Saturday 29 December 2018

आर्ची शिलर के बहाने


आर्ची शिलर के बहाने
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आज जब समय खुद आवारा और बदचलन हो गया हो,दुष्टता उसके स्वभाव में रच बस गयी हो,वो खुद ही अच्छाई को मिटाने में व्यस्त हो और अच्छाई की आत्मा पर  दुःख के फफोले उगाकर फिर उन्हीं को अपनी बेहयाई के तीक्ष्ण नखों से फोड़कर तिल तिल तड़पा रहा हो और उसकी कराह पर खुश हो रहा हो,ऐसे में भी बहुत कुछ ऐसा होता है जो अच्छाई की आत्मा के घावों पर मलहम ही नहीं बल्कि उसके लिए संजीवनी बूटी होता है जिसके सहारे अच्छाई गिर गिरकर संभलती,खड़ी होती है और प्रकाश की तरह दिलों में उजास भर जाती है।

    और फिर अच्छाई का 'खेल' से बड़ा कौन साथी हो सकता है।खेल जो खुद ही सकारात्मकता का पर्याय है।खेल जो उत्साह,उमंग,उल्लास का प्रतीक हो।अब देखिए ना क्रिकेट मैदान पर ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों से ज़्यादा आक्रामक,घमंडी और बददिमाग कौन हो सकते हैं।मार्च में दक्षिण अफ्रीका के दौरे के तीसरे टेस्ट के दौरान उनके द्वारा की गई बॉल टेम्परिंग बताती है कि वे जीत के लिए किस हद तक जा सकते हैं।लेकिन वे खिलाड़ी केवल नौ महीने बाद ही बॉक्सिंग डे पर एक ऐसा अनोखा मार्मिक दृश्य रचते हैं जो बेहद खूबसूरत बन पड़ता है और बताता कि अच्छी मर नहीं सकती,खुद समय ही क्यों ना चाह ले।वे दिल के असाध्य रोग से पीड़ित सात साल  के  आर्ची शिलर की, जिसके कि अब तक 13 ऑपरेशन हो चुके हैं, ऑस्ट्रेलिया का कप्तान बनने की इच्छा को पूरा करने के लिए उसे अपना मानद सह कप्तान बनाते हैं और बाकायदा उसे 12वां खिलाड़ी बनाते हैं।

                कल दिन में भारत ये मैच जीत चुका होगा या जीतने के करीब होगा।ये जीत आर्ची की इच्छा के बहाने दुनिया भर के घोर अभावों और मुश्किलों में जी रहे बच्चों की इच्छा और जिजीविषा को समर्पित करना चाहिए।अगर ये टेस्ट भारत हार भी जाता तो कोई मलाल न होता।ऐसी दृश्य संरचना पर तो कई जीत कुर्बान की जा सकती हैं।। 
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दरअसल साल बीतते  बीतते भी एक ऐसा खूबसूरत दृश्य रचकर आश्वस्त करने की कोशिश करता है कि खुद पर और समय पर भरोसा करो। 


Sunday 23 December 2018

खेल 2018





खेल 2018 
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समय साल भर चलते चलते दिसम्बर तक आते आते  ठहरा सा प्रतीत होता है। और निसंदेह ये ठहराव हमें इस बात का मौक़ा देता है कि हम भी समय के इस प्रवाह में कुछ पल रुकें, पीछे मुड़ें और देखें कि इस बीते एक साल में दुनिया के खेल और खेलों की दुनिया कैसी रही। दुनिया के खेल की बात फिर कभी। आज बात खेलों की दुनिया की।

 बीते साल का सबसे बड़ा खेल आयोजन रहा विश्व के सबसे लोकप्रिय खेल की सबसे लोकप्रिय प्रतियोगिता यानि विश्व कप फुटबॉल का। ये बहुत ही सफल आयोजन था जिसमें पहले दिन से आख़िरी दिन तक कड़ी प्रतिस्पर्धा और रोमांच बना रहा। प्रतिबंधित दवाईयों के सेवन और अपने खिलाड़ियों पर प्रतिबन्ध के चलते विश्वसनीयता के संकट से और कुछ हद तक आर्थिक संकट से जूझते रूस ने इस प्रतियोगिता का सबसे सफल आयोजन ही नहीं किया बल्कि अपने शानदार खेल से भी सबको चकित किया। एक तरफ बड़ी-बड़ी दिग्गज टीमें एक के बाद एक ढेर होती रहीं,तो दूसरी ओर कम जानी मानी टीमों क्रोशिया और रूस ने शानदार खेल दिखाया। रूस का ड्रीम रन अंततः क्वार्टर फाइनल में क्रोशिया ने ख़त्म किया और क्रोशिया का स्वप्न सरीखा सफर फाइनल में फ्रांस ने 4-2 से हराकर ख़त्म किया। क्रोशिया के कप्तान और मिडफील्डर लूका मौद्रिच ने शानदार खेल से  अपनी टीम को फाइनल तक ही नहीं पहुँचाया,बल्कि बाद में 'बैलन डी ओर' खिताब भी जीता। इसे जीत कर उन्होंने पिछले दस सालों से इस खिताब पर चले आ रहे रोनाल्डो और मैसी के एकाधिकार को ही ख़त्म नहीं किया बल्कि उससे उत्पन्न एकरसता को भी तोड़ा।उधर 
टेनिस में फेबुलस फॉर में से तीन फेडरर,नडाल और जोकोविच का जलवा इस साल भी कायम रहा।जबकि एंडी मरे चोट के चलते कुछ खास नहीं कर सके। ऑस्ट्रेलियन ओपन जीतकर फेडरर ने अपने ग्रैंड स्लैम खिताबों की संख्या अविश्वसनीय 20 तक पहुंचाई तो नडाल के  लाल बजरी पर 11वां खिताब जीतने के अश्वमेध यज्ञ को कोई नहीं रोक सका। उसके बाद विम्बलडन और अमेरिकन ओपन खिताब जीतकर जोकोविच ने शानदार वापसी की। महिलाओं में किसी का एकाधिकार नहीं रहा।ऑस्ट्रेलियन ओपन कैरोलिना वोज़नियाकी,फ्रेंच ओपन सिमोना हालेप,विम्बलडन अंजलीक करबर और अमेरिकन ओपन ओसाका ने जीता। वेटेरन सेरेना की अमेरिकन ओपन से वापसी हुई । फाइनल में जापान की नोआमी ओसाका के हाथों हार और इस मैच में सेरेना का रैफरी से विवाद महिला टेनिस की इस साल की सबसे बड़ी सुर्खियां रहीं। हॉकी में विश्व को नया चैम्पियन मिला। भुबनेश्वर में आयोजित विश्व कप में बेल्जियम ने ऑस्ट्रेलिया की चुनौती को ध्वस्त किया। 
इस साल दो और बड़ी प्रतियोगिताओं का आयोजन हुआ। ऑस्ट्रेलिया के गोल्ड कोस्ट में 21वें राष्ट्रमंडलीय खेल संपन्न हुए। इसमें भारत ने अच्छा प्रदर्शन किया और मेज़बान ऑस्ट्रेलिया तथा इंगलैंड के बाद तीसरा स्थान प्राप्त किया। उसने कुल 66 पदक जीते जिसमें 26 स्वर्ण,20 रजत और इतने ही कांस्य पदक शामिल थे। यहां पर भारतीय खिलाड़ियों ने टेबिल टेनिस,बैडमिंटन,शूटिंग,वेटलिफ्टिंग और कुश्ती में शानदार प्रदर्शन किया।
ओलम्पिक के बाद सबसे बड़ी प्रतियोगिता एशियाई खेल इस बार इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता और पालेमबांग में संपन्न हुए। ये इन खेलों का 18 वां संस्करण था। इसमें चीन का दबदबा कायम रहा। भारत कुल 69 पदक जीत कर आठवें स्थान पर रहा। इसमें 15 स्वर्ण,24 रजत और 30 कांसे के तमगे शामिल थे।  इन खेलों का भारत का ये अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। इससे पूर्व सर्वाधिक 65 पदक इंचियोन में जीते थे। यहां पर सबसे शानदार प्रदर्शन किया भारतीय एथलीटों ने। उन्होंने भारत के लिए 7स्वर्ण,10रजत और 2 कांसे के पदक जीते। तमाम प्रयासों के बावजूद पुरुष हॉकी में राष्ट्रमंडलीय खेलों वाला लचर प्रदर्शन यहां भी जारी रहा और केवल कांसे का  पदक जीत सके। हाँ महिलाओं ने रजत पदक जीत कर कुछ लाज रखी।भारत को सबसे बड़ा झटका कबड्डी में लगा। ईरान और कोरिया ने भारत की बादशाहत ख़त्म की। पुरुष टीम को कांसे और महिला टीम को रजत पदक से संतोष करना पड़ा।  16 साल के सौरभ चौधरी से लेकर 60 साल के प्रणब बर्धन ने पदक जीतकर बताया कि सफलता उम्र की मोहताज नहीं होती। 

राष्ट्रीय खेल हॉकी के पुराने गौरव को पाने के प्रयास इस साल भी परवान नहीं चढ़े । विदेशी कोच के स्थान पर देसी कोच हरेन्दर सिंह भी कोई करिश्मा नहीं दिखा सके। ब्रेडा, हालैंड में आयोजित चैंपियंस ट्रॉफी में फाइनल तक पहुँच कुछ उम्मीदें ज़रूर जगाई थीं, लेकिन राष्ट्रमंडलीय और एशियाई खेलों में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद दिसम्बर में भुबनेश्वर में आयोजित विश्व कप में क्वार्टर फाइनल में हॉलैंड के हाथों हार ने उम्मीदों को नाउम्मीदी में बदल दिया। मेज़बान होने के नाते 43 साल बाद विश्व कप जीतने की उम्मीद मृग मरीचिका साबित हुई। फुटबॉल में कोई नयी ज़मीन नहीं मिली। बस ये संतोष किया जा सकता है कि फीफा रैंकिंग 100  के अंदर बनी रही। 
ये साल क्रिकेट में कुछ घटनाओं के लिए विशेष रूप से याद किया जाएगा। एक, ऑस्ट्रेलिया द्वारा इस साल मार्च में साउथ अफ्रीका के दौरे के तीसरे टेस्ट मैच में की गयी बॉल टेंपरिंग के लिए। यूँ तो क्रिकेट में बॉल से छेड़खानी कोई नई बात नहीं है। पर इस बार इस विवाद ने तूल पकड़ा। ऑस्ट्रेलिआई तेज गेंदबाज़ कैमरून बेनक्राफ्ट को सैंड पेपर से गेंद को रगड़ते हुए कमरे ने पकड़ लिया। अंतत इसके लिए बेनक्राफ्ट के अलावा कप्तान स्मिथ और उपकप्तान  वार्नर को दोषी पाया गया। बेन पर नौ महीने का व स्मिथ तथा वार्नर पर एक साल का प्रतिबन्ध लगा। कोच डेरेन लेहमन ने भी इस्तीफा दिया।दो, मेहमान टीम वेस्टइंडीज़ के खिलाफ नवंबर में खेले गए दूसरे टेस्ट मैच में बांग्लादेश ने टीम में एक भी तेज गेंदबाज़ को शामिल नहीं किया और चार स्पिन गेंदबाज़ों के साथ मैदान में उतरी। कई लोगों ने कहा ये तेज गेंदबाज़ी का अवसान का आरम्भ है। तीन,ये साल आतंकवाद से जूझ रहे अफगानिस्तान के उभार के लिए जाना जाएगा। अफगानिस्तान टीम ने  अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में जानदार प्रदर्शन किया। उसके खिलाड़ी आईपीएल में भी खूब चमके। उसे टेस्ट टीम का दर्ज़ा मिला और भारत के साथ अपना पहला टेस्ट मैच खेला। हांलांकि उस मैच में उसका प्रदर्शन बहुत साधारण रहा और तीन दिन में ही पारी से हार गई। भारत में ये साल निसंदेह कोहली के नाम रहा।उन्होंने मैदान में शानदार  प्रदर्शन किया,पर उससे कहीं अधिक चर्चा में अपने ट्वीट के कारण रहे। एक फैन के ट्वीट 'कोहली से ज़्यादा विदेशी खिलाडियों का खेल देखने में आनंद आता है' के जवाब में कहा 'ऐसे लोगों को देश छोड़ चाहिए। कुल मिलाकर भारत का प्रदर्शन अच्छा रहा। साल का आरम्भ में भारतीय टीम ने दक्षिण अफ्रीका दौरे से किया। टेस्ट सीरीज 2 -1  से हारी पर एक दिवसीय सीरीज 5 -1 से और टी-20 सीरीज 2-1 जीती। इसके बाद श्रीलंका में त्रिकोणीय टी-20 सीरीज जीती। भारत ने इंग्लैंड दौरे का भी टी-20 सीरीज 2-1 से जीतकर शानदार आग़ाज़ किया पर लय बरकरार नहीं रख सके और एक दिवसीय 1-2 से और टेस्ट सीरीज 1-4 से हार गए। इधर ऑस्ट्रेलिया का दौरा भी पहला टेस्ट जीतकर किया हालांकि दूसरा टेस्ट हार गए। युवाओं ने ऑस्ट्रेलिया को 8 विकेट से हराकर चौथी बार अंडर 19 विश्वकप जीता तो महिलाओं ने वेस्ट इंडीज में आयोजित टी 20 विश्व कप में सेमीफाइनल तक का सफर तय कर अच्छे भविष्य के संकेत दिए। यहीं पर भारतीय कप्तान हरमनप्रीत कौर ने 51 गेंदों में 103 बनाकर किसी भारतीय खिलाड़ी द्वारा टी-20  का पहला और कुल तीसरा शतक  लगाया। सेमीफाइनल में इंग्लैंड के हाथों पराजय और इस  मिताली राज को बाहर रखने से टीम के कोच पोवार और मिताली का विवाद शुरू हुआ जिसका पटाक्षेप पोवार की जगह डब्ल्यू वी रमन को कोच बनाए जाने से हुआ।भारतीय क्रिकेट भी 'मी टू ' अभियान से अछूता नहीं रहा और बीसीसीआई के सीईओ  राहुल जौहरी इसकी जद में आए। भारतीय खेलों का सर्वोच्च पुरस्कार 'राजीव गाँधी खेल रत्न पुरस्कार' इस बार विराट कोहली और भारोत्तोलक एस मीराबाई चानू को मिला। इस बार भी ये विवाद से परे नहीं रहे। पहलवान बजरंग पूनिया इस के सबसे प्रबल दावेदार थे पर उन्हें नहीं मिला और इसकी कई हलकों से विरोध की आवाज़ उठी। 
निसंदेह, ये साल भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ियों का रहा जिन्होंने साल भर शानदार प्रदर्शन कर चीन जापान इंडोनेशिया कर कोरियाई खिलाड़ियों को ज़ोरदार टक्कर ही नहीं दी बल्कि उनके वर्चस्व में सेंध भी लगाई। जूनियर खिलाड़ी लक्ष्य सेन ने जूनियर एशियाई चैम्पियनशिप जीती और विश्व कप में उपविजेता रहे। पी वी सिंधु और साइना नेहवाल ने शानदार खेल दिखाया। साइना ने कामनवेल्थ में गोल्ड और एशियाड में ब्रॉन्ज़ मैडल जीता तो सिंधु ने विश्व चैंपियनशिप के अलावा कामनवेल्थ और एशियाड खेलों,मलेशिया ओपन और इंडियन ओपन के फाइनल तक पहुंची। साल का अंत उन्होंने बीडब्ल्यूएफ वर्ल्ड टूर में नोजोमी ओकुहारा को हराकर किया। इसमें विश्व के श्रेष्ठ आठ खिलाड़ी भाग लेते हैं। ये टूर्नामेंट जीतने वाली वे पहली भारतीय खिलाड़ी हैं। दरअसल साइना नेहवाल और पीवी सिंधु एक ही शृंखला की दो कड़ी हैं। साइना ने भारतीय महिला बैडमिंटन को जिन उंचाईयों तक पहुंचाया उसे सिंधु पूर्णता दे रही हैं। इस प्रतियोगिता में पुरुषों में समीर वर्मा प्रतिनिधित्व कर रहे थे और उन्होंने भी यहां शानदार खेल दिखाया और सेमी फाइनल तक का सफर तय किया। साल के अंत में दो महत्वपूर्ण खिलाड़ियों ने खेल को अलविदा कहा।
तीन सौ से ज़्यादा अंतर्राष्ट्रीय मैच खेलने वाले दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मिडफीडर और सेंटर हाफ माने जाने वाले सरदार सिंह ने हॉकी को अलविदा कहा तो बहुत ही शानदार बांये हत्थे आरंभिक बल्लेबाज़ गौतम गंभीर ने क्रिकेट को अलविदा कहा।कई विदेशी खिलाड़ियों ने भी खेल को अलविदा कहा।निसंदेह क्रिकेट प्रेमी ए बी डीविलियर्स और एलिस्टर कुक के बल्ले की करामात देखने से वंचित हुए तो फुटबॉल प्रेमी आंद्रेज़ इनेस्ता के पैरों के जादू से महरूम। गति के दीवाने फर्नांडो अलोंसो ने फार्मूला वन से विदाई ली तो जलपरी मिसी फ्रैंकलिन तरणताल से बाहर आ गयी।निसंदेह आने वाले साल में इन खिलाड़ियों की मैदान में बहुत कमी खलेगी।

क्रिकेट हॉकी बैडमिंटन जैसे लोकप्रिय खेलों की चमक में कुछ खिलाड़ियों की बड़ी उपलब्धियां भी सुर्खियां नहीं बटोर पातीं। पंकज आडवाणी की उपलब्धियां बिलकुल ऐसी ही हैं। उन्होंने इस साल बर्मा में आयोजित बिलियर्ड्स चैम्पियन में दो फॉर्मेट में विश्व चैंपियनशिप जीत कर अपने विश्व खिताबों की संख्या 21 तक पहुंचाई। खेलों की कोई भी बात मैरी कॉम की उपलब्धियों के उल्लेख के बिना अधूरी रहेगी। तीन बच्चों की माँ और 35 साल की मैरी कॉम ने इस साल ना केवल कामनवेल्थ खेलों में स्वर्ण पदक जीता बल्कि दिल्ली में आयोजित विश्व बॉक्सिंग चैंपियनशिप में अपना छठा स्वर्ण और कुल मिलाकर सातवां पदक जीता।वे अभी भी आगामी ओलम्पिक में भाग लेने के प्रति आश्वस्त हैं। उन्होंने दिखाया कि जिस उम्र में अपने पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के चलते अपनी इच्छाओं और योग्यताओं को महिलाएं घर की किसी खूंटी पर टांग देती हैं उस उम्र में भी इच्छा शक्ति और मेहनत के बल पर दुनिया जीती जा सकती है। 
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कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हॉकी फुटबॉल जैसे दो एक खेलों को छोड़कर खेलों में भारतीय खिलाड़ियों का प्रदर्शन बढ़िया रहा और 2018 का प्रदर्शन 2019 के लिए  जगाता है। 



























Friday 14 December 2018

मृग मरीचिका



मृग मरीचिका
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इंग्लैंड ने विश्व कप फुटबॉल 1966 में जीता था।उसके बाद ये खिताब उसके लिए मृग मरीचिका बन गया।ठीक वैसे ही भारत ने हॉकी का विश्व कप 1975 में जीता था और उसके बाद भारत के लिए इस खिताब की चाहत किसी बच्चे की चाँद को पाने की चाहत सी हो गयी।मेज़बान होने के नाते जो विश्व खिताब इस बार कुछ करीब लग रहा था वो दरअसल मृगमरीचिका ही था।
आज शाम जब भुबनेश्वर के कलिंगा स्टेडियम में भारत की टीम डच टीम के विरुद्ध अपना क्वार्टर फाइनल मैच खेलने उतरी तो उम्मीद थी कि गहराती शाम के अन्धकार को भारतीय टीम अपनी जीत से रोशनी में तब्दील कर देगी और 43 सालों से जीत के सूखे को  कम से कम कुछ आर्द्रता से भर देगी।पर ऐसा हुआ नहीं।उलटे  गहराती शाम का ये अन्धेरा हार की निराशा से कुछ और गहरा गया और 1975 के कारनामे को दोहराए जाने इंतज़ार कुछ और लंबा हो गया।
निसंदेह भारत ने शानदार खेल दिखाया।उसने 57 प्रतिशत बॉल पर नियंत्रण रखा।12वें मिनट में आकाशदीप ने गोल करके उम्मीद की ज्योति बाली थी वो टूटे तारे की चमक सी क्षणिक साबित हुई।15वे मिनट में ही थियरी ब्रिंकमन ने गोल उतार दिया।अगले दो क्वार्टर में कई मौके बढ़त बनाने के भारत ने गवाएं और खेल बराबरी पर छूटा।लेकिन चौथे क्वार्टर में मिंक वान डेर ने गोल करके भारत के भाग्य को सील कर दिया।
भारत बिला शक बढ़िया खेला।पर कई बार बढ़िया खेल नहीं बल्कि 'जीत से कुछ भी कम नहीं' की ज़रुरत होती है।आज जब जीत की सबसे ज़्यादा चाहना थी तब हार हाथ आई।
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हार की इस निराशा से उबरने के लिए फिलहाल सिंधु की विश्व नंबर एक ताई जू यिंग पर 14-21,21-16,21-18से जीत को सेलिब्रेट करें।
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गुड लुक नेक्स्ट टाइम टीम इंडिया।

Sunday 9 December 2018

'रिवेंज'





'रिवेंज'
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लूका मोद्रिच को 2018 का 'बैलन डी ओर' मिलना विधि के सबसे खूबसूरत विधानों में से एक या मधुरतम 'रिवेंज' है। ये पुरस्कार उन्हें 'पेरिस' में फुटबॉल फ्रांस की पत्रिका द्वारा दिया जा रहा था जिसकी टीम ने कुछ समय पहले ही मोद्रिच की सबसे बड़ी चाहत को किरिच किरिच बिखेर दिया था। ये भी क्या विडम्बना है मोद्रिच ने ऐसा करते हुए दो फ्रेंच खिलाड़ियों अंतोनी ग्रीज़मान और किलियन बापे को पीछे छोड़ा। 


दरअसल जब वे इस खिताब को जीत रहे थे तो वे किसी फुटबॉलर के सबसे खूबसूरत सपनों में से एक को साकार ही नहीं कर रहे थे बल्कि वे उस एकरसता को भी ख़त्म कर रहे थे जो पिछले दस सालों से इस खिताब को केवल दो खिलाड़ियों लियोनेस मेस्सी और क्रिश्चियानो रोनाल्डो द्वारा जीतने से व्याप्त चुकी थी। 

इस साल का सर्वश्रेष्ठ युवा फुटबॉलर का कोपा पुरस्कार फ्रांस के किलियन बापे को मिला।मोद्रिच और बापे को इन पुरस्कारों से नवाजा जाना दरअसल सिर्फ खिलाड़ी की खेल योग्यता को सम्मानित करना भर नहीं है बल्कि मानवीय जिजीविषा और विपरीत परिस्थितियों और जीवन में आने वाली दुर्दमनीय कठिनाईयों से संघर्ष करने के अदम्य साहस और ज़ज़्बे को सम्मानित करना भी है



Thursday 29 November 2018



सुख दुःख से बनी
इस उबड़ खाबड़ दुनिया के
ठीक ऊपर
ख्वाबों  के आसमान में
खुशियों का जो चाँद लटका है
वो 
हाड तोड़ मेहनत की डोर के सहारे
शर्मसार सा होकर
इतना सा नीचे आए
कि हमारे भीतर कुछ उजास हो
कि औरों के हिस्से के दुःख का एक टुकड़ा
हमारा हो और
हमारे हिस्से के सुख का
एक टुकड़ा औरों का
कि हमारे भीतर का जानवर कुछ मर सके 
हम कुछ थोड़ा और मानुस बन सकें। 

Monday 26 November 2018

मैरी कॉम


 मैरी कॉम

विश्व चैंपियनशिप में 1 चांदी और 6 सोने के तमग़े जीतने,अपने मेल काउंटरपार्ट क्यूबा के महानतम मुक्केबाज़ फेलिक्स सवोना की  बराबरी करने और एक शानदार बायोपिक अपने खाते में दर्ज़ कराने जैसी असाधारण उपलब्धियों के बाद भी मैरी कॉम आधी आबादी की खेल दुनिया की सानिया या सिंधु या गुट्टा या मिताली या फिर साक्षी या फोगट बहनों जैसी ग्लैमरस आइकॉन नहीं बन पायी हैं। इसका कारण शायद उनकी सहजता,सरलता और साधारण चेहरा मोहरा बाजार और मीडिया के लिए उतना सेलेबल ना होना हो पर अदम्य उत्साह,इच्छा शक्ति,धैर्य,लगन और परिश्रम से बना उनका खूबसूरत सहज और सरल व्यक्तित्व दरअसल भारतीय समाज के आधे हिस्से की खेल दुनिया का सबसे सच्चा और वास्तविक प्रतिनिधि है,उसका है। 
           उन्होंने 2001 में विश्व प्रतियोगिता में पहला रजत पदक जीता। उसके बाद 2002,2005 2006,2008 के बाद 27 साल की उम्र में 2010 में अपना पाँचवा स्वर्ण पदक जीता। उसके 8 साल बाद अब 2018 में 35 वर्ष की उम्र में अपना छठा सोने का तमगा हासिल कर ये विशिष्ट उपलब्धि हासिल की। इस 18 साल के खेल जीवन में विश्व चैम्पियनशिप के अलावा ओलम्पिक,एशियाड और कॉमनवेल्थ खेलों में भी तमगे हासिल किए। 2002 की विश्व मुक्केबाज़ी चैम्पियनशिप में भाग लेने वाले खिलाड़ियों में वे अकेली हैं जो अभी भी रिंग के भीतर सक्रिय हैं।इतना ही नहीं वे 2020 के ओलम्पिक में भाग लेने के लिए भी आश्वस्त दिखती हैं। ये दिखाता है कि वे किस मिट्टी की बनी हैं। 
 35 साल की उम्र में तीन बच्चों की माँ होकर भी ये असाधारण उपलब्धि हासिल कर उन्होंने दिखाया कि जिस उम्र में महिलाएं अपने परिवार की खातिर अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को पुराने कपड़ों की तरह खूंटी पर टांग देती हैं और अपनी प्रतिभा तथा योग्यता को किसी बक्से में छुपाए गहनों की पोटली की तरह गाढ़े समय के लिए अपने अवचेतन के भीतरी तहों में छुपा देती हैं उस समय भी अपनी इच्छा शक्ति मेहनत और जज़्बे के बुते कोई भी दुनिया जीती जा सकती है। 
    दरअसल जब वे अपने मजबूत हाथों से प्रहार करती हैं तो वे केवल अपने प्रतिद्वंदी पर ही प्रहार नहीं करती बल्कि अपनी सफलता के रास्ते में आने वाले हर बाधा और चुनौती पर प्रहार करती हैं और उसे भी परास्त करती चलती हैं फिर वो बाधा उम्र की हो समाज की हो या अभावों की हो।विपरीत परिस्थितियों में व्यक्ति उन कठिनाइयों को ही अपनी ताक़त और प्रेरणा बना लेता है। ये संयोग ही है कि उन्होंने अपने लिए रिंग को चुना जिसमे चारों और रस्सियां होती हैं। ये वे बंधन होते हैं जिनसे मुक्केबाज़ बाहर नहीं जा सकता है और निश्चय ही इन रस्सियों को वे अपने जीवन के बंधनों की तरह देखती रही होंगी और उन्हीं को अपनी ताकत बना और उनसे प्रेरणा लेकर उन बंधनों से मुक्त होने के लिए विपक्षी पर ज़ोरदार प्रहार करती होंगी और विजयी होकर निकलती होंगी। 
भले  ही वे सेलेबल कोहलियों या धोनियों की तरह सेलेबल ना हों भर सही मायने में पंकज आडवाणी और मैरी कॉम जैसे खिलाड़ियों की उपलब्धियां उनसे बीस  ही ठहरती हैं। 
 मैरी कॉम को इस असाधारण उपलब्धि के लिए सलाम! 

Tuesday 30 October 2018

आखिर नाम में ही तो सब कुछ है


आखिर नाम में ही तो सब कुछ है 
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किसी जगह का नाम बदलना मेरे लिए किसी बड़ी परिघटना की तरह नहीं होता था। ऐसा होना महज़ शब्द भण्डार में एक और संज्ञा का बढ़ जाना भर था या फिर सामान्य ज्ञान में एक और सवाल का बढ़ जाना भर। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते वक़्त बहुत सारी जगहों के पुराने-नए नाम याद किया करते थे। आखिर किसी जगह के नाम बदलने की परम्परा नयी नहीं थी। देश में ही नहीं विदेशों में भी। तमाम शहरों और जगहों के नाम बदले। क्या फर्क पड़ा। सिवाय इसके कि आपके सामान्य ज्ञान में एक और शब्द का इजाफा हुआ कि बम्बई अब मुंबई हो गया या फिर मद्रास चेन्नई। यहां तक कि जब मुग़लसराय दीन दयाल उपाध्याय नगर हुआ तब भी ये बदलाव महज एक नाम का बदलाव भर था।
                           लेकिन अब जब इस महबूब शहर का नाम बदल गया है। 'इलाहाबाद' जब 'प्रयागराज' हो गया है,तो ऐसा क्यूँ नहीं लगता कि ये भी एक शहर के नाम का सिर्फ एक  बदलाव भर है। निसंदेह प्रयागराज सुन्दर नाम है। बहुत से लोग पहले भी इस नाम का प्रयोग करते रहे हैं। तो क्या फर्क है किसी और जगह के  और इस शहर के नाम बदल जाने में। 
                            दरअसल ये फ़र्क़ जगह का है। जिन जगहों पर आप जीते हैं और जिन जगहों को आप जीते हैं,उन जगहों के नाम बदलने पर फ़र्क़ महसूस होता है और खूब होता है। ये वो जगहें होती हैं जिनमें आप रचे बसे होते हैं और वे आप में रची बसी होती हैं। उन जगहों की पहचान उनके नाम होते हैं और उन जगहों की तरह वे नाम भी आपके भीतर तक गहरे पैठे होते हैं। और इन्हें नयी पहचान देना निसंदेह दुष्कर होता है।
                      जिन जगहों को मैंने शिद्दत से जिया,उनमें से तीन ऐसी जगहें थीं जिनके नाम बदले। पहला मेरा गांव।सरकारी दस्तावेज़ों में दर्ज नाम 'सुंदरा उर्फ़ पूठा'। जो 'पूठा' के नाम से जाना जाता है और बोलचाल में 'पुट्ठा'।किसी भी गाँव की तरह आम गाँव। कच्चे पक्के घर। बड़े बड़े घेर और उसमें ढेर सारे डंगर। ऐसा गांव जिसकी अलमस्त सुबहें खेत दिशा जाती महिलाओं की बातों की गुनगुनाहट,खेत जाते बैलों और हलों की सरसराहट,हाथ में तख्ती और पट्टी लिए बच्चों की खिलखिलाहट और उससे मेल खाती चिड़ियों की चहचहाअट से गुलज़ार रहती। उनींदी सी अलसाई दोपहरें जिसमें नीम के पेड़ों तले बैठे ताश खेलते बेफिक्र किसानों की आवाज़ों की खनखनाहट खलल डालती। सुरमई शामें खुद किसानों के गले से या फिर ट्रांजिस्टर से बजती रागनियों से महकती। और निस्तब्ध नीरव रातें दादुर की टरटराहट,झींगुरों की भनभनाहट और सियारों के रुदन से बेचैन होती और रह रह कर डंगरों के गले में बंधी घंटियों की आवाजों से गमकती।लेकिन जल्द ही विकास की आंधी सब कुछ बहा ले गयी।नाम भी और पहचान भी।शहर सुरसा के मुख की तरह विस्तारित हुआ और आस पास के गॉवों को ग्रसता गया। शहर ने गॉव को चारों और से घेर लिया। उसका जीवन रस चूस लिया। और गला घोंट दिया। ज़मीनों के बदले लोगों को मुआवज़ा मिला। अब घर दबड़ों में बदल गए। हल,बैल और ट्रैक्टरों की जगह मोटर साइकिलों और कारों ने ले ली। अब सुबहें और दोपहरें वाहनों और उनके हॉर्न की चीखों के शोर से आहत होने लगीं तो शामें और रातें रागनियों की जगह आवारा कुत्तों के भोंकने और शराबियों की गालियों से कराहने लगीं।गाँव को नयी पहचान मिली 'वेदव्यास पुरी'।पर आज भी उसकी पहचान 'पुट्ठा'से ही होती है और दिल भी 'वेदव्यास पुरी' में 'पुट्ठा' ही ढूंढता है।
दूसरी जगह एटा जिले की तहसील कासगंज। इसमें कभी रहा नहीं। फिर भी जीवन का अभिन्न हिस्सा। यहां सैकड़ों बार खेलने गया।क्रिकेट पहला प्यार। यही जगह इस प्यार के अलगाव की वजह बनी। कैच पकड़ते समय सीधे हाथ की माध्यिका में चोट लगी।वो उँगली आज भी कुछ टेढी है।क्रिकेट छूट गया और कासगंज याद रह गया। ये जलीस भाई की वजह से भी याद है। उस समय वेस्टइंडीज के तेज गेंदबाज़ों का खौफ हुआ करता था और एटा के क्रिकेट सर्किल में जलीस भाई का।कहते हैं जलीस उस समय के राष्ट्रीय गेंदबाजों जितनी तेज गेंद  फेंकते थे।वे यू पी टीम के प्रबल दावेदार थे।पर उनका कोई माई बाप नहीं था।चयन नहीं हो पाया।उनकी गेंद पर बल्ले के किनारे से लगकर थर्ड मैन और और गली के ऊपर से कई बार छक्के लगते देखे थे और कई बार खुद भी उनकी गेंदों को कान के पास से सरसराते हुए गुज़रते देखा था। उस कहर बरपाती तेज गेंदबाजी का खौफ आज भी दिमाग पर तारी है।भले ही वेस्ट इंडीज़ की पेस बैटरी का खौफ ना देखा हो पर जलीस की गेंदबाजी के उस खौफ से उसका अंदाज़ लगाना मुश्किल भी नहीं। उसके बहुत बाद भी एटा से फरीदपुर जाते हुए कासगंज की सडकों से ही गुज़रते थे।आज भी स्मृतियों में वो शहर कासगंज के नाम से अंकित है। उसका बदला नाम अभी गूगल से जाना काशीराम नगर।
 और अब इलाहाबाद। सपनों का, ख़्वाबों का, सपनों को देखने का और उन्हें हक़ीक़त में बदलने का जो शहर था उसका नाम इलाहाबाद ही था प्रयाग नहीं।जिस सपनीले शहर को सबसे पहले किशोरावस्था में धर्मवीर भारती की नज़र से देखा था वो शहर इलाहाबाद ही था।जिस शहर में ज़िन्दगी के 35 सबसे अहम साल जिए और जिस शहर को 35 साल जिया वो कोई और नहीं इलाहाबाद ही था । 25 पैसे प्रति घंटे की किराए की साइकिल से जिस शहर की तमाम गलियों को दिन रात गहाते हुए मन पर स्मृतियों  की जो अमिट पगडंडी बनी है उस शहर का नाम कुछ और नहीं इलाहाबाद ही है। जिस शहर ने जीवन को जीने की सलाहियत दी और सलाहियत से जीवन जीने दिया वो इलाहाबाद ही है। वो शहर जो आपके दुःख दर्द,सुख दुःख का भागीदार रहा हो,वो शहर जिसने आपको मनुष्य बनने की प्रक्रिया में रत किया हो,वो शहर जिसने मुहब्बत करनी सिखाई हो,वो शहर जिसने आपको आजीविका दी हो,वो शहर जिसमें आपका एक खूबसूरत परिवार बना हो,वो शहर जिसने आपको बेपनाह मोहब्बत करने वाले दोस्त दिए हों,वो शहर इलाहाबाद ही है। गर वो शहर आपकी रग रग ना बस जाता तो क्या होता। उस शहर की पहचान आपके भीतर कहीं गहरे ना पैठ जाती तो क्या होता। 
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अर्से पहले मुझे भी शेक्सपियर की जूलियट की तरह लगता था कि 'नाम में क्या रखा है'। पर अब नहीं। बनिस्बत अब शायर अनजान का गीत याद आता है 'प्यार कागज़ पे लिखी कहानी नहीं'।दरअसल किसी शहर का नाम दस्तावेज़ों में दर्ज़ एक निर्जीव शब्द भर नहीं कि जब चाहो बदल दो बल्कि शहर में जीने वालों और शहर को जीने वालों की संवेदनाओं और संवेगों के रस में पगी सजीव संज्ञा है।  
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बिला शक प्रयागराज एक खूबसूरत नाम है। उसे चाहने वालों को शहर का ये नया नाम मुबारक और हमें अपना !



Sunday 14 October 2018

एक वो और एक लॉन



एक वो और एक लॉन 

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ये शहर की एक पॉश लोकैलिटी है। इसे कभी अंग्रेज साहबों की रिहायश के लिए बसाया गया था। यहाँ बहुत सी बड़ी बड़ी पुरानी कोठियां हैं।ये कोठियाँ कई कई एकड़ में फ़ैली हैं। ज़्यादातर कोठियां रखरखाव के अभाव में भुतहा जंगल सी प्रतीत होती हैं। हर कोठी में सामने एक भरा पूरा  लॉन है। सामने नीरव शांत सड़कें। सड़क के दोनों और घने छायादार वृक्ष। इन्हीं कोठियों में से एक का बहुत ही खूबसूरत सा 'लॉन' है । उस कोठी की चहारदीवारी बहुत ऊँची नहीं हैं। सड़क से आते जाते ये 'लॉन' सबको दिखाई देता है।


इस 'लॉन' में यूँ तो उस कोठी में रहने वाले लोग अक्सर ही दिखाई देते हैं। खासकर शाम के समय। कई बार उस कोठी में आने वाले लोग भी मेजबानों के साथ बैठे दिखाई देते हैं। कभी कभार बच्चे भी खेलते खालते दीख जाते हैं । पर एक ऐसा व्यक्ति है जो सुबह से शाम तक उस लॉन के किसी ना किसी कोने में हमेशा दिखाई देता है। ये 'लॉन' और 'वो' व्यक्ति दोनों बरसों से ऐसे ही दीख रहे हैं। एक दूसरे के साथ। एक दूसरे से गुंथे हुए। एक दूसरे में समाए हुए। ऐसा लगता है मानो एक दूसरे के लिए ही बने हैं। इतने सालों में बहुत ही कम मौके ऐसे आए होंगे जब 'वो' 'वहां' ना दिखाई दिया हो,बहुत ही कम।
'वो' यानी एक दुबला पतला स्याह सा आदमी। शरीर पर उसी के रंग से मेल खाते मटमैले से कपड़े। हो सकता है वे भी कभी सुर्ख रंगों वाले रहे हों। लेकिन जिसने भी देखा उसे ऐसे ही मटमैले स्याह रंग वाले वस्त्रों में देखा। सच तो ये है कि वस्त्र कहना शायद निर्लज्जता भी मानी जा सकती है। दरअसल वे चिथड़े होते हैं जिन पर कई जगह थेकलियां लगी होतीं हैं। कई जगह सीवन उधड़ी होती। और जिस शरीर पर ये वस्त्र टंगे होते वो शरीर क्या बस समझो अस्थियों का एक जालनुमा कोई चीज़ है। एक ऐसी चीज जिसमें लकड़ीनुमा अस्थियों को बेतरतीब सा एक दूसरे के ऊपर रख ज्यामिति बना दी गई है। हाँ, सर पर बेहिसाब बाल हैं जो बेतरतीब से चारों और बिखरे रहते हैं। पर क्या ही कमाल है कि असंतुष्टि के तमाम उपादानों के बावजूद उसके चेहरे पर एक भोली सी मुस्कान पसरी रहती है।
'उसका' यानी लॉन का और 'वो' के चेहरों का भूगोल लगभग एक सा है। दोनों के चहरे लगभग सपाट और चौकौर। 'उसके' चेहरे पर फूलों की खुशनुमा सी मुस्कराहट हर मौसम में बिखरी रहती है। फ़िज़ा में फ़ैली उन फूलों की सुगंध 'उसके' चहरे की मुस्कान को स्निग्धता से भर देती है। और 'उसकी' इस स्निग्ध मुस्कराहट से 'वो' के चहरे की मुस्कराहट थोड़ी और गोलाई ले लेती है और 'वो' के चहरे के चौकोरपने को थोड़ा ढीला कर देती,उसके चहरे के किनारों की तीक्ष्णता को थोड़ा स्मूद कर देती है। 'वो' के चहरे की मुस्कराहट जितनी गोल होती जाती एक संतुष्टि का भाव सुर्ख से सुर्खतर होता जाता है। ऐसा लगने लगता है कि 'वो' के चहरे की संतुष्टि एक स्थायी भाव है। 'वो' का चेहरा कठोर है। पर ये कठोरता मुस्कराहट की मुलायमियत और बेफिक्री की आभा में हमेशा छिपी रहती है। ठीक वैसे ही जैसे 'उसकी' ज़मीन की कठोरता घास की मुलायमियत से ढकी रहती है। खिलते,महकते,झूमते फूल मंद मंद हवा में जितनी ज़्यादा अपनी सुगंध बिखेरते जाते,उतना ही 'वो' का रूखा सूखा चेहरा लावण्य से भर भर जाता है।
'वो' 'उसके' भीतर हर समय गतिशील रहता है। हर समय। समय के हर अंतराल में 'वो' एक अलग जगह पर दीखता है। अभी यहां तो थोड़ी देर में सरक कर वहां,फिर और आगे,फिर और आगे। मानो ये सरकना ही उसकी जिंदगी हो। 'वो' की गतिशीलता की सीमा 'उसकी' चौहद्दी है। ऐसा लगता मानो 'वो' समय के दायरे में बहता एक पल है। निर्द्वन्द सा। लेकिन उद्दंड नहीं। उसके बहने में एक लय है। किसी राग की बंदिश की तरह। उसके बहाव को देखकर अहसास होने लगता है मानो वो एक हिमखंड है। एक विशाल हिमपिंड से टूटा छोटा सा हिमखंड जो अपार नीली जल राशि में मंद गति से तैर रहा हो। फ़र्क़ रंग का है। वो हिमखंड के शुभ्र रंग की तरह नहीं है। वो स्याह है और घास के हरे समुद्र में दरख्तों और पेड़ पौधों से अठखेलियां करता बहता रहता है। स्याह रंग वाला 'वो' 'उसकी' खूबसूरती पर काला टीका लगा होने का आभास देता है। कभी कपाल पर, कभी गाल पर,कभी भाल पर। आखिर वो उसका टीका हो भी क्यूँ ना। उसने इतने जतन से उसे सजाया जो है। उसके बरसों की पसीने की कमाई है। ऐसे में किसी की नज़र लग गई तो। मखमली हरी घास और दुनिया भर के रंग बिरंगे और महक वाले खूबसूरत फूलों और बहुत सारे दरख्तों के बीच 'वो' टीका ही हो सकता है। उससे कम या ज़्यादा कुछ भी नहीं।
'वो' हमेशा 'उसके' पेड़ पौधों से एक गहरे संवाद में संलग्न रहता है। कई बार लगता वो उनके प्यार में है। उसके हाथ में हमेशा लौह धातु का एक औजार होता है। उसके हाथ में इस औजार को देख कर 'उसके' शत्रु होने का संदेह हो सकता है। पर ऐसा है नहीं। ये कठोर धातु वाला औजार दरअसल 'उसकी' और 'वो' की मुलायम मीठी मुस्कराहट का सबसे बड़ा कारक है। 'वो' के सधे हाथ अपने औजार से मृदा और वनस्पति से संवाद करते हुए इतने नियंत्रित ढंग से चलायमान होते मानो कोई वाद्ययंत्र बजा रहा हो। इस औजार के जरिए ही तो 'वो' ना केवल मृदा से बल्कि 'उसके' सभी रहवासों से भी संवाद करता है। एक ऐसा संवाद जिसमें गजब की लय है जो धीरे धीरे संगीत में रूपांतरित होती जाती और अनगिनत रंगों के रूप में चारों और बिखर बिखर जाता है। 'वो' 'उसके' प्यार में है तो संगीत के रंग बिखरने लाजिमी हैं। इस संगीत को 'वो' के 'उसके' रहवासों के साथ किये जा रहे संवाद को देख कर ही महसूस किया और सुना जा सकता है।
'उसके' प्यार में डूबा 'वो' 'उसको' हर ताप संताप से बचाने का जतन करता है। इस प्रयास में 'वो' पेड़ पौधों और दरख्तों के इर्द गिर्द उग आते अवांछित तत्वों का सफाया करके एक बड़े दरख़्त के नीचे इकट्ठा करता रहता है। शाम होते होते उस ढेर को बाहर फेंक आता है। ये क्रम अनवरत चलता रहता है। ये ढेर सूख कर उसकी तरह स्याह हो जाता है। जब तब 'वो' उस ढेर के पास सुस्ताने बैठता है तो वे एक जैसे दो ढेर लगते हैं। कभी कभी तो वो और ढेर मिलकर एक बड़ा ढेर लगने लगते हैं। 
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क्या पता किसी एक दिन 'वो' को भी उसी ढेर में बदल जाना है।
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क्रिया को बदलते देर नहीं लगती। 'वो' अब 'है' से 'था' में बदल गया। और निपट अकेला 'लॉन' धीरे धीरे जंगल में परिवर्तित हो रहा है।

Tuesday 2 October 2018

कहानी



वो राजा 
वो रानी
वो चुड़ैलों के किस्से
वो परियों की कहानी
कभी नानी की जुबानी
तो कभी दादी की जुबानी
कहाँ वो दिन अब
कहाँ वो रातें
इन्टरनेट की सर्चें अब
और इन्टरनेट की चैटें।

Wednesday 26 September 2018

अलविदा जसदेव सिंह!



खेल सिर्फ वो भर नहीं होता जो खिलाड़ी मैदान में खेल रहे होते हैं। खेल मैदान से बाहर जो दर्शक होते हैं वे उस खेल को सम्पूर्णता प्रदान कर रहे होते हैं। और दर्शक मात्र वे भर नहीं होते जो वहां प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होते हैं बल्कि वे दर्शक उसे पूर्णता प्रदान कर रहे होते हैं जो अपने श्रवणेन्द्रियों के माध्यम से मष्तिष्क पटल पर उस खेल की प्रतिकृति को देख रहे होते हैं।मैदान से उन अनुपस्थित दर्शकों के लिए खेल की प्रतिकृति तैयार करके उन दोनों को एक कर देने वाली कड़ी कमेंटेटर होता है। खेल और अनुपस्थित दर्शकों के बीच रागात्मक एकता उत्पन्न करने वाली सबसे मज़बूत कड़ी आज टूट गई और खेलों की प्रतिकृति तैयार वाली सबसे बेहतरीन कूंची का स्वामी अंततः चला गया। आवाज़ के जादूगरों-मर्विन डीमेलो(अंग्रेजी कमेंट्री),देवकी नंदन पांडेय(समाचार वाचन),अमीन सयानी(मनोरंजन) और जसदेव सिंह(हिंदी कमेंट्री) की जिस चौकड़ी को सुनते हुए हमारी पीढ़ी बड़ी हुई उसका एक और स्तम्भ आज ढह गया। जसदेव सिंह  ने इस नश्वर संसार को अलविदा कहा। अब कमेंट्री चाहे जैसी हो पर वैसी बिलकुल नहीं होगी जैसी उनके होने से होती थी। 

                             दरअसल जसदेव सिंह आवाज के ऐसे जादूगर थे जो अपनी आवाज़ की कूंची से आरोह अवरोह की टेक्नीक और जोश,उत्साह,उमंग,आस,निराश,हर्ष,विषाद जैसे संवेगों  के रंगों से सुनने वाले के मन के कैनवास पर घटनाओं की हूबहू अमिट तस्वीर बना देते थे। सन 1975 में जब मैं 11 साल का था,उन्होंने हॉकी विश्व कप फाइनल की एक ऐसी ही तस्वीर उकेरी थी जो आज भी अमिट है। उनकी वो आवाज़ आज भी कानों में वैसे ही गूंजती है और हमेशा गूंजती रहेगी,चाहे वे रहें या ना रहें।उनका जाना एक व्यक्ति या एक कमेंटेटर का जाना भर नहीं है। ये पूरे एक युग का अवसान है। अलविदा जसदेव सिंह!

Friday 21 September 2018

'इलीट' और 'मासेस' के खांचे बहुत स्पष्ट हैं



'इलीट' और 'मासेस' के खांचे बहुत स्पष्ट हैं
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               विराट कोहली को 'खेल रत्न' मिला। बिला शक वे इस के हक़दार हैं। उन्हें बधाई।तो क्या बजरंग पूनिया की उपलब्धियां उनसे कम हैं। मेरा जवाब ना। तो उन्हें 'खेल रत्न' क्यों नहीं। और यहीं मेरा संदेह थोड़ा और बढ़ जाता है कि हमारे दिमागों में अभी भी 'इलीट' और 'मासेस' के खांचे बहुत स्पष्ट हैं।यहां बहुधा ऐसा होता है कि सोना कोई 'उगाता' है। सोने की चमक कोई और ले उड़ता है। और उगाने वाले के पास बिना चमक वाली धातु मसलन कांसा बच रह जाता है। 
             इसी समय तरनवा स्लोवाकिया में जूनियर विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप चल रही है। ग्रीको रोमन शैली के 77 किलो भार वर्ग में साजन भानवाला ने रजत पदक जीता। टेम्पेरे में आयोजित पिछली प्रतियोगिता में उन्होंने कांस्य पदक जीता था। इस तरह से वे बैक टू बैक पदक जीतने वाले पहले भारतीय पहलवान बने। इसके अलावा वे एशियाई चैम्पियनशिप में पहले कांसा और फिर स्वर्ण जीत चुके हैं। उनकी ये उपलब्धि बहुत बड़ी है क्योंकि भारत में ग्रीको रोमन शैली बहुत प्रचलित और लोकप्रिय नहीं है। दरअसल इस शैली में पहलवान को कमर से नीचे हाथ नहीं लगाना होता है। साजन हरयाणा के एक साधारण से कृषक परिवार से है। जब उसकी जीत की खबर उनके परिवार को मिली तो उनकी प्रतिक्रिया इतनी ही थी कि  उनके लड़के ने देश के लिए नाम किया है। ये प्रतिक्रिया वैसी ही थी जैसी जीवन में आमतौर पर होती है। वे ज़मीन से जुड़े है।वे  धरती पुत्र हैं और धरती उनकी माता है। वे अपनी किस्मत के बीज धरती में बोते हैं,श्रम से निकले पसीने के खाद पानी देकर फसल के रूप में सोना उगाते हैं। लेकिन उसकी चमक  बिचौलिए ले उड़ते हैं। उनके पास बचता है उनकी मेहनत का लोहा और नमक जिससे सहारे वे ज़िंदगी की पहाड़ सी दुश्वारियों का सामना करते हैं और फिर फिर सोना उगाने के कर्म में प्रवृत होते हैं।  
                     आप कुछ दिन पीछे की और घूमे और 18वें एशियाई खेलों में पदक विजेताओं की सूची देखिए उनमे से कितने ही साधारण किसान परिवारों से हैं। फिर और पीछे जाईये। 5 साल,10 साल,15 साल या फिर 20 साल। स्मृति पर ज़ोर डालें और देखें अधिसंख्य पदक विजेता साधारण कृषक परिवारों वाली बैकग्राउंड वाले खिलाड़ी हैं। यानी धरती से सोना उगाने वाली पृष्ठभूमि से। वे जब गांव से निकल कर खेल मैदानों में प्रवेश करते हैं तो ये मैदान ही उनके लिए उर्वर भूमि बन जाते हैं जिसमे वे अपने सपनों के बीज बोते हैं,उम्मीदों और लगन की खाद और श्रम से पैदा पानी लगाते और उससे पदकों की फसल उगाते हैं। ये फसल इतनी ज़्यादा लहलहा सकती है यदि उन्हें तकनीकी सहयोग,कुशल प्रशिक्षण और प्रोत्साहन के न्यूट्रिएंट सप्लीमेंट मिल सकें। लेकिन  उससे भी ज़रूरी है इस फसल को बेईमानी,भाई भतीजावाद और भ्रष्टाचार की कीट-व्याधियों से बचाया जाए और हां उससे भी ज़रूरी उनकी मेहनत के कमाई की चमक लूटने वाले बिचौलियों और परजीवियों से बचाया जाए। अन्यथा लहलहाती फसल को नष्ट होने में भी देर नहीं लगती। 
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Monday 17 September 2018

ओ सरदारा पाजी तू घना याद आंदा

सरदारा पाजी खेल मैदान से अलविदा
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आप चाहे जीवन के खेल में दो चरम बिंदुओं के बीच मध्यम मार्ग चुन कर मज़े से खेल सकते हैं,लेकिन खेल के जीवन में  मध्यम मार्ग उतना सीधा और सरल नहीं होता,बल्कि यूँ कहा जा सकता है कि ये सबसे कठिन होता है।यहां बात हॉकी और फुटबॉल की है और उनके मिडफ़ील्ड की है। दरअसल मिडफ़ील्ड की पोजीशन सबसे महत्वपूर्ण होती है और इसीलिए इस पर खेलना सबसे कठिन भी। 

       चाहे फॉरवर्ड हों या फुल बैक उन्हें सिर्फ अपनी पोजीशन के खेल में महारत हासिल करनी रहती है। लेकिन मिडफील्डर को अपनी पोजीशन के खेल की महारत हासिल करने के लिए फॉरवर्ड और फुल बैक/डिफेंडर दोनों की पोजीशन के खेल में महारत  हासिल करनी होती है।मिडफील्डर वो केंद्र बिंदु जिसके इर्द गिर्द खेल चलता है।वे पहले तो आक्रमण की ज़मीन तैयार करते हैं,मूव बनाते हैं और फिर फॉरवर्ड के साथ विपक्षी किले पर आक्रमण करते हैं। और साथ ही विपक्षी के आक्रमण की जंगे मैदान के बीचों बीच धार भोथरी ही नहीं करते बल्कि अपने डिफेंडरों के साथ मिल कर अपने क़िले की रक्षा भी करते हैं। दरअसल वे ही हैं जो अपने गोल से लेकर विपक्षी गोल तक मार्च करते हैं और पेट्रोलिंग भी। आज के टोटल गेम में भी सबसे ज़्यादा मेहनत उन्हें ही करनी होती है। अभी  हाल ही संपन्न हुए विश्व कप फुटबॉल ने साबित किया कि जब जिस टीम के मिडफील्डरों ने शानदार खेल दिखाया जीत उन्हें ही नसीब हुई।
 
लेकिन आप जब भारत की हॉकी के मिडफील्ड की बात करते हैं तो दो नाम ही याद आते हैं। अजीत पाल सिंह और सरदार सिंह।पहला पंजाब के संसारपुर गांव से तो दूसरा हरयाणा के संत नगर गांव से। भारतीय हॉकी के दो भिन्न कालखडों के दो सर्वश्रेष्ठ मिडफील्डर।अजीत स्वर्णिम दौर के सबसे बेहतरीन सेंटर हॉफ तो सरदार सिंह अधोगति के बाद पुनर्निर्माण दौर के सबसे बेहतरीन मिडफील्डर। 
            सरदार सिंह ने 2006 अंतर्राष्ट्रीय हॉकी में प्रवेश किया और एशियाई खेलों में खराब प्रदर्शन के बाद अपने 12 साल लम्बे अंतर्राष्ट्रीय खेल जीवन को अलविदा कहा। दरअसल वो 20वीं शताब्दी के पहले दो दशकों का सबसे शानदार खिलाड़ी है। उसने भारत के लिए 300 से ज़्यादा  मैच खेले। भारतीय हॉकी के इस पुनर्निर्माण के  वो एकमात्र ऐसा खिलाड़ी था  विश्व की किसी भी टीम के लिए खेल सकता था।वो दो बार एफआईएच के प्लेयर ऑफ़ द ईयर के लिए नामांकित हुआ। वो शानदार प्लेमेकर था।आक्रमण के लिए मूव बनाते समय वो मैदान में पानी सा बहता और प्रतिपक्ष के आक्रमण के समय चट्टान सा खड़ा हो जाता। वो अपने साथियो को शानदार पास देता। इसमें उसको गज़ब की महारत हासिल थी। वो राइटहेंडर था। एक राइट हेंडर के लिए दांये से बाँए पास देना सबसे आसान होता है। लेकिन उसने एक नया पास इज़ाद किया। बिलकुल क्रिकेट के रिवर्स स्वीप सा। वो ड्रिब्लिंग करते हुई बांये से दांये रिवर्स पास करता। वो असंभव कोणों से पास करता। उसके पास बेहद सटीक होते। जिस समय 32 साल की अपने बूट खूंटी पर टाँगे उस समय वो हिन्दुस्तान का सबसे फिट एथलीट था। भारतीय खेलों में फिटनेस का पर्याय माने जाने वाले  कोहली से भी ज़्यादा। एशियाई खेलों  में जाने से पहले उसने यो-यो फिटनेस टेस्ट में 21.4  का स्कोर किया जबकि उसी समय कोहली का उस टेस्ट में स्कोर 19 था।
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उसके खेल मैदान में ना होने का ख्याल मन में एक अजीब सा खालीपन को भर देता है। और ये तय है कि इस खालीपन को जल्द भर पाना संभव नहीं। तो अपने एक और पसंदीदा खिलाड़ी को खेल मैदान से अलविदा !








Monday 10 September 2018

चाँद दाग़दार है तो हुआ करे खूबसूरत तो है



चाँद दाग़दार है तो हुआ करे खूबसूरत तो है
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                        आदि काल से लेकर आज तक चाँद कवियों का सबसे खूबसूरत और पसंदीदा उपमान रहा है। तो क्या ही ताज्जुब कि एक बीस साला खिलाड़ी जो अभी अभी अपनी टीन ऐज से बाहर आई हो,के लिए अपना पहला ग्रैंड स्लैम खिताब चाँद जैसा ना रहा होगा। लेकिन जब कवि चाँद के लिए कहता है 'मगर उसमें भी दाग़ है' तो ये विडम्बना ही है कि उस खूबसूरत उपमान को उस दाग़ के साथ ही स्वीकारना पड़ता है। और स्वीकारें भी क्यों ना उस दाग़ से उसकी खूबसूरती पर क्या फर्क़ पड़ता है। ठीक ऐसे ही जापान की युवा खिलाड़ी ओसाका के लिए उसका पहला ग्रैंड स्लैम खिताब यू एस ओपन हमेशा ही चाँद जैसा रहेगा क्या फ़र्क पड़ता है कि उसके साथ सेरेना-रामोस विवाद दाग़ के रूप में हमेशा जुड़ा रहेगा।
                    आज फ्लशिंग मीडोज स्थित बिली जीन किंग नेशनल टेनिस सेंटर के आर्थर ऐश सेंटर कोर्ट पर महिला टेनिस की महानतम खिलाड़ियों में से एक सेरेना विलियम्स और जापान की युवा खिलाड़ी नाओमी ओसाका जब आमने सामने हुईं तो दो खिलाड़ी ही एक दूसरे से मुख़ातिब नहीं हो रहे थे बल्कि एक विशाल अनुभव से एक युवा जोश मुक़ाबिल हो रहा था। 36 वर्षीया सेरेना का ये 30वां ग्रैंड स्लैम फाइनल था तो उनसे 16 साल छोटी 20 वर्षीया ओसाका अपना पहला ग्रैंड स्लैम फाइनल खेल रही थीं। जीतता कोई भी एक नया इतिहास बनना तय था। देखना ये था कि सेरेना 24वां ग्रैंड स्लैम जीत कर मारग्रेट कोर्ट की बराबरी करती हैं या फिर ओसाका ग्रैंड स्लैम जीत कर ऐसा करने वाली पहली जापानी खिलाड़ी बनती हैं। यहां जोश ने अनुभव को हरा दिया। इतिहास ओसाका ने रचा। जब वे सेरेना को 6-2 और 6-4 से हरा रहीं थीं तो वे केवल एक मैच भर नहीं जीत रही थीं वे बंद आँखों से देखे अपने सपने को फ्लशिंग मीडोज के मैदान पर साकार कर रहीं थीं,अपनी कल्पनाओं में बनाये चित्र में यथार्थ के रंग भर रहीं थीं,अपने बचपन में पढ़ी किसी परी कथा को मैदान पर जी रही थीं।उन्होंने बताया कि नज़्म हरूफ से सफ़े पर ही नहीं लिखी जाती है बल्कि खेल के बीच मैदान पर भी रची जाती है।

              आज जब उनके सामने सेरेना खड़ी थीं तो वे महज़ एक प्रतिद्वंदी नहीं थीं बल्कि उनका आदर्श भी थीं और उनका सपना भी। जब सेरेना अपना पहला ग्रैंड स्लैम रही थीं तब नोआमी कुछ महीने थीं।सेरेना को देखकर ही उन्होंने टेनिस खेलना शुरू किया और किसी दिन किसी ग्रैंड स्लैम में उनके खिलाफ खेलने के सपने को मन में समाए बड़ी हुईं। वे सेरेना से इस कदर प्रभावित थीं कि उनके ग्राउंड स्ट्रोक्स तक सेरेना की तरह हैं। और क्या ही विडम्बना है अपने आदर्श के हथियार से ही उन्होंने उनको मात दी।

                ओसाका शुरू से ही आत्म विश्वास भरी थीं। उन्होंने ना केवल कुछ महीने पहले मियामी ओपन में सेरेना को हराया था बल्कि इस प्रतियोगिता में ज़बरदस्त फॉर्म में थीं और यहां तक के सफर केवल एक सेट खोया था। दूसरी ओर सेरेना पास ना केवल लंबा अनुभव था बल्कि 14 महीने बाद वापसी करने के पश्चात बैक टू बैक दूसरा मेजर फाइनल था।इससे पहले वे विंबलडन के फाइनल में पहुँच चुकी थी और इस प्रतियोगिता में भी शानदार खेल रही थीं।जिस तरह से उन्होंने सेमी फाइनल में सेवस्तोवा के विरुद्ध नेट पर खेल दिखाया था और 6-3,6-0 जीतीं उससे भी लग रहा था कि वे अपनी पुरानी रंगत में लौट आई हैं।लेकिन आज ओकासा का दिन था।उन्होंने शुरू से ही खेल पर नियंत्रण रखा।उन्होंने शानदार सर्विस की और बेसलाइन से खेल पर नियंत्रण रखते हुए ज़बरदस्त फोरहैंड पासिंग शॉट्स लगाए।दूसरी ओर सेरेना ने बेज़ा गलतियां की और हर सर्विस गेम में डबल फाल्ट किए।पहले सेट में ओकासा ने दो बार सर्विस ब्रेक की और सेट आसानी से 6-2 से जीत लिया।लेकिन दूसरे सेट में सेरेना ने वापसी की और 3-1 की बढ़त ले ली।ऐन इसी समय वो हुआ जो नहीं होना चाहिए था।अंपायर रामोस ने खेल संहिता के उल्लंघन के लिए पहली चेतावनी दी कि बॉक्स से उनके कोच उन्हें इशारा कर उन्हें सहायता पहुंचा रहे हैं ।इस से सेरेना भड़क गयी और इस बात से इंकार किया।अगले ही गेम में एक अंक पर हताशा में रैकेट पटका तो रामोस ने खेल संहिता के दूसरे उल्लंघन के लिए ओकासा को एक अंक दे दिया।इस पर सेरेना और ज़्यादा भड़की और ना केवल रामोस को चोर कहा बल्कि माफी मांगने को कहा।इस पर तीसरे उल्लंघन के लिए एक गेम ओकासा को दे दिया।अब स्कोर 5-3 ओकासा के पक्ष में हो गया ।ओकासा ने धैर्य बनाये रखा और आखिरी गेम जीत कर फाइनल अपने नाम किया।ये क्या ही विरोधाभास था कि एक अनुभवी और सीनियर खिलाड़ी जिससे और अधिक संयम और समझदारी की उम्मीद थी उसने अधिक उग्र रूप दिखाया इसके विपरीत ओकासा ने ग़ज़ब की परिपक्वता और संयम का परिचय दिया।उनपर ना तो सेरेना के विशाल व्यक्तित्व का असर पड़ा और न इस असाधारण घटनाक्रम का। उसने खेल पर अपना फोकस रखा और इतिहास निर्मिति का सबब बनीं।

                              दरअसल इस घटनाक्रम ने अगर सबसे बड़ा नुक्सान किया तो खेल का किया।अगर ये ना हुआ होता तो हो सकता है एक शानदार मैच देखने को मिलता।पर ऐसा हो ना सका।पर जो हो यू एस ओपन को एक नई चैंपियन मिली और जापान को नयी खेल आइकॉन।
                             बहुत बधाई ओसाका!
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[सेरेना पर कुछ अलग से ।और हाँ डेल पोत्रो और जोकोविच के बीच होने वाले पुरुष फाइनल मैच पर कुछ नहीं क्योंकि अपना एक फेवरिट पहले ही हार चुका है और दूसरा फेवरिट रिटायर हर्ट । अस्तु ।]

Tuesday 4 September 2018

कोई पूछे कि हमसे ख़ता क्या हुई


कोई पूछे कि हमसे ख़ता क्या हुई
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"जीने और मरने की हम थे वजह 
और हम ही बेवजह हो गए देखते देखते.."

               अक्सर ये होता है ज़िन्दगी के साथ कि लिखना कुछ चाहो लिख कुछ और जाता है।कि मुस्कराहट चाहो उदासी लिख जाती है,कि सुबह चाहो सांझ लिख जाती है,कि दिन को चाहो रात लिख जाती है,कि फूल चाहो कांटे लिख जाते है।और क्या ही कमाल है जब शैली कहता है कि हमारे सबसे उदास गीत ही सबसे मधुर गीत होते हैं।
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             जब कलम आँसू लिखती है तो शब्द संगीत की लय पर नृत्य करते हुए भावनाओं की नदी के तटों के बांध तोड़ कर स्वर के सैलाब से एक ट्रेजिक मेलोडी रचते हैं कि मेलोडियस ट्रेजेडी।
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         मनोज मुंतज़िर अपनी कलम से मन के आसमाँ पर उदासी के जो बादल निर्मित करते हैं,रोचक कोहली उन्हें अपने साज़ों से कव्वाली सी धुन और सूफियाना से अंदाज़ में संघनित कर घनघोर घटाओं में तब्दील कर देते है और फिर आतिफ असलम अपनी बहती सी आवाज़ की ऊष्मा से उस घटा को पिघलाते हैं तो आँखे बूंदों की पनाहगाह बन जाती हैं और लब बोल उठते हैं-
"आते जाते थे जो सांस बन के कभी
वो हवा हो गए देखते देखते........."
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Saturday 1 September 2018

तस्वीरें दो:एक कहानी









                            तस्वीरें दो:एक कहानी 
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                           दरअसल खेल आवेगों और संवेगों का नाम है और साथ ही संवेदनाओं के आरोह और अवरोह का भी ।ये विज्ञान तो है पर उससे कहीं अधिक कला है।खेल के मैदान में खिलाड़ी जब अपने संवेगों से एक कलात्मक कृति का निर्माण कर रहा होता है, ठीक उसी समय मैदान के बाहर छायाकार उस कृति की अपने कैमरे के माध्यम से पुनर्रचना कर कुछ बेहतरीन चित्र बना रहा होता है।उनमें से कुछ चित्र अपने कंटेंट में इतने समृद्ध होते हैं कि शानदार और यादगार बन जाते है। 

                               जकार्ता और पालेमबंग में चल रहे 18वें एशियाई खेल लगभग समाप्त हो चले हैं।इस बीच इसकी हज़ारों तस्वीरें मीडिया के माध्यम से हम सभी की नज़रों से गुज़री।पर ये दो तस्वीरें क्या ही शानदार हैं कि ये आँखों से होती हुई आपके दिल पर चस्पां हो जाती और फिर हटने का नाम नहीं लेती।ये दो अलग अलग समय पर ली गयी तस्वीरें एक साथ मिलकर एक कहानी बुनती हैं।

                                   (चित्र ट्विटर से साभार)
                             इन दो तस्वीरों में पहली कर्नल राज्यवर्धन सिंह राठौर की है।वे खेल महकमे के शीर्ष अधिकारी हैं।और ये शीर्ष अधिकारी अपने खिलाड़ियों के साथ एकाकार होता है और खुद अपने हाथों से सूप सर्व करता है। ऐसा करते हुए वे एक शानदार नैरेटिव रच रहे होते हैं।वे अधिकारी से अधिक एक खिलाड़ी हैं और ओलम्पिक में रजत पदक जीत चुके हैं ।वे जानते हैं कि मैदान में खिलाड़ी के दिल दिमाग में क्या चल रहा होता है और उनकी क्या ज़रूरतें हैं।और इसीलिये जब वे सूप सर्व कर रहे होते हैं तो ये सूप भर नहीं होता बल्कि वे सूप से अधिक उनको प्रोत्साहन सर्व कर रहे होते हैं,उनमें जोश और जज़्बा भर रहे होते हैं,उनमें विश्वास और होंसले का संचार कर रहे होते हैं।खेल मैदान के अंदर खिलाड़ी भर नहीं खेल रहा होता बल्कि मैदान के बाहर सपोर्टिंग स्टाफ से लेकर उसके प्रशंसक और पूरा देश उसके खेल को कंप्लीट कर रहा होता है।तो ये तस्वीर यही कह रही होती है कि तुम मैदान के अंदर की सोचो,बाहर पूरा देश तुम्हारे साथ है।ये तस्वीर ठीक उसी तरह का दृश्य रचती है जैसे हाल ही में संपन्न विश्व कप फुटबॉल के दौरान क्रोशिया की राष्ट्रपति की तस्वीरें रचती हैं।

                               (चित्र ट्विटर से साभार)
                                      और पहली तस्वीर जो नैरेटिव बनाती है उसी से दूसरी तस्वीर संभव हो पाती है।ये दूसरी तस्वीर हेप्टाथलान की अंतिम प्रतिस्पर्धा 800 मीटर की दौड़ के तुरंत बाद की है जिसने स्वप्ना बर्मन का सोने का तमगा पक्का कर दिया था।हर खिलाड़ी का एक ही सपना होता है सर्वश्रेष्ठ होने का।स्वप्ना का भी था।उसका वो सपना साकार होता है लेकिन घोर गरीबी,अभावों,शारीरिक कमियों से अनवरत संघर्ष करते हुए।ऐसे में जब सपने पूरे होते हैं तो अनिर्वचनीय सुख की प्राप्ति होती है।ये एक ऐसी ही तस्वीर है जिसमें मानो स्वप्ना अपना सपना पूरा होने के बाद आँखें बंद कर उस पूरे हुए सपने को फिर से जी लेना चाहती है।मानो वो फ़्लैश बैक में जाती है,अपने सपने को रीकंस्ट्रक्ट करती हैं,फिर फिर जीती है,एक असीम आनंद को मन ही मन अनुभूत करती है और एक मंद सी मुस्कान उसकी आत्मा से निकल कर उसके चेहरे पर फ़ैल जाती है,एक चिर संतुष्टि का भाव उसके चेहरे पर पसर जाता है।एक ऐसा भाव जिसे आप चाहे तो आप बुद्ध की विश्व प्रसिद्ध मूर्तियों के शांति भाव से तुलना कर सकते हैं पर वो वैसा है नहीं।दरअसल वो एक ऐसा भाव है जो किसी किसान के फसल के बखारों में पहुच जाने के बाद चैन से बंद आँखों वाले चहरे पर आता है या फिर किसी मेहनतकश मज़दूर के चहरे पर दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद भरपेट भोजन से तृप्त हुई बंद आँखों से आता है।
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भारतीय खेल के इन दो शानदार दृश्यों को कैमरे की नज़र में कैद करने वाले इन छायाकारों को सलाम तो बनता है।

                                                   (चित्र ट्विटर से साभार)


ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...