Tuesday, 19 May 2020

कामगारों का पलायन




आज लॉक डाउन हुए 56 दिन हो गए हैं। दिल्ली- उत्तरप्रदेश गाज़ीपुर बॉर्डर पर प्रवासी कामगारों की घर जाने के लिए भारी भीड़ जमा हो जाने की खबर है तो मुम्बई से भी ऐसी ही खबरें आ रही हैं। राजमार्गों पर मज़दूरों के पैदल जाने का क्रम टूट नहीं रहा है। आज दोपहर जिस बिल्डिंग में हम रहते हैं वहाँ40-50 मज़दूरों का समूह सड़क किनारे रुक गया है। उनमें से कुछ आगे बढ़ गए हैं। करीब 10-12 लोग रुक गए हैं जिसमें महिलाएं और बच्चे भी हैं। अभी भी बिल्कुल वैसे ही दृश्य हैं जैसे लॉक डाउन के शुरू होने पर थे। 

पूरी दुनिया में लगभग तीन लाख लोग कोरोना के शिकार हो गए हैं। कोई एक मृत्यु भी आपको गहरे अवसाद और पीड़ा से भर देती है। लेकिन पिछले 56 दिनों से जो चित्र प्रवासी मज़दूरों के अपने घर वापसी की जद्दोजहद से बने हैं वे कोविड 19 से हुई मौतों से कहीं ज़्यादा हृदय विदारक और मार्मिक हैं। जिन मज़दूरों को सड़कों पर समय के विरुद्ध संघर्ष करते देख रहे हैं वे मज़दूर नहीं बल्कि दुख,कष्ट,अभाव,बदइन्तजामी के साथ साथ आदमी की संघर्ष के साकार रूप हैं। निसन्देह ये पेट का सवाल तो है ही लेकिन उससे ज़्यादा ये अपने देस, अपने लोग और अपनी मिट्टी का प्रेम है जो व्यक्ति की चेतना में गहरे धंसी है।  

अब लॉक डाउन में ढिलाई बरती जाने लगी है। धीरे धीरे ही सही दफ्तर,बाज़ार और कल कारखाने भी खुलने लगे हैं। ज़िन्दगी आहिस्ता आहिस्ता पटरी पर आती लग रही है। सरकारें मज़दूरों को रुकने और रोजी रोटी के आश्वासन दे रही है।लेकिन उसके बावजूद अगर कामगार नहीं रुकना चाहते तो तो ये सिर्फ पेट का सवाल नहीं है। अपने जिस देस वे लौट जाना चाहते हैं वहीं पेट भरने के कौन से साधन धरे हैं। अगर वहां ये साधन और अवसर मुहैय्या होते तो फिर वे परदेस जाते ही क्यों। दरअसल भूख के साथ मृत्यु के साए के खौफ से सुरक्षा की आश्वस्ति उन्हें कोई भी सरकार दे ही नहीं सकती। गाढ़े से गाढ़े समय में भी जिस सुरक्षा का अहसास अपने देस,अपने लोगों और अपनी मिट्टी में होता है वो कहीं और संभव है ही नहीं।

आप माने या ना माने आज किसी भी और चीज़ से ज़्यादा जरूरत उन्हें उनके घर  पहुंचाने की है।





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