"चले गए थे वे अकेले
एक रहस्यमय जगत में
जहां से आज तक लौटकर नहीं आया कोई
वह शय्या अभी भी है
वह सिरहाना अभी भी है
मैं भी हूं तारों-भरे आकाश के नीचे
पृथ्वी के लोगों के बीच
चल रहीं हूं अकेली उन्हें याद करती हुई
जीवन के बीच जीवन ढूंढती हुई।"
असमिया कवयित्री मणिकुंतला भट्टाचार्य की कविता 'पिता' का अंश।
मणिकुंतला की ये पीड़ा सिर्फ उनकी पीड़ा नहीं है, शायद पूर्ण हुए हर पिता के बच्चों की है। पिता का उनके सिर पर रखा हाथ दुनिया की सबसे बड़ी आश्वस्ति है। और उसका सिर से उठ जाना एक ऐसा अभाव जिसे कभी पूरा नहीं किया जा सकता।
किसी के जाने से जिंदगी रुकती नहीं है। पिता के जाने पर भी कहां रुकती है। चलती जाती है वो बिना रुके। हमें भी कहां रुकने देती है! लेकिन जिंदगी रुके भले ही ना, पर वो पहले जैसी रह भी कहां जाती है। बस होता इतना भर है कि पैरों तले धरती की मुलामियत थोड़ी कम हो जाती है और सिर के ऊपर का आसमान थोड़ा और दूर। धरती का हरा रंग थोड़ा कम हरा दीखने लगता है और आसमान का रंग थोड़ा कम नीला। सूरज का ताप कुछ और तीक्ष्ण हो जाता है और हवा की चुभन कुछ और नुकीली। सर्द रातें कुछ ज्यादा सर्द होती जाती हैं और गरम दिन कुछ और गरम। बारिशें हैं कि बेमानी हुई जाती हैं और आंसू खारे। बस जिंदगी है कि चलती जाती है। कुछ और भारी होती हुई। कुछ और उदास होती हुई। रुकती, ठिठकती, सहमी हुई सी। सिर पर से पिता के हाथ का उठ जाना जिंदगी का निष्कवच हो जाना जो होता है।
लेकिन किया भी जाए तो क्या किया जा सकता है। मानना ही पड़ता है कि ज़िंदगी की सबसे बड़ी और अंतिम सच्चाई ही ये है कि इसे एक दिन खत्म हो जाना ही है। ये धीमे धीमे समय में घुलती जाती है और फिर किसी एक दिन पूरी तरह घुल कर खत्म हो जाती है। और तब रह जाते हैं खत्म हुए जीवन के वे अवशेष जो दिल और दिमाग के गहरे भीतरी कोनों में दबे रह जाते हैं। स्मृतियां के रूप में। अब वे स्मृतियां ही सबसे बड़ी पूंजी होती हैं। होती हैं सबसे अनमोल धरोहर। सबसे मजबूत कवच। ये स्मृतियां ही शेष रह जाती हैं जिन्हें खुशबू सा हो ज़िंदगी को ताउम्र महकाना है। उन्हें अंधेरे समय का उजास बन जाना है। मुश्किल समय में उनका हल। उदास समय की मुस्कान बन जाना है। रुके समय की गति।
पिता को गए तीन साल होने को आए। इस बीच कोई एक दिन ऐसा नहीं बीता जिस दिन पिता की स्मृति ने बेचैन ना किया हो। इतना वक़्फा बीत जाने के बाद भी ऐसा लगता है जैसे उनका जाना बस कल की ही तो बात है। उनकी स्मृतियां उदासी का सबब भी बनती हैं और मुस्कान का भी। हंसाती हैं, तो रुलाती भी हैं। कभी गुदगुदाती हैं। कभी कसक पैदा करती हैं।
पिता की स्मृति इकहरी नहीं है। ये कई कई परत वाली हैं। अलग अलग भावावेगों वाली। जटिल। अलग अलग समय में अलग अलग भावोद्वेग पैदा करती हुई आती हैं और तिरोहित हो जाती हैं।
पिता का व्यक्तित्व बहुत ही सुदर्शन था। लंबे। छछहरे बदन। रक्ताभ वर्ण। रुआबदार व्यक्तित्व।शुरुआती जीवन अभावों से बना था। इसलिए जो भी किया खुद के बूते। सेल्फमेड। खिलाड़ी। गुस्सैल इतने कि परिवार क्या गांव जवार भी सहमता। लेकिन सोच में पुरुषवादी। पूरी तरह पितृसत्ता वादी।
वे ऐसे कैसे हुए। पता नहीं। हो सकता है ये जातीय संस्कार रहे हों या परिवेशगत संस्कार। मेरे बाबा और परबाबा ज़मीदार की रैयत रहे। उसकी जमीन जोतते और उसे लगान देते। ये तो 1956 का ज़मीदारी उन्मूलन कानून था कि ज़मीन उनकी अपनी हुई और वे स्वतंत्र किसान बने। क्या पता उस सामंतवादी व्यवस्था का हिस्सा होने के संस्कार रहे हों।
लेकिन ये उनके व्यक्तित्व का विरोधाभास था कि पुरुषवादी सोच के बावजूद बेटी को बेइंतहा प्यार करते। उसे अगर ज़्यादा भी नहीं तो कभी बेटे से कम भी नहीं समझा। एक समय पर वे दकियानूसी लगते तो किसी दूसरे समय पर बेहद प्रगतिशील।
जो भी हो,बचपन उनसे डरते बीता। ना जाने कितनी बार मार खाई। एक ऐसा बचपन जो हमेशा अपने पिता से छिपता फिरता। उनसे बचता फिरता। इतने डर के बावजूद उनका होना सबसे बड़ी आश्वस्ति थी। सबसे बड़ा संबल था। वे मां की तरह नहीं थे। हो भी नहीं सकते थे। मां किसी नदी की तरह। बात बात में प्यार छलकता। पिता किसी चट्टान की तरह। ऊपर से कठोर। अपने बच्चों के प्रति प्रेम को भीतर समेटे हुए लेकिन बाहर से निर्लिप्त, निस्पृह,कठोर,अनमने से।
बेहद ज़िद्दी थे। वे अपने मन में हर बात के लिए एक धारणा बना लेते। उनको लगता वही सही है जो उन्होंने सोचा है। बहुत बार उस समय तक डांट या मार खाते जब तक हम वो बात ना कह देते जो उन्होंने सोच रखी है। भले ही वो गलत हो। इससे उनका अहम तुष्ट होता। हम बहुत बार पहले ही वो बात कह देते जो उन्होंने सोच रखी होती थी। हालांकि वो बात सच नहीं होती थी। पर इससे हमारा जल्द बचाव हो जाता।
वे बहुत अनुशासनप्रिय थे और बहुत नियमित भी। सुबह बहुत जल्द उठते और हमें भी कान पकड़कर बहुत सुबह उठा देते। इस सुबह का मतलब सुबह के चार बजे होता। गर्मियों में ही नहीं बल्कि सर्दियों में भी। हमें पढ़ने के लिए बैठा देते और खुद रेडियो पर गाने लगा देते और व्यायाम करते। सुबह उठना बहुत कष्टप्रद लगता। लेकिन धीरे धीरे गाने सुनने का चस्का लगा और सुबह उठना उस तरह से कष्टप्रद ना रह गया। उन्हें रेडियो सुनने का बड़ा शौक था। रेडियो कश्मीर से रात्रि आठ बजे प्रसारित होने वाला कार्यक्रम 'वादी की आवाज़' उनका बहुत ही पसन्दीदा कार्यक्रम था जिसके स्टॉक करेक्टर मुंशीजी और निक्की की नोक झोंक केवल उन्हें ही नहीं माँ और हमारे भी मन को गुदगुदाती।
वे सरकारी नौकरी में थे। लेकिन वे बिल्कुल भी महत्वाकांक्षी ना थे। वे ईमानदारी और स्वाभिमान से जीना चाहते। उनकी चाहतें बहुत ही साधारण। हम चाहते कि हमारा दाखिला कान्वेंट स्कूल में हो। पर वे कहते वहां पढ़ने का मतलब बच्चे ना अंग्रेजी ठीक से सीख पाएंगे और ना हिंदी। हालांकि हम जानते थे कि वे दो बच्चों को कान्वेंट में पढ़ाना अफोर्ड नहीं कर सकते थे।
उन्होंने अपने बेटे से भी कोई बहुत बड़ी उम्मीद नहीं लगाई थी। वे सिर्फ इतना चाहते थे कि वो एक अच्छा खिलाड़ी बने और दबंगई करे। वे खुद भी एक अच्छे खिलाड़ी रहे और कालेज में रहते हुए दबंगई भी की। उस समय अपने इकलौते बेटे से ऐसी उम्मीद रखना वाकई चकित कर देने वाला था। इसके लिए उन्होंने अपने तईं खूब प्रयास किए। वे अपने साथ शाम को मैदान पर ले जाते और सुबह फिटनेस के लिए।
लेकिन उनकी इस इच्छा को पूरा नहीं ही होना था। बेटे की खेलों में रुचि तो हुई। खेला भी खूब। पर उस स्तर पर ना पहुंच सका जहां वे उसे देख रहे थे। दबंगई तो बिल्कुल भी ना हुई। वे बेटे को अक्सर लड़ाई झगड़े के लिए प्रेरित करते। इस मायने में कि बेटा दब्बू ना बने। वे अक्सर कहते पिटो या पीटो, पर डरकर घर मत आओ। कितने पिता अपने इकलौते बेटे को इस तरह की छूट देने का साहस कर पाते होंगे। आज की तरह ना सोचें बल्कि आज से लगभग आधी सदी पहले के समय को रखकर देखे तो ये बात मुझे तो आज भी अचंभे से भर देती है।
उनका हमारे दिलों में गजब का खौफ होता। इतना ज्यादा कि सही बात ही भूल जाते। कक्षा आठ की बात है। वार्षिक परीक्षा में गणित का पर्चा देकर घर आया था। उन्होंने कहा ये सब अभी हल करके दिखाओ। घबराहट में सारे सवाल गलत किए। बहुत मार पड़ी। जब परिणाम आए तो गणित के उस पर्चे में 50 में से 49 अंक आए थे।
लेकिन ये जीवन की शायद आखिरी मार थी। पिता जी का दूसरी जगह स्थानांतरण हो गया। हम वहीं बने रहे और पिताजी आते जाते रहे। ये मेरे लिए सुकून की बात थी। उस समय नौवीं कक्षा में ही विषय चुनने होते थे। पिताजी ने कला वर्ग में दाखिला दिलाया ताकि खेलने के लिए अधिक समय मिल सके। ऐसा उस समय हो रहा था जब सबसे नकारा बच्चे कला वर्ग में दाखिला लिया करते थे। लेकिन उनकी अपने इकलौते बेटे से अपेक्षाएं सामान्य चलन से बहुत अलग थी।
हाई स्कूल की बोर्ड की परीक्षा उनके बगैर दीं। परीक्षा परिणाम को लेकर ना तो उन्हें बहुत उम्मीद थी और ना ही भरोसा। लेकिन जब उन्होंने परिणाम देखा तो वे हैरान थे। उनका बेटा डिस्टिकंशन से उत्तीर्ण हुआ था। छियत्तर प्रतिशत अंकों के साथ। उनके मूंह से निकला था 'ये तो हाथ से गया।' ये बेहद अप्रत्याशित प्रतिक्रिया थी। उन्हें ये अहसास हो गया था जो वे चाहते हैं वो कभी पूरा नहीं होगा। लेकिन उससे अधिक गर्व से भरा मैंने उन्हें अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखा। उनकी उम्मीदें बदल गईं थी। उसके बाद उन्होंने पढ़ाई को लेकर ताजिंदगी कोई सवाल या संदेह नहीं किया।
लेकिन समय बदल जाता है। हमारे संबंध भी बदल रहे थे। हम अपनी नई भूमिकाओं के लिए तैयार हो रहे थे। मैं पढ़ने इलाहाबाद आ गया था। एक घटना से घबराकर पिताजी को एक पत्र लिखा था जिसमें अकेले रहने के डर को व्यक्त किया था। उस समय तक फोन अस्तित्व में नहीं आया था। पत्रों पर सवार हो भावनाएं,
जज्बात,विचार इत उत डोलते रहते। जवाब में उन्होंने जो पत्र लिखा था वो आज भी अंधेरे मन को रोशन कर देता है। वे बहुत सुंदर लिखते। सिर्फ हस्तलिपि सुंदर नहीं होती बल्कि उसका कंटेंट उससे भी सुंदर होता। वो पत्र भौतिक रूप में भले ही पास नहीं है। पर किसी रोशनी की तरह दिल में हमेशा बना रहता है। उनके लिखे का आशय था कोई भी सारी उम्र साथ नहीं होता। वे भी नहीं रहेंगे। हर किसी को अपना मार्ग स्वयं बनाना है। बल्कि इस बात के लिए भी खुद को तैयार करना होता है कि जो हाथ अब तक तुम्हे संभालते रहे हैं अब उन हाथों को भी संभालने की सलाहियत भी पैदा करनी है।
कभी नहीं सोचा था कि वो समय भी आएगा कि उन हाथों को संभालना होगा जिन हाथों ने बचपन से जवानी तक सहारा दिया था। पर समय सबसे बलवान होता है। होनी अपनी करके रहती है। समय से निर्दय,निष्ठुर और क्या होता है,किसी को पता हो तो बताए।
वे सेवानिवृत हो गए थे। उन्होंने गांव में रहना चुना। लेकिन कुछ साल बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा। अब उन्हें हम नौकरी पर साथ ले आए थे।
उन्हें जीवन से बहुत प्यार था। वे जीना चाहते थे। लंबा बहुत लंबा। उन्हें ड्रिंक का शौक था। धूम्रपान का भी। लेकिन डॉक्टर ने सब मना कर दिया था। उन्होंने डॉक्टर की हर सलाह का अक्षरशः पालन किया। उन्होंने हद से ज्यादा संयमित जीवन जीना शुरू कर दिया था।
बायपास सर्जरी के बाद वे 15 सालों तक अच्छे से रहे। बस इस बीच उन्होंने बहुत कुछ जिम्मेदारियों से मुक्त होना शुरू कर दिया था। जिम्मेदारियां अपने बेटे को हस्तांतरित करना शुरू कर दिया था। ये उन्होंने इतने सहज और सरलता से किया कि किसी को अहसास ही नहीं हुआ कि वे क्या कर रहे हैं। उन्होंने खुद को अपने बहु- बेटे के हवाले कर दिया था। ठीक वैसे ही जैसे कभी हम उनके हवाले हुआ करते थे।
उनके स्वास्थ्य की सबसे बड़ी बाधा उनकी दृष्टि का धीमे धीमे क्षय होते जाना था। तमाम इलाज के बावजूद उनकी दृष्टि लगातार कमजोर होती जा रही थी। डॉक्टर कुछ नहीं कर पा रहे थे। क्षीण होती दृष्टि उनकी रोजमर्रा की गतिविधियों को लगातार सीमित कर रही थी।
ये वो समय था जब कोरोना बीमारी मानवता पर कहर बनकर टूट पड़ी थी। उनकी आंखों की रोशनी लगातार कम होती जा रही थी। इस बीच एक और बीमारी ने उन्हें अपना शिकार बना लिया था। वे डिमेंशिया से प्रभावित होने लगे थे। वे चीजें भूलने लगे थे। वे मां को भी पहचानना भूल जाते थे। एक समय ऐसा आया जब वे सिर्फ और सिर्फ अपनी पुत्रवधु को पहचानते थे। उन्हें केवल उस पर भरोसा रहा गया था। मां को अक्सर पूछते 'ये कौन है'। अपने बेटे को अब वे एक अनजान साहब के तौर पर पहचानते। ये हृदय विदारक था।
कई दुख आपके लिए ऐसे होते हैं जो बहुत सारे दुखों के समुच्चय से भी गहरे होते हैं। मन को गहरी टीस से भर देते हैं। वे आपकी आत्मा पर फफोलों की तरह उभर आते हैं जिनसे दुख रिसता रहता है। पिता को इस तरह से देखने से बड़ा दुख और क्या हो सकता था। लेकिन नियति अपना कार्य निस्पृह होकर करती रहती है। उसके लिए क्या दुख, क्या सुख।
अब वे शारीरिक रूप से भी बहुत कमजोर हो चले थे। वे किसी छोटे से बालक की तरह। उन्होंने पूरी तरह से खुद को हमें सौंप दिया था। वे बच्चों की तरह इसरार करते। उनकी देखभाल करते हुए हमें अपनी बेटियों का बचपन याद आने लगता। कई बार उनके हाथों को हम पकड़े बैठे रहते। उनके हाथ ऐसे लगते जैसे बचपन में बेटियों के हाथ। उतने ही कोमल, अशक्त। सोचते वृद्धावस्था और बाल्यावस्था में क्या फ़र्क होता है।
उनके हाथों की कोमलता भले ही हमें बेटियों के बचपन का अहसास कराती,पर उन हाथों का ठंडापन हमें अव्यक्त भय से भर देता। बेटियों और पिता के हाथों की कोमलता का अहसास एक होते हुए भी हमे अंतर साफ नजर आता। बचपन के हाथों का अहसास जीवन का अहसास है। आगत का अहसास है। नवजीवन और नवसृजन का अहसास है। वृद्धावस्था के हाथों की कोमलता का अहसास जाने का अहसास है। जीवन की समाप्ति का अहसास है। बुझती लौ का अहसास है। कुछ छूटते जाने का अहसास है।
उनके हाथों का कोमल स्पर्श हमें दो अलग अलग एहसासों से एक साथ भर देता। उनके हाथों की कोमलता हमारे अंतर्मन को तरलता से भर देती। वो प्यार के सोते सी फूट पड़ती। लेकिन उनके हाथों का ठंडापन भय से शुष्क कर देता। अथाह पीड़ा से भर देता।
एक ऐसे व्यक्ति को जो हमारे लिए शक्ति का पर्याय हो। जीवन का संबल हो। जिसकी छत्रछाया में खुद को महफूज़ समझते रहे हो, जो हमारे लिए साहस का पुंज रहा हो,उसे इस कदर अशक्त देखकर आत्मा चीत्कार ना कर उठे तो और क्या करे। जिन हाथों पर कभी झूला झूले हों, जिन हाथों से जीवन का संगीत सुना हो,उन हाथों से मृत्यु राग सुनते हुए मन दुख छालों से ना भर जाता तो और क्या होता।
इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है जिन हाथों से मार खाने में कभी आप डरते हों आज उन हाथों से मार खाने की इच्छा जाग जाए। कैसे अशक्त हो गए होंगे वे हाथ।
अब पिता की हालत गंभीर होती जा रही थी। हम उन्हें रोज मृत्यु के थोड़ा और करीब जाते देख रहे थे। इससे भयावह अहसास और क्या हो सकता था। अंततः उन्हें अस्पताल में दाखिल करना पड़ा। डॉक्टर का हर आश्वासन उनकी आगत मृत्यु का पैगाम होता। हम उन्हें देहरादून से मेरठ ले आए। वे अक्सर कहा करते उन्हें उनकी जन्मभूमि ही ले जाया जाए। यहां तीन दिन बाद 11 अक्टूबर 2021 को एक जीवन की डोर टूट गई। नियति का एक जीवन चक्र पूर्ण हुआ। पिता पूर्ण हुए। एक आत्मा शरीर के बंधन से मुक्त हुई। शरीर अपनी माटी से जा मिला।
दुख दुख होता है। समय उनका सबसे बड़ा मलहम होता है। दुख मिट जाते हैं। पर कोई कोई दुख जीवन में एक ऐसा अभाव भर देता है जिसे कभी भी,कोई भी कहां पूरा कर पाता है। पिता का जाना एक ऐसा ही दुख है।
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सच तो ये है कि पिता का जाना जीवन के एक हिस्से का अलग हो जाना है। जिंदगी के अमूल्य क्षणों में से कुछ का छूट जाना है। सपनों की एक शाख का सूख जाना है। खुशियों के एक हिस्से का अनंत में विलीन हो जाना है।
दरअसल पिता का जाना आपकी आत्मा पर पड़ा दुख का ऐसा अमिट निशान है जिसे अब कभी नहीं जाना है।