और दर्शकों की हूटिंग ने अधूरेपन के अहसास को भर दिया था. यहां वे एक मुक़म्मल जीत चाहती होंगी और अपने सामाजिक उद्देश्य के लिए भी जीतना चाहती होंगी. और निःसन्देह इन दोनों का ही उन पर अतिरिक्त दबाव रहा होगा.

                     जो भी हो, इसमें कोई शक नहीं कि मुक़ाबला नए और पुराने के बीच था, द्वंद्व, जोश और अनुभव का था, आमना-सामना युवा शरीर का अनुभवी दिमाग से था, उत्साह का संयम से मुक़ाबला था. मुक़ाबला कड़ा था, टक्कर बराबरी की थी. पर जीत अंततः नए की, जोश की, युवा शरीर की, उत्साह की हुई.

                     जीत नाओमी की हुई. नाओमी ने अजारेंका को 1-6, 6-3,6-3 से हरा दिया. पहले सेट में नाओमी दबाव में दिखी. उन्होंने बहुत सारी बेजा ग़लती की. और पहला सेट 1-6 से गंवा बैठीं. दरअसल अजारेंका ने पहले सेट में शानदार सर्विस की और बढ़िया फोरहैंड स्ट्रोक्स लगाए. उन्होंने पूरा दमख़म लगा दिया. एक युवा शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी के ख़िलाफ़ आपको उस समय तक स्टेमिना और ऊर्जा चाहिए होती है जब तक मैच न जीत जाएं. अपनी सीमित ऊर्जा का मैनेजमेंट चतुराई से करना होता है. यहीं पर अजारेंका चूक गईं. उन्होंने सारी ऊर्जा पहले सेट में लगा दी. नाओमी ने दूसरे सेट में कमबैक किया. अपनी पावरफुल सर्विस और बेसलाइन स्ट्रोक्स से न केवल दूसरा सेट 6-3 से जीत लिया बल्कि तीसरे और निर्णायक सेट में भी 4-1 से बढ़त बना ली. एक बार फिर अजारेंका ने ज़ोर लगाया और अपनी सर्विस जीतकर नाओमी की सर्विस ब्रेक भी की और स्कोर 3-4 कर दिया. लगा मुक़ाबला लंबा खींचेगा. पर ये छोटा-सा पैच दिए की लौ की अन्तिम भभक साबित हुआ. अगले दो गेम जीतकर अपना तीसरा ग्रैंड स्लैम नाओमी ने अपने नाम कर लिया. ये उनका तीसरा ग्रैंड स्लैम फ़ाइनल था और तीनों में जीत.

                       बड़े लोगों की बातें भी न्यारी होती हैं. खिलाड़ी जैसे ही अंतिम अंक जीतता है वो उस धरती का आभार प्रकट करने के लिए भी और उस जीत के पीछे की मेहनत को महसूसने के लिए अक्सर पीठ के बल मैदान पर लेट जाते हैं. नाओमी ने अपना अपना अंतिम अंक जीतकर अजारेंका को सान्त्वना देने के लिए रैकेट से रैकेट टकराया (नया सामान्य हाथ मिलाने या गले लगने की जगह) और उसके बाद आराम से मैदान पर लेट गईं और आसमान निहारने लगीं. उन्होंने मैच के बाद अपने वक्तव्य में में कहा कि ‘मैं देखना चाहती थी बड़े खिलाड़ी आख़िर आसमान में क्या देखते हैं’. ये तो पता नहीं कि उन्होंने क्या समझा होगा कि बड़े खिलाड़ी क्या देखते हैं,पर निश्चित ही उनकी आंखों ने आसमान की अनंत ऊंचाई को महसूस किया होगा और उनके इरादे भी उस ऊंचाई को छूने के लिए कुछ और बुलंद हुए होंगे.

                   हमारे समय के प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी की एक पुस्तक का नाम है – ‘खेल केवल खेल नहीं हैं’ और वे लिखते हैं कि ‘खेल के जरिए आप खेलने वाले के चरित्र, उसके लोगों की ताक़त और कमज़ोरियों को समझ सकते हैं’. तो इस बार नाओमी ने बिली जीन किंग टेनिस सेन्टर में अश्वेतों के दुख-दर्द के जिस तार को छेड़ा, उससे निःसृत संगीत की अनुगूंज अतिरिक्त दूरी और अतिरिक्त समय तय करेगी, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए. यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि यह साल अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव का साल भी है.

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नाओमी ओसाका को जीत मुबारक! 

Monday 10 September 2018

चाँद दाग़दार है तो हुआ करे खूबसूरत तो है



चाँद दाग़दार है तो हुआ करे खूबसूरत तो है
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                        आदि काल से लेकर आज तक चाँद कवियों का सबसे खूबसूरत और पसंदीदा उपमान रहा है। तो क्या ही ताज्जुब कि एक बीस साला खिलाड़ी जो अभी अभी अपनी टीन ऐज से बाहर आई हो,के लिए अपना पहला ग्रैंड स्लैम खिताब चाँद जैसा ना रहा होगा। लेकिन जब कवि चाँद के लिए कहता है 'मगर उसमें भी दाग़ है' तो ये विडम्बना ही है कि उस खूबसूरत उपमान को उस दाग़ के साथ ही स्वीकारना पड़ता है। और स्वीकारें भी क्यों ना उस दाग़ से उसकी खूबसूरती पर क्या फर्क़ पड़ता है। ठीक ऐसे ही जापान की युवा खिलाड़ी ओसाका के लिए उसका पहला ग्रैंड स्लैम खिताब यू एस ओपन हमेशा ही चाँद जैसा रहेगा क्या फ़र्क पड़ता है कि उसके साथ सेरेना-रामोस विवाद दाग़ के रूप में हमेशा जुड़ा रहेगा।
                    आज फ्लशिंग मीडोज स्थित बिली जीन किंग नेशनल टेनिस सेंटर के आर्थर ऐश सेंटर कोर्ट पर महिला टेनिस की महानतम खिलाड़ियों में से एक सेरेना विलियम्स और जापान की युवा खिलाड़ी नाओमी ओसाका जब आमने सामने हुईं तो दो खिलाड़ी ही एक दूसरे से मुख़ातिब नहीं हो रहे थे बल्कि एक विशाल अनुभव से एक युवा जोश मुक़ाबिल हो रहा था। 36 वर्षीया सेरेना का ये 30वां ग्रैंड स्लैम फाइनल था तो उनसे 16 साल छोटी 20 वर्षीया ओसाका अपना पहला ग्रैंड स्लैम फाइनल खेल रही थीं। जीतता कोई भी एक नया इतिहास बनना तय था। देखना ये था कि सेरेना 24वां ग्रैंड स्लैम जीत कर मारग्रेट कोर्ट की बराबरी करती हैं या फिर ओसाका ग्रैंड स्लैम जीत कर ऐसा करने वाली पहली जापानी खिलाड़ी बनती हैं। यहां जोश ने अनुभव को हरा दिया। इतिहास ओसाका ने रचा। जब वे सेरेना को 6-2 और 6-4 से हरा रहीं थीं तो वे केवल एक मैच भर नहीं जीत रही थीं वे बंद आँखों से देखे अपने सपने को फ्लशिंग मीडोज के मैदान पर साकार कर रहीं थीं,अपनी कल्पनाओं में बनाये चित्र में यथार्थ के रंग भर रहीं थीं,अपने बचपन में पढ़ी किसी परी कथा को मैदान पर जी रही थीं।उन्होंने बताया कि नज़्म हरूफ से सफ़े पर ही नहीं लिखी जाती है बल्कि खेल के बीच मैदान पर भी रची जाती है।

              आज जब उनके सामने सेरेना खड़ी थीं तो वे महज़ एक प्रतिद्वंदी नहीं थीं बल्कि उनका आदर्श भी थीं और उनका सपना भी। जब सेरेना अपना पहला ग्रैंड स्लैम रही थीं तब नोआमी कुछ महीने थीं।सेरेना को देखकर ही उन्होंने टेनिस खेलना शुरू किया और किसी दिन किसी ग्रैंड स्लैम में उनके खिलाफ खेलने के सपने को मन में समाए बड़ी हुईं। वे सेरेना से इस कदर प्रभावित थीं कि उनके ग्राउंड स्ट्रोक्स तक सेरेना की तरह हैं। और क्या ही विडम्बना है अपने आदर्श के हथियार से ही उन्होंने उनको मात दी।

                ओसाका शुरू से ही आत्म विश्वास भरी थीं। उन्होंने ना केवल कुछ महीने पहले मियामी ओपन में सेरेना को हराया था बल्कि इस प्रतियोगिता में ज़बरदस्त फॉर्म में थीं और यहां तक के सफर केवल एक सेट खोया था। दूसरी ओर सेरेना पास ना केवल लंबा अनुभव था बल्कि 14 महीने बाद वापसी करने के पश्चात बैक टू बैक दूसरा मेजर फाइनल था।इससे पहले वे विंबलडन के फाइनल में पहुँच चुकी थी और इस प्रतियोगिता में भी शानदार खेल रही थीं।जिस तरह से उन्होंने सेमी फाइनल में सेवस्तोवा के विरुद्ध नेट पर खेल दिखाया था और 6-3,6-0 जीतीं उससे भी लग रहा था कि वे अपनी पुरानी रंगत में लौट आई हैं।लेकिन आज ओकासा का दिन था।उन्होंने शुरू से ही खेल पर नियंत्रण रखा।उन्होंने शानदार सर्विस की और बेसलाइन से खेल पर नियंत्रण रखते हुए ज़बरदस्त फोरहैंड पासिंग शॉट्स लगाए।दूसरी ओर सेरेना ने बेज़ा गलतियां की और हर सर्विस गेम में डबल फाल्ट किए।पहले सेट में ओकासा ने दो बार सर्विस ब्रेक की और सेट आसानी से 6-2 से जीत लिया।लेकिन दूसरे सेट में सेरेना ने वापसी की और 3-1 की बढ़त ले ली।ऐन इसी समय वो हुआ जो नहीं होना चाहिए था।अंपायर रामोस ने खेल संहिता के उल्लंघन के लिए पहली चेतावनी दी कि बॉक्स से उनके कोच उन्हें इशारा कर उन्हें सहायता पहुंचा रहे हैं ।इस से सेरेना भड़क गयी और इस बात से इंकार किया।अगले ही गेम में एक अंक पर हताशा में रैकेट पटका तो रामोस ने खेल संहिता के दूसरे उल्लंघन के लिए ओकासा को एक अंक दे दिया।इस पर सेरेना और ज़्यादा भड़की और ना केवल रामोस को चोर कहा बल्कि माफी मांगने को कहा।इस पर तीसरे उल्लंघन के लिए एक गेम ओकासा को दे दिया।अब स्कोर 5-3 ओकासा के पक्ष में हो गया ।ओकासा ने धैर्य बनाये रखा और आखिरी गेम जीत कर फाइनल अपने नाम किया।ये क्या ही विरोधाभास था कि एक अनुभवी और सीनियर खिलाड़ी जिससे और अधिक संयम और समझदारी की उम्मीद थी उसने अधिक उग्र रूप दिखाया इसके विपरीत ओकासा ने ग़ज़ब की परिपक्वता और संयम का परिचय दिया।उनपर ना तो सेरेना के विशाल व्यक्तित्व का असर पड़ा और न इस असाधारण घटनाक्रम का। उसने खेल पर अपना फोकस रखा और इतिहास निर्मिति का सबब बनीं।

                              दरअसल इस घटनाक्रम ने अगर सबसे बड़ा नुक्सान किया तो खेल का किया।अगर ये ना हुआ होता तो हो सकता है एक शानदार मैच देखने को मिलता।पर ऐसा हो ना सका।पर जो हो यू एस ओपन को एक नई चैंपियन मिली और जापान को नयी खेल आइकॉन।
                             बहुत बधाई ओसाका!
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[सेरेना पर कुछ अलग से ।और हाँ डेल पोत्रो और जोकोविच के बीच होने वाले पुरुष फाइनल मैच पर कुछ नहीं क्योंकि अपना एक फेवरिट पहले ही हार चुका है और दूसरा फेवरिट रिटायर हर्ट । अस्तु ।]

Tuesday 4 September 2018

कोई पूछे कि हमसे ख़ता क्या हुई


कोई पूछे कि हमसे ख़ता क्या हुई
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"जीने और मरने की हम थे वजह 
और हम ही बेवजह हो गए देखते देखते.."

               अक्सर ये होता है ज़िन्दगी के साथ कि लिखना कुछ चाहो लिख कुछ और जाता है।कि मुस्कराहट चाहो उदासी लिख जाती है,कि सुबह चाहो सांझ लिख जाती है,कि दिन को चाहो रात लिख जाती है,कि फूल चाहो कांटे लिख जाते है।और क्या ही कमाल है जब शैली कहता है कि हमारे सबसे उदास गीत ही सबसे मधुर गीत होते हैं।
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             जब कलम आँसू लिखती है तो शब्द संगीत की लय पर नृत्य करते हुए भावनाओं की नदी के तटों के बांध तोड़ कर स्वर के सैलाब से एक ट्रेजिक मेलोडी रचते हैं कि मेलोडियस ट्रेजेडी।
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         मनोज मुंतज़िर अपनी कलम से मन के आसमाँ पर उदासी के जो बादल निर्मित करते हैं,रोचक कोहली उन्हें अपने साज़ों से कव्वाली सी धुन और सूफियाना से अंदाज़ में संघनित कर घनघोर घटाओं में तब्दील कर देते है और फिर आतिफ असलम अपनी बहती सी आवाज़ की ऊष्मा से उस घटा को पिघलाते हैं तो आँखे बूंदों की पनाहगाह बन जाती हैं और लब बोल उठते हैं-
"आते जाते थे जो सांस बन के कभी
वो हवा हो गए देखते देखते........."
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Saturday 1 September 2018

तस्वीरें दो:एक कहानी









                            तस्वीरें दो:एक कहानी 
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                           दरअसल खेल आवेगों और संवेगों का नाम है और साथ ही संवेदनाओं के आरोह और अवरोह का भी ।ये विज्ञान तो है पर उससे कहीं अधिक कला है।खेल के मैदान में खिलाड़ी जब अपने संवेगों से एक कलात्मक कृति का निर्माण कर रहा होता है, ठीक उसी समय मैदान के बाहर छायाकार उस कृति की अपने कैमरे के माध्यम से पुनर्रचना कर कुछ बेहतरीन चित्र बना रहा होता है।उनमें से कुछ चित्र अपने कंटेंट में इतने समृद्ध होते हैं कि शानदार और यादगार बन जाते है। 

                               जकार्ता और पालेमबंग में चल रहे 18वें एशियाई खेल लगभग समाप्त हो चले हैं।इस बीच इसकी हज़ारों तस्वीरें मीडिया के माध्यम से हम सभी की नज़रों से गुज़री।पर ये दो तस्वीरें क्या ही शानदार हैं कि ये आँखों से होती हुई आपके दिल पर चस्पां हो जाती और फिर हटने का नाम नहीं लेती।ये दो अलग अलग समय पर ली गयी तस्वीरें एक साथ मिलकर एक कहानी बुनती हैं।

                                   (चित्र ट्विटर से साभार)
                             इन दो तस्वीरों में पहली कर्नल राज्यवर्धन सिंह राठौर की है।वे खेल महकमे के शीर्ष अधिकारी हैं।और ये शीर्ष अधिकारी अपने खिलाड़ियों के साथ एकाकार होता है और खुद अपने हाथों से सूप सर्व करता है। ऐसा करते हुए वे एक शानदार नैरेटिव रच रहे होते हैं।वे अधिकारी से अधिक एक खिलाड़ी हैं और ओलम्पिक में रजत पदक जीत चुके हैं ।वे जानते हैं कि मैदान में खिलाड़ी के दिल दिमाग में क्या चल रहा होता है और उनकी क्या ज़रूरतें हैं।और इसीलिये जब वे सूप सर्व कर रहे होते हैं तो ये सूप भर नहीं होता बल्कि वे सूप से अधिक उनको प्रोत्साहन सर्व कर रहे होते हैं,उनमें जोश और जज़्बा भर रहे होते हैं,उनमें विश्वास और होंसले का संचार कर रहे होते हैं।खेल मैदान के अंदर खिलाड़ी भर नहीं खेल रहा होता बल्कि मैदान के बाहर सपोर्टिंग स्टाफ से लेकर उसके प्रशंसक और पूरा देश उसके खेल को कंप्लीट कर रहा होता है।तो ये तस्वीर यही कह रही होती है कि तुम मैदान के अंदर की सोचो,बाहर पूरा देश तुम्हारे साथ है।ये तस्वीर ठीक उसी तरह का दृश्य रचती है जैसे हाल ही में संपन्न विश्व कप फुटबॉल के दौरान क्रोशिया की राष्ट्रपति की तस्वीरें रचती हैं।

                               (चित्र ट्विटर से साभार)
                                      और पहली तस्वीर जो नैरेटिव बनाती है उसी से दूसरी तस्वीर संभव हो पाती है।ये दूसरी तस्वीर हेप्टाथलान की अंतिम प्रतिस्पर्धा 800 मीटर की दौड़ के तुरंत बाद की है जिसने स्वप्ना बर्मन का सोने का तमगा पक्का कर दिया था।हर खिलाड़ी का एक ही सपना होता है सर्वश्रेष्ठ होने का।स्वप्ना का भी था।उसका वो सपना साकार होता है लेकिन घोर गरीबी,अभावों,शारीरिक कमियों से अनवरत संघर्ष करते हुए।ऐसे में जब सपने पूरे होते हैं तो अनिर्वचनीय सुख की प्राप्ति होती है।ये एक ऐसी ही तस्वीर है जिसमें मानो स्वप्ना अपना सपना पूरा होने के बाद आँखें बंद कर उस पूरे हुए सपने को फिर से जी लेना चाहती है।मानो वो फ़्लैश बैक में जाती है,अपने सपने को रीकंस्ट्रक्ट करती हैं,फिर फिर जीती है,एक असीम आनंद को मन ही मन अनुभूत करती है और एक मंद सी मुस्कान उसकी आत्मा से निकल कर उसके चेहरे पर फ़ैल जाती है,एक चिर संतुष्टि का भाव उसके चेहरे पर पसर जाता है।एक ऐसा भाव जिसे आप चाहे तो आप बुद्ध की विश्व प्रसिद्ध मूर्तियों के शांति भाव से तुलना कर सकते हैं पर वो वैसा है नहीं।दरअसल वो एक ऐसा भाव है जो किसी किसान के फसल के बखारों में पहुच जाने के बाद चैन से बंद आँखों वाले चहरे पर आता है या फिर किसी मेहनतकश मज़दूर के चहरे पर दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद भरपेट भोजन से तृप्त हुई बंद आँखों से आता है।
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भारतीय खेल के इन दो शानदार दृश्यों को कैमरे की नज़र में कैद करने वाले इन छायाकारों को सलाम तो बनता है।

                                                   (चित्र ट्विटर से साभार)


स्मृति शेष पिता

  "चले गए थे वे अकेले एक रहस्यमय जगत में जहां से आज तक लौटकर नहीं आया कोई वह शय्या अभी भी है वह सिरहाना अभी भी है मैं भी हूं तारों-भरे ...