Tuesday, 9 September 2025

एशियाई चैंपियन

 


देश में क्रिकेट खेल के 'धर्म' बन जाने के इस काल में भी हमारी उम्र के कुछ ऐसे लोग होंगे जो हॉकी को लेकर आज भी उतने ही नास्टेल्जिक होंगे जितने किसी समय में वे हॉकी के दीवाने रहे होंगे।  निश्चित ही इन लोगों की 1983 में क्रिकेट विश्व कप जीतने की स्मृति से कहीं अधिक गहरी और स्थाई स्मृति 1975 में भारतीय हॉकी टीम की विश्व कप की जीत की होगी। कपिल देव के बेंसन हेजेज कप को सर से ऊपर उठाए वाले चित्र से कहीं जीवंत तस्वीर हॉकी विश्व कप उठाए कप्तान और संसार के अपने समय के सर्वश्रेष्ठ सेंटर हॉफ अजितपाल सिंह की तस्वीर होगी। उनकी स्मृति में जितना कपिल द्वारा अविश्वसनीय तरीके से पकड़ा गया रिचर्ड्स का कैच कौंधता होगा उससे अधिक असलम शेर खान का ताबीज चूमकर पेनाल्टी से किया गया गोल कौंधता होगा। ये सब वही लोग होंगे जिन्हें जितने कपिल, मोहिंदर, यशपाल, किरमानी, पाटिल जैसे खिलाड़ियों के बल्ले और गेंद से कारनामें भाते होंगे, उससे कहीं ज्यादा उनकी स्मृति आशिक कुमार, बी पी गोविंदा,असलम शेर खान,अजितपाल सिंह, माइकल किंडो,सुरजीत सिंह जैसे खिलाड़ियों की मैदान पर चपलता और स्टिक वर्क की खूबसूरती जगह घेरती होगी।

लेकिन मैदान पर भारतीय हॉकी के इतने खूबसूरत दृश्य विरल हो चले। यहां से भारतीय हॉकी की यात्रा शिखर से रसातल की और यात्रा  है। 

1975 के बाद हॉकी केवल एस्ट्रो टर्फ पर खेला गया। उसके बाद की हॉकी की कहानी एस्ट्रो टर्फ,नियमों में परिवर्त्तन, ऑफ साइड के नियम की समाप्ति, कलात्मकता को ताकत और गति द्वारा रिप्लेस करने और भारत व पूरे एशिया की हॉकी की अधोगति की कहानी है। भारत के लिए 1928 ओलंपिक स्वर्ण से शुरू हुआ एक चक्र 2008 में पूर्ण होता है जब वो ओलंपिक के लिए अहर्ता भी प्राप्त नहीं कर सका था।

 ब से ही तमाम लोगों के साथ इन लोगों की ये इच्छा रही होगी कि एक बार फिर भारत का हॉकी में वही जलवा कायम हो,मैदान में हॉकी का वही जादू चले जो सन 1975 के बाद शनै शनै छीज रहा था। लेकिन उस समय से ही भारतीय हॉकी ने नई हॉकी से तादात्म्य स्थापित करने का प्रयास भी शुरू कर दिए थे। और खुद को उसके अनुरूप ढालने के धीरे धीरे परिणाम आने शुरू हुए। 2020 टोक्यो और 2024 पेरिस में भारतीय टीम द्वारा जीते गए कांस्य पदक शिखर की ओर बढ़ती भारतीय हॉकी के महत्वपूर्ण पड़ाव हैं।

र अभी हाल ही में राजगीर में आयोजित एशियाई चैंपियनशिप में भारत की शानदार जीत इस बात की ताईद करती है। फाइनल में पिछले विजेता दक्षिण कोरिया के ऊपर 4-1 की बड़ी जीत बताती है है कि क्रेग फुल्टन के निर्देशन में टीम की दिशा और दशा दोनों एकदम सही है। 

स प्रतियोगिता में भारत ने धीमी लेकिन सधी शुरुआत की। पहले ग्रुप मैच में चीन को 4-3 से और उसके बाद जापान को 2-1 से हराया। उसके बाद तीसरे मैच में कजाकिस्तान को 15-0 से रौंद दिया।  उसके बाद सुपर फोर में भी पहले मैच में दक्षिण कोरिया से 2-2 से ड्रॉ खेला। यहां से टीम इंडिया ने गति पकड़ी और शानदार खेल दिखाया। अगले ही मैच में मलेशिया की मजबूत टीम को 4-1 से हराया। लेकिन अंतिम मैच में चीना के विरुद्ध सबसे बढ़िया खेला और ग्रुप राउंड में जिस चीन से बमुश्किल जीता था उसे 7-1 से हरा दिया और फाइनल में प्रवेश किया।

फाइनल में उसका मुकाबला पिछ्ले चैंपियन दक्षिण कोरिया से था। यहां पर जो टीम इंडिया का दांव पर था वो था आगामी विश्व चैंपियनशिप सीधे प्रवेश था। उसने कोरिया को शानदार खेल से सभी क्षेत्रों में पीछे छोड़ा और आसानी से 4-1 से हराकर चौथी बार चैंपियन बना।

भारत के खेल में गति,स्किल और पावर का शानदार समावेश था। टीम का मैदान के भीतर कॉर्डिनेशन शानदार था। निःसंदेह ये जीत उत्साहवर्धक है और शिखर की ओर एक मजबूत व दमदार कदम भी। हॉकी के स्वर्णिम अतीत के प्रति नास्टेल्जिया में जीने वालों के लिए भारतीय टीम की जीत और खिलाड़ियों के उठे हाथों से बड़ी आश्वस्ति और क्या हो सकती है।

मुबारक टीम इंडिया।



Tuesday, 2 September 2025

प्रो कबड्डी लीग 2025_2 देवांक दलाल और मूंछ उमेठने का नया स्वैग

 



'प्रो कबड्डी लीग' के सीजन 11 के सर्वश्रेष्ठ रेडर देवांक दलाल ने सीजन 12 की शुरुआत ठीक वहां से की है,जहां उन्होंने सीजन 11 खत्म किया था।

बीती रात सीजन 12 का छठा मैच पिछले साल की चैंपियन 'हरियाणा स्टीलर्स' और 'बंगाल वॉरियर्स' के बीच था,जो इन दोनों ही टीमों का इस सीजन का पहला मैच था। इस मैच में वॉरियर्स ने स्टीलर्स को 54-44 अंकों से हरा दिया। इस मैच में वॉरियर्स के कप्तान देवांक दलाल ने शानदार 21 अंक बनाए। 

 दो साल पहले सर में लगी जानलेवा चोट से उबर कर पिछले सीजन में 'पटना पायरेट्स' की तरफ से खेलते हुए देवांक ने कुल 25 मैचों में 301 अनेक बनाए थे जिसमें 18 सुपर टेन थे, जो एक रिकॉर्ड है। उनका प्रति मैच औसत 12 अंकों का था। तमिल थलाइवा के खिलाफ एक मैच में उन्होंने 25 अंक अर्जित किए थे।

निःसंदेह वे एक शानदार रेडर हैं। लम्बा कद और शारीरिक सौष्ठव उनकी रेड को मारक बनाता है। जबकि उनकी गति और चपलता उसे धार देती है। और उनका संयमित एटीट्यूड उनकी रेड बेहद सफल बनाता है।

पहले ही मैच में शानदार प्रदर्शन दिखता है कि वे इस सीजन भी अपना जलवा दिखाने को तैयार हैं। वे इस साल के सबसे मंहगे भारतीय खिलाड़ी है जिन्हें इस सीजन 2.20 करोड़ मिले हैं। इसी साल फरवरी में उन्होंने दिल्ली में आयोजित 71वीं राष्ट्रीय कबड्डी चैंपियनशिप सेना को जिताने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इस प्रतियोगिता के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी खिलाड़ी घोषित किए गए।

फिलहाल वे प्रो कबड्डी लीग के 12वें संस्करण के नए सेंसेशन हैं। और क्रिकेट के गब्बर की तरह मूछें उमेठना नया स्वैग।

प्रो कबड्डी लीग 2025_1



इसमें कोई शक नहीं है कि आईपीएल के बाद प्रो कबड्डी लीग भारत की दूसरी सबसे सफल लीग है। लीग ने गाँव जवार के इस खेल को ना केवल खूब लोकप्रिय बनाया है, बल्कि उसे ग्लैमरस भी बनाया है। सबसे बड़ी बात खिलाड़ियों के पास अच्छा पैसा भी आया है। इस साल की ऑक्शन के हीरो ईरान के शादलू हैं जिन्हें गुजरात जायंट्स  ने 2.23 करोड़ में खरीदा है,जबकि देवांक दलाल को बंगाल वॉरियर्स ने 2.20 करोड़ में खरीदा है। शादलू को लगातार तीसरे साल दो करोड़ से ज्यादा मिला है। वैसे इस बार रिकॉर्ड 10 खिलाड़ियों को एक करोड़ से अधिक मिले हैं।


इंग्लिश प्रीमियर लीग और प्रो कबड्डी लीग दोनों हॉटस्टार पर लाइव दिखाई जा रही है। अगर इसके आंकड़ों को लोकप्रियता का कोई पैमाना माने, तो इस समय लाइव चल रहे चार प्रीमियर लीग मैच के कुल दर्शक 7 लाख 31हजार हैं जबकि यूपी योद्धा और तेलुगु टाइटंस के बीच प्रो के मैच के दर्शक इस समय 24 लाख हैं।


Tuesday, 15 July 2025

गुकेश और शुभमन गिल

 

पिछले दिनों दो खिलाड़ी लोगों के निशाने पर रहे और आलोचना के शिकार बने। इनमें एक हैं नए विश्व शतरंज चैंपियन डी गुकेश। और दूसरे भारतीय क्रिकेट टीम  के नए कप्तान शुभमन गिल। 


गुकेश की आलोचना पूर्व विश्व चैंपियन नॉर्वे के मैग्नस कार्लसन की तरफ से आई। जब बीते दिसंबर में गुकेश डी चीन के डिंग लिरेन को हराकर सबसे कम उम्र के चैंपियन बन रहे थे तो कार्लसन फाइनल को दोयम दर्जे का बताकर गुकेश की जीत को और एक खिलाड़ी के रूप में गुकेश को कमतर आंक रहे थे और उनके महत्व को कम कर रहे थे। 

जून में नॉर्वे चेस में गुकेश ने कार्लसन को हरा दिया। लेकिन इस जीत को भी एक इत्तेफाक माना गया क्योंकि कार्लसन से एक गलत चाल हो गई और गुकेश ने बाजी मार ली। तब जाग्रेब क्रोशिया में ग्रैंड चेस टूर में तीन दिन पहले फिर से कार्लसन को हरा दिया। इस बार की जीत बहुत कॉम्प्रिहेंसिव जीत थी जिसने कार्लसन को गुकेश की प्रतिभा का स्वीकारने को मजबूर किया और गुकेश ने बताया कि उनकी विश्व चैंपियनशिप में जीत अपनी योग्य से प्राप्त की थी।


ब इंग्लैंड दौरे के लिए भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान शुभमन गिल को बनाया गया तो इस फैसले की ही आलोचना नहीं की गई बल्कि उनकी बैटिंग क्षमता पर भी पर भी संदेह किया गया। लेकिन उन्होंने जिस तरह से पहले दो मैचों में शानदार बल्लेबाजी की और दूसरे टेस्ट मैच में भारत को जीत दिलाकर ना केवल सीरीज में बराबरी की बल्कि अपनी नेतृत्व क्षमता को भी साबित किया। एजबेस्टन में ये भारत की पहली जीत है। 

फिलहाल भारत की दूसरे टेस्ट मैच में 336 रनों की बड़ी जीत की मुबारकबाद स्वीकारें।

इगा और अमांडा

 


यूं तो खेल की समाप्ति के बाद जीत की खुशी और हार के गम को मैदान का आधा आधा हिस्सा शेयर कर लेना चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं है। जीत के रंग इस कदर प्रबल और चमकीले होते हैं कि हार के रंग स्वतः निस्तेज और क्षीण हो जाते हैं कि उनकी उपस्थिति या तो महसूस नहीं होती या फिर उसका हल्का सा आभास भर होता है। लेकिन कोई एक ऐसा 'खेल' होता है जब हार का दुख इतना कातर और असहाय हो जाता है कि आप उसे जीत की खुशी जितना ही लक्षित करते हैं। यहां जीत और हार की अनुभूतियां समान रूप से मैदान शेयर कर रही होती हैं।

बीते शनिवार की शाम साल 2025 के विंबलडन महिला एकल का फाइनल एक ऐसा ही दृश्य बना रहा था जिसमें जीत की खुशी से अधिक हार का दुःख लक्षित किया जा रहा था। 

ये फाइनल पोलैंड की इगा स्वियातेक और अमेरिका की अमांडा एनीसिमोवा के बीच खेला गया। इगा अपने पहले विंबलडन और कुल मिलाकर छठे ग्रैंड स्लैम खिताब और अमांडा अपने पहले ग्रैंड स्लैम खिताब के लिए सेंटर कोर्ट पर आमने सामने थीं। एक बड़े और कड़े मुकाबले की उम्मीद धरे लोग मैदान में ही नहीं थे बल्कि अपने टीवी स्क्रीन पर भी आंखे गड़ाए थे। 

स मुकाबले के कड़े होने की उम्मीद रखने के कुछ वाजिब कारण भी थे। दोनों ने शानदार तरीके फाइनल तक का सफ़र तय किया था। इगा बहुत ही आसानी से सेमीफाइनल में बेनसिच को  6-0,6-2 से हराकर फाइनल में आई थीं। उन्होंने पूरे टूर्नामेंट में केवल एक सेट गंवाया था,दूसरे दौर में अमेरिका की मैकनेली के खिलाफ। हालांकि वे क्ले कोर्ट की विशेषज्ञ खिलाड़ी मानी जाती हैं और उनके पांच में से चार ग्रैंड स्लैम खिताब  फ्रेंच ओपन ही हैं। वे शक्तिशाली और तेज शॉट्स के लिए भले ही ना जानी जाती हों, लेकिन टॉप स्पिन की माहिर खिलाड़ी हैं और उनके खेल की ताकत भी।

दूसरी और अमांडा अपने पावरफुल हिटिंग के लिए ही जानी जाती हैं। विशेष तौर पर डबल बैकहैंड स्ट्रोक्स के लिए। सेमीफाइनल में उन्होंने विश्व नम्बर एक एरीना सबालेंका को  6-4,4-6,6-4 से हराया था। सबालेंका अभी फ्रेंच ओपन जीतकर यहां आई थीं और पावर हिटिंग के लिए जानी जाती हैं। उनके ग्राउंड स्ट्रोक्स इतने शक्तिशाली होते हैं कि वे पुरुष खिलाड़ियों के साथ अभ्यास करती दिखाई देती हैं। सबालेंका पर इस जीत ने अमांडा से उम्मीदें बढ़ा दी थीं और फाइनल की संभावित विजेता समझी जाने लगी थीं।

ब एक संघर्षपूर्ण और रोमांचक फाइनल की उम्मीद हो चली थी। लेकिन हुआ एंटी क्लाइमेक्स।  इगा अमांडा को केवल 57 मिनट में  6-0,6-0 से हराकर 114 साल पहले के एक इतिहास को दोहरा रही थीं जब इसी मैदान पर 1911 में डोरोथी लैंबर्ट चैंबर ने डोरा बूथबी को इसी स्कोरलाइन  से हराया था। ऐसा ही कुछ ओपन ईरा में 1988 में फ्रेंच ओपन में हुआ जब स्टेफी ग्राफ ने नताशा ज़्वेरेवा को एक भी गेम नहीं जीतने दिया था। 

रअसल अमांडा का ये पहला ग्रैंड स्लैम फाइनल था। वे उसके दबाव को हैंडल नहीं कर पा रही थीं और इगा की शानदार टॉप स्पिन को भी। कोढ़ में खाज ये कि वे अपनी पहली सर्विस भी नहीं सम्भाल पा रहीं थीं और अपने पावरफुल स्ट्रोक्स भी। जैसे जैसे खेल आगे बढ़ रहा था,वे एक गेम जीत लेने के भर के लिए व्याकुल होने लगी। जितनी ज्यादा उतनी व्याकुलता बढ़ती जाती,उतनी ही ज्यादा वे बेज़ा गलतियां करती जाती और हार की तरफ बढ़ती जाती,उतनी ही ज्यादा बेबस और असहाय नजर आती। ट्रॉफी प्रेजेंटेशन के दौरान उनकी आंख से बहता पानी ही नहीं,बल्कि खेल के दौरान उनकी भीगी आँखें सारी कहानी बयां करने के लिए काफी हैं।

विंबलडन के इस मैदान पर केवल दो रंगों का विशेषाधिकार है। उस शनिवार भी। सफेद और हरे रंग का। बाकी किसी रंग का इसमें प्रवेश निषेध है। मानो ये दो रंग मैच दर मैच जीतने और हारने वाले खिलाड़ियों के प्रतिनिधि रंग हों। हरा रंग जीत की खुशी से समृद्ध होते खिलाड़ी का और सफेद हारे खिलाड़ी की उदासी का। हार जीत के खेल में बाकी रंग की गुंजाइश ही कहां बचती है। 

विंबलडन के इस मैदान पर पराजय की पीड़ा से उपजी उदासी चाहे जितनी गहरी रहती आई हो,उसमें संघर्ष की एक सम्मानजनक चमक हमेशा रहती आई है। लेकिन इस फाइनल में संघर्ष के अभाव में हार के दुख से उपजी उदासी इतनी गहरी थी कि सफेद रंग इस कदर मटमैला हुआ जाता था जितना इससे पहले कभी ना हुआ था।

मय बलवान होता है। नहीं तो क्या कारण है कि केवल 48 घंटों में एक खिलाड़ी अर्श से फर्श पर आ खड़ा होता है। गुरुवार की रात को जो खिलाड़ी नंबर को हराकर उत्कर्ष के चरम पर थी वो  दो दिन बाद पतन के अपकर्ष पर पहुंच जाती है। वहीं एक दूसरी खिलाड़ी महीने भर पहले संभावित विजेता होते हुए भी उस प्रतियोगिता से चौथे चक्र में ही बाहर हो जाती हैं जिसे उसने चार- चार बार जीता था। लेकिन ठीक एक महीने बाद ही वो एक ऐसे टूर्नामेंट को जीतकर शीर्ष पर पहुंच जाती है जिसे उसके लिए फेवरेट समझा ही नहीं जाता।

लेकिन समय ऐसा ही होता है। मनमौजी। पल में माशा,पल में तोला।

फिलहाल तो इगा को पहला विंबलडन और छठा ग्रैंड स्लैम खिताब मुबारक।

Tuesday, 17 June 2025

एक जीत जो कुछ अलहदा है

 


आपके पास हजारों तमगे हो सकते हैं,पर कोई एक तमगा आपके गले में शोभायमान नहीं होता है। हजारों जीत आपके खाते में होती हैं, पर कोई एक जीत आपके हाथों से फिसल फिसल जाती है। और वो एक छूटा तमगा,वो बाकी रही एक जीत आपकी सबसे बड़ी चाहना बन जाती है,उम्र भर की सारी उपलब्धियों पर भारी पड़ती जाती है। अंततः उस तमगे,उस जीत को पाने की इच्छा एक ऑब्सेस बन जाती है। सिर्फ उसके लिए नहीं, बल्कि उसके चाहने वालों के लिए भी।

दुनिया का कोई ऐसा तमगा नहीं था जो मेसी के पास नहीं था। यहां तक कि उनके पास आठ 'बैलेन डी ओर' खिताब थे। पर विश्व कप नहीं था। फिर 2022 का साल आया। रियाल मेड्रिड ने यूरोपियन कप का,जिसे अब चैम्पियंस ट्रॉफी के नाम से जाना जाता है,अपना नौवां खिताब 2002 में जीता था। उसे  दसवां खिताब जीतने में 12 साल लगे। जब साल 2014 आया। सचिन ने अपने जीवन में सब कुछ पाया। यहां तक कि उनके पास  शतकों का भी शतक था। वे क्रिकेट के भगवान भी कहाने लगे। लेकिन उनके पास कोई विश्व कप खिताब नहीं था। तब साल 2011 आया। आखिर विराट के पास क्या नहीं था सिवाय आईपीएल ट्रॉफी के। तब साल 2025 आया। 

एक है दक्षिण अफ्रीका की क्रिकेट टीम। रंगभेद के  कारण प्रतिबंध के बाद 1991 में उसने अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में वापसी की। वापसी के बाद उन्होंने लगातार शानदार क्रिकेट खेली। क्या नहीं था उस टीम के पास। माइक प्रॉक्टर जैसे खिलाड़ी की लीगेसी। जैक्स कैलिस जैसे ऑल राउंडर। एलेन डोनाल्ड और शॉन पोलक जैसे बॉलर। और जॉन्टी रॉड्स जैसा फील्डर।  एक कॉमनवेल्थ ट्रॉफी और एक चैंपियंस ट्रॉफी के। और ये बात साल 1998 की है। लेकिन उन्हें हमेशा मलाल रहा कि उनके पास कोई आईसीसी की विश्व चैंपियनशिप नहीं है। वे कोई विश्व कप नहीं जीत पाए हालांकि इस दौरान वे एकदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय विश्व कप में पांच बार सेमीफाइनल तक पहुंचे। वे 2024 में टी - 20 विश्व कप के फाइनल में पहुंचे। लेकिन पिछले 27 सालों से एक अदद ट्रॉफी के लिए तरसते रहे। तब साल 2025 आया।

लंदन के लॉर्ड्स मैदान पर आईसीसी टेस्ट चैंपियनशिप के फाइनल में दक्षिण अफ्रीका ने क्रिकेट की दुनिया के सबसे बड़ी धुरंधर टीम ऑस्ट्रेलिया को पांच विकेट से हरा कर अपना चिर प्रतीक्षित सपने को साकार किया। वे टेस्ट चैंपियन बने। पहली बार उन्होंने आईसीसी की विश्व चैंपियनशिप जीती। क्रिकेट के सबसे मौलिक और कठिन फॉर्म के चैंपियन। ये जीत कोई तुक्का नहीं थी। ये बहुत कन्विंसिंग जीत थी। उसने  ये जीत लॉर्ड्स के मैदान पर 282 रनों के लक्ष्य का पीछा करके हासिल की थी। लॉर्ड्स का दूसरा सबसे बड़ा लक्ष्य जिसे चेज करते हुए यहां जीत हासिल की थी। 

वे लॉर्ड्स में लगातार आठ जीतों के आत्मविश्वास के साथ आए थे। लेकिन संभावित चैंपियन ऑस्ट्रेलिया ही माना जा रहा था। पहली पारी में ऑस्ट्रेलिया को 212 रनों पर आउट किया तो लगा कि दक्षिण अफ्रीका मैच में है। पर ये बढ़त उस समय खत्म हो गई जब वे 138 रनों पर आउट हुए। गेंदबाजों ने फिर वापसी कराई और ऑस्ट्रेलिया को दूसरी पारी में भी 207 रनों पर समेट दिया। लेकिन पहली पारी की बढ़त के बूते ऑस्ट्रेलिया ने दक्षिण अफ्रीका को 282 रनों का लक्ष्य दिया। ये कोई आसान लक्ष्य नहीं था। इस मैदान पर इससे पहले केवल एक बार इससे बड़ा लक्ष्य सफलतापूर्वक चेज किया गया था। ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ भी इससे पहले केवल चार बार इससे बड़े लक्ष्य को सफलतापूर्वक चेज किया गया था। लेकिन दक्षिण अफ्रीका ने ये कर दिखाया।

ये एक टीम की जीत थी जिसमें बवूमा ने टीम को आगे आकर बेहतरीन नेतृत्व दिया। मारक्रम ने शानदार बल्लेबाजी और रबादा ने शानदार गेंदबाजी से अपना योगदान किया। बाकी सब खिलाड़ियों ने भी अपने थोड़े थोड़े लेकिन महत्वपूर्ण योगदान से टीम की अविस्मरणीय जीत की नींव रखी।

ये एक ऐसी जीत थी जिसने दक्षिण अफ्रीका की पिछली सभी हार के घावों पर मलहम लगाया होगा। उसकी पिछली सभी असफलताओं से मिले दर्द को सुकून दिया होगा।


और इस अविस्मरणीय जीत के सबसे बड़े नायक थे उसके कप्तान तेंबा बवूमा। उन्होंने आगे बढ़कर टीम का नेतृत्व किया और अपनी जिम्मेदारी को निभाया। पहली पारी में 36 और दूसरी पारी में 66 रन बनाए। दूसरी पारी में उनके पैर में क्रैंप था। उसके बावजूद वे खेलें। पूरे जीवट और उत्साह से। दर्द सहते हुए। वे जानते थे सफलता कठिनाइयों के रास्ते ही आती है। सफल होने के लिए दर्द से गुजरना ही पड़ता है। वे जानते थे नेतृत्व की जिम्मेदारी। वे जानते थे सेनानायक के नेतृत्व का महत्व। वे कोच के मना करने पर भी मैदान में गए और पिच पर डटे रहे। उन्होंने करीब सवा तीन घंटे पिच पर बिताए। मार्करम के साथ एक शानदार साझेदारी की। उन्होंने अपनी टीम की पारी बिल्टअप किया और बाकी काम मारक्रम ने शानदार 136 रनों की पारी खेलकर व अन्य खिलाड़ियों ने पूरा किया।

ये उनकी कप्तान के रूप में लगातार आठवीं और कुल नौवीं टेस्ट जीत थी। 

बवूमा अब दुनिया के सबसे सफल कप्तानों में से एक है। अपने करियर के पहले दस टेस्ट मैचों की कप्तानी में अपराजेय और दुनिया के सफलतम कप्तान। नौ जीत और एक ड्रॉ। उन्होंने  इंग्लैंड की धरती पर उसके कप्तान पर्सी चेपमैन के सौ साल पुराने रिकॉर्ड को तोड़ा। उन्होंने सिद्ध किया उनमें असाधारण नेतृत्व क्षमता है और 'कोटा कप्तान' का टैग बेमानी बनाया। ये उन लोगों को भी उनका अपनी शैली में जवाब था जिन्होंने उनके कप्तान बनने के विरोध में टीम छोड़ दी थी।

इस जीत के बाद पांच फुट चार इंच के इस छोटे कद के खिलाड़ी ने अपना कद दक्षिण अफ्रीका के क्रिकेट इतिहास में इतना ऊंचा कर लिया कि हर किसी को उनका कद नापने के लिए सर को उठाकर देखना होगा। इस जीत ने उनको अपने रंग और कद के कारण मिले सारे अपमान और आलोचनाओं से मन के भीतर भरे स्याह अंधेरे की जगह सम्मान और आत्मगौरव की रोशनी से जगमगा दिया होगा। निःसंदेह वे अब 'एक अश्वेत क्रिकेटर' के बजाय एक महान क्रिकेटर के रूप में पहचाने जाएंगे,जैसा कि जीत के बाद बवूमा ने कहा कि 'मुझे अब सिर्फ एक अश्वेत अफ्रीकी क्रिकेटर के रूप में नहीं,बल्कि एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाए जिसने कुछ ऐसा हासिल किया है जिसे देश बहुत ज्यादा चाहता था। ये कुछ वैसा है जो मुझे सीना तानकर चलने के लिए प्रेरित करेगा और मुझे उम्मीद है ये देश को प्रेरित करेगा।'

वे बता रहे थे 'उनका नाम तेंबा उनकी नानी ने रखा जिसका मतलब होता है 'उम्मीद'।' उन्होंने बताया कि नानी ने ये नाम 'इस उम्मीद में कि वे अपने समुदाय की उम्मीद बनेंगे,अपने देश की उम्मीद बनेंगे।' उन्होंने अपनी नानी की उस उम्मीद को नाउम्मीदी में नहीं बदलने दिया। उन्होंने पूरे देश की उम्मीद की लौ बनकर अपने देशवासियों के दिलों को रोशन कर दिया।

क्या ही विधि का विधान था कि जिन क्रिकेट विशेषज्ञों ने उन्हें खारिज किया था और उनकी योग्यता पर संदेह किया था, उन्हीं में से एक इंग्लैंड के पूर्व कप्तान नासिर हुसैन जीत के बाद उनसे सवाल कर रहे थे।

दक्षिण अफ्रीका की ये जीत देर से जरूर आई। पर ये है उतनी ही महत्वपूर्ण। कुछ जीत सिर्फ आंकड़ों की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं होती,बल्कि अपने अंतर्निहित प्रभावों की वजह से भी महत्वपूर्ण होती है। ये एक ऐसी ही जीत है।

टीम अफ्रीका को जीत मुबारक।

Sunday, 15 June 2025

गेट वेल सून सोनम

 



पत्रकार लेखक विपिन धनकड़ का सद्य प्रकाशित उपन्यास ' गेट वेल सून सोनम ' अभी पढ़कर अभी समाप्त किया है। ये उनकी दूसरी पुस्तक है। इससे पहले उनके रोचक अनुभवों व संस्मरणों पर एक पुस्तक 'हाउस हसबैंड ऑन ड्यूटी' आ चुकी है। 

विपिन एक ऐसे परिवेश से आते हैं जहां  कृषि भूमि का मालिक होना सबसे गौरवपूर्ण माना जाता है और खेती करना सबसे बड़ा और सुगम जीविकोपार्जन का साधन। उससे इतर पुलिस या सेना में भर्ती को लेकर भी जहां खासा रोमान होता है। उनके पास ये दोनों रास्ते सहज ही सुलभ थे। लेकिन वे पारंपरिक सोच से हटकर अपने लिए पत्रकारिता का रास्ता चुनते हैं। ये एक साहसिक निर्णय था। इससे ज्यादा साहसिक निर्णय वे तब लेते हैं जब 17 साल के जमे जमाए पत्रकारिता के करियर को छोड़ स्वतंत्र लेखन को अपनाते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं वे पत्नी को नौकरी करने और खुद के लिए 'हाउस हसबैंड'  की भूमिका चुनने का निर्णय लेते है। भारतीय समाज के पर्याप्त प्रगतिशील हो जाने के बावजूद ये अपने आप में एक साहसिक निर्णय कहा जा सकता है। 

वे हाउस हसबैंड बनने के अपने इस  निर्णय को ना केवल उजागर करते हैं,बल्कि एक हाउस हसबैंड की भूमिका को निभाने के दौरान के अनुभवों को बहुत ही ईमानदारी से कलमबद्ध करते हैं और दुनिया से साझा करते हैं।

 ये भूमिका इसलिए कि किसी भी लेखक के लिए लीक से हटकर और अधिक प्रासंगिक विषयों पर लेखन का साहस और अपने अनुभवों का ईमानदारी से अंकन उसके लेखन को प्रामाणिक बनाता है और बेहतर भी। साहस और ईमानदारी अच्छे लेखन के जरूरी गुण की तरह है। विपिन में और उनके लेखक में ये गुण खूब हैं।

स उपन्यास के केंद्र में हमारे आस पास का  चिकित्सा परिदृश्य है। पिछले 50 सालों में  चिकित्सा परिदृश्य में बहुत ज्यादा परिवर्तन आया है। जैसे-जैसे उपभोक्तावादी संस्कृति हावी होती चली गई,वैसे वैसे चिकित्सा क्षेत्र एक बाजार में तब्दील होता गया जिसमें मरीज एक व्यक्ति ना रह कर ग्राहक बन गया और चिकित्सा सुविधाएं उपभोक्ता वस्तु। डॉक्टर और मरीज के बीच का जो एक मानवीय सूत्र था वो बाजार की शक्तियों के दबाव टूट गया और उन दोनों के बीच का संवेदनशील रिश्ता क्षीण होता चला गया। वे संबंध विशुद्ध रूप से क्रेता और विक्रेता के संबंधों में बदलते गए जिसमें मुख्य भूमिका उपयोगिता और मुनाफे की है। सेवा भाव का विलोप होता चला गया। 

स उपन्यास के प्राक्कथन में जाने माने अनुवादक,लेखक,संपादक प्रभात सिंह सर इसको चिह्नते हुए लिखते हैं 'गुज़रे ज़माने के एमबीबीएस डॉक्टर मर्ज़ का इलाज तो खैर करते ही थे,हाथ में शिफ़ा होने के बाद भी उनका मानवीय चेहरा  हमेशा नुमायां रहता था,उनकी हिदायतों पर अमल ना करने वाले मरीज़ डांट भी खाते थे। बच्चों और बड़ों के इलाज के लिए अमूमन एक ही डॉक्टर के आसरे रहते थे। विशेषज्ञता वाले इस दौर में,तमाम तरह की उपलब्धियों के बीच डॉक्टर का इंसानी चेहरा कहीं छूट गया क्यों लगता है।' 

रअसल ये उपन्यास चिकित्सा क्षेत्र की तमाम तरह की उपलब्धियों और तरक्की के बीच छूट गए इस मानवीय चेहरे को पहचानने की कोशिश है। उसको शिनाख्त करने की कयावद है। छोटी सी सही,लेकिन एक महत्वपूर्ण कोशिश। 

ज के बहुत ही विडंबनापूर्ण और चुनौती भरे समय में  चिकित्सा क्षेत्र की चालबाजियां,चालाकियां,शोषण के नित रोज ईजाद होते तरीके, सारी कमियां और दुर्गुण तो बहुत लाउड हैं। सिस्टम की सारी कठोरताएं बहुत आसानी से पहचानी जा सकती हैं। उन्हें चिह्नित किया जा सकता है। आज की असल जरूरत ही उस कोमलता को छूने की है जो इनके पीछे अभी भी मौजूद है। उसे पहचानने की जरूरत है जो मानवीयता अभी भी सांस ले रही है।

ज के नकारात्मकता के इस वातावरण में सकारात्मक चीजों को हाइलाइट करना कहीं अधिक जरूरी है। विपिन का ये उपन्यास उस जरूरत को पूरा करने का एक प्रयास है।

स्पतालों में बाजार और मुनाफे से इतर एक पूरा  जीवन भी सांस लेता रहता है। रोजमर्रा का जीवन। आम आदमी का जीवन। उस स्थान के जीवन के समानांतर जहां वो अस्पताल स्थित है। अपने सारे दुख सुख के साथ। अपनी जिजीविषा से उम्मीद पाता हुआ। जिसमें शामिल हैं बीमार,उनके तीमारदार,नर्स,गार्ड,वार्ड बॉय,कैंटीन कर्मी,डॉक्टर और उसका स्टाफ तो है ही।

स उपन्यास के दो भाग है। पहले भाग में नायिका सोनम के बीमार होने के पर अस्पताल में भर्ती होने से लेकर ठीक होकर वापस घर जाने की कथा और दूसरे भाग में ऑपरेशन के लिए पुनः भर्ती होने से लेकर ठीक होकर वापस घर जाने तक। पहले में केवल अस्पताल और उसका जीवन है। दूसरे भाग में अस्पताल के जीवन के साथ-साथ  फ्लैशबैक में नायक नायिका की प्रेम कहानी भी चलती रहती है।

स उपन्यास की एक खूबी ये भी है कि इसमें वे सारे पात्र स्पेस पाते हैं जो बहुत सामान्य हैं और कहन में छूट जाते हैं या उपेक्षित रह जाते हैं,जैसे नर्सेज,वार्ड बॉय,गार्ड आदि। क्योंकि  विपिन एक पत्रकार हैं,वे विवरण प्रमाणिक देते हैं। निःसंदेह उपन्यास में अस्पताल के अंदर और बाहर के जीवन का बहुत सुंदर और सजीव चित्रण है। तमाम जगहें ऐसी हैं जो मन में कहीं अटकी रह जाती हैं। एक जगह वे लिखते हैं। 'चाय उनके लिए सिर्फ एक पेय पदार्थ ना होकर यादों का एक गुलदस्ता थी। जिसमें सुख दुख के फूल जड़े थे।' 


लेकिन ऐसा नहीं है कि इस पेशे से जुड़े स्याह पक्ष इसमें नहीं ही हैं। हैं, लेकिन संकेतों में। शुरू में ही नायिका को बेड खाली होते हुए भी मिलने में परेशानी का एक प्रसंग आता है जो साफ तौर पर बड़े अस्पतालों का मरीज को लूटने और उनकी  असंवेदनशीलता का साफ संकेत है। अनावश्यक टेस्ट कराने,लापरवाही,लूट खसोट,असंवेदनशीलता, सभी के तो संकेत हैं। वे एक जगह लिखते हैं 'अस्पताल में बीमारी के साथ बिल भी चिंता का विषय है।' एक अन्य जगह वे लिखते हैं अस्पताल में पेड़ों के पैसे हैं। जिधर देखो लटके हैं और बरस रहे हैं। नर्स,डॉक्टर,स्टाफ दिन - पैसे उठाने में लगे हैं। जितने बेड पर मरीज,उतने पेड़। हिलाओ और उठाओ।' किसी और जगह लिखते हैं ' काम के घंटे ज्यादा और सैलरी कम होना एक वैश्विक समस्या बन चुकी है और अस्पताल भी ऐसा करके मरीजों को बीमार बना रहे हैं।' 

कुल मिलाकर उपन्यास पठनीय बन पड़ा है। उसकी भाषा में रवानी है। शुरू करने के बाद एक बार में पढ़े बिना नहीं रहा जा सकता। निःसंदेह विपिन संभावनाओं से भरे लेखक हैं। लिखना उनका पैशन है। निकट भविष्य में उससे कुछ और बेहतर किताबों की उम्मीद की जा सकती है।

फिलहाल इस उम्दा उपन्यास के लिए लेखक को बधाई।

एशियाई चैंपियन

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