Friday 21 September 2018

'इलीट' और 'मासेस' के खांचे बहुत स्पष्ट हैं



'इलीट' और 'मासेस' के खांचे बहुत स्पष्ट हैं
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               विराट कोहली को 'खेल रत्न' मिला। बिला शक वे इस के हक़दार हैं। उन्हें बधाई।तो क्या बजरंग पूनिया की उपलब्धियां उनसे कम हैं। मेरा जवाब ना। तो उन्हें 'खेल रत्न' क्यों नहीं। और यहीं मेरा संदेह थोड़ा और बढ़ जाता है कि हमारे दिमागों में अभी भी 'इलीट' और 'मासेस' के खांचे बहुत स्पष्ट हैं।यहां बहुधा ऐसा होता है कि सोना कोई 'उगाता' है। सोने की चमक कोई और ले उड़ता है। और उगाने वाले के पास बिना चमक वाली धातु मसलन कांसा बच रह जाता है। 
             इसी समय तरनवा स्लोवाकिया में जूनियर विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप चल रही है। ग्रीको रोमन शैली के 77 किलो भार वर्ग में साजन भानवाला ने रजत पदक जीता। टेम्पेरे में आयोजित पिछली प्रतियोगिता में उन्होंने कांस्य पदक जीता था। इस तरह से वे बैक टू बैक पदक जीतने वाले पहले भारतीय पहलवान बने। इसके अलावा वे एशियाई चैम्पियनशिप में पहले कांसा और फिर स्वर्ण जीत चुके हैं। उनकी ये उपलब्धि बहुत बड़ी है क्योंकि भारत में ग्रीको रोमन शैली बहुत प्रचलित और लोकप्रिय नहीं है। दरअसल इस शैली में पहलवान को कमर से नीचे हाथ नहीं लगाना होता है। साजन हरयाणा के एक साधारण से कृषक परिवार से है। जब उसकी जीत की खबर उनके परिवार को मिली तो उनकी प्रतिक्रिया इतनी ही थी कि  उनके लड़के ने देश के लिए नाम किया है। ये प्रतिक्रिया वैसी ही थी जैसी जीवन में आमतौर पर होती है। वे ज़मीन से जुड़े है।वे  धरती पुत्र हैं और धरती उनकी माता है। वे अपनी किस्मत के बीज धरती में बोते हैं,श्रम से निकले पसीने के खाद पानी देकर फसल के रूप में सोना उगाते हैं। लेकिन उसकी चमक  बिचौलिए ले उड़ते हैं। उनके पास बचता है उनकी मेहनत का लोहा और नमक जिससे सहारे वे ज़िंदगी की पहाड़ सी दुश्वारियों का सामना करते हैं और फिर फिर सोना उगाने के कर्म में प्रवृत होते हैं।  
                     आप कुछ दिन पीछे की और घूमे और 18वें एशियाई खेलों में पदक विजेताओं की सूची देखिए उनमे से कितने ही साधारण किसान परिवारों से हैं। फिर और पीछे जाईये। 5 साल,10 साल,15 साल या फिर 20 साल। स्मृति पर ज़ोर डालें और देखें अधिसंख्य पदक विजेता साधारण कृषक परिवारों वाली बैकग्राउंड वाले खिलाड़ी हैं। यानी धरती से सोना उगाने वाली पृष्ठभूमि से। वे जब गांव से निकल कर खेल मैदानों में प्रवेश करते हैं तो ये मैदान ही उनके लिए उर्वर भूमि बन जाते हैं जिसमे वे अपने सपनों के बीज बोते हैं,उम्मीदों और लगन की खाद और श्रम से पैदा पानी लगाते और उससे पदकों की फसल उगाते हैं। ये फसल इतनी ज़्यादा लहलहा सकती है यदि उन्हें तकनीकी सहयोग,कुशल प्रशिक्षण और प्रोत्साहन के न्यूट्रिएंट सप्लीमेंट मिल सकें। लेकिन  उससे भी ज़रूरी है इस फसल को बेईमानी,भाई भतीजावाद और भ्रष्टाचार की कीट-व्याधियों से बचाया जाए और हां उससे भी ज़रूरी उनकी मेहनत के कमाई की चमक लूटने वाले बिचौलियों और परजीवियों से बचाया जाए। अन्यथा लहलहाती फसल को नष्ट होने में भी देर नहीं लगती। 
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