Thursday 30 April 2020

ज़िन्दगी से एक साथ स्वप्न और हक़ीक़त का चले जाना



          एक ऐसे समय में जब हम अपने अपने घरों में कैद ,अपने अपने में सिमटे और अपने अपने में खोए लाखों लोगों की मृत्यु का शोक मना रहे हैं और  आंख से निकलते  खारे पानी से दुःख के एक समंदर को भर रहे हों तो ऐसे में दो और लोगों के चले जाने से इस दुख के समंदर का स्तर और कितना बढ़ेगा ये तो पता नहीं। पर ये तय है कि इनके जाने का दुःख इतना सघन तो है ही जो आंख से बहते पानी के  खारेपन को कुछ और ज़्यादा गाढ़ा कर दे। और विश्वास मानिए दुख के समंदर का घनत्व इस खारेपन से कुछ और ज़्यादा बढ़ जाएगा कि उस समंदर में ऋषि कपूर और इरफान खान की स्मृतियां कभी डूबने नहीं पाएंगी।
दुनिया भर में लाखों लोगों की अकाल मृत्यु के बीच इन दो अज़ीम फनकारों का एक साथ इस फ़ानी दुनिया से रुखसत हो जाना एक अजीब सा दुर्योग है। ये ज़िन्दगी से एक साथ एक स्वप्न और एक हक़ीक़त के लोप हो जाने जैसा है। दो विपरीत ध्रुबों का एक साथ जाना। एक नामी गिरामी परिवार से। दूसरा एक अनजाने साधारण परिवार से। एक सुंदर सलोना। बहुत ही कोमल सा। नरम मुलायम सा। किसी खूबसूरत सपने सा। दूसरा उतना ही साधारण सा। एक आम आदमी से मिलता जुलता बल्कि आम आदमी ही। कुछ कठोर सा, रुक्ष सा। जीवन की कठोर वास्तविकताओं सा। एक चंचल,वाचाल और हँसमुख। तो दूसरा ठहरा और गंभीर। एक अपने अभिनय से दिल में प्रेम का दरिया बहाता और स्वप्नलोक की सैर कराता। दूसरा अपने अभिनय से दिमाग से होकर जीवन की कठिनाइयों की पगडण्डी बनाता और जीवन की हकीकतों से रूबरू कराता। एक अपने अभिनय से दिल को सहलाता,गुदगुदाता,मरहम लगाता। दूसरा अपने अपने अभिनय से आत्मा को छीलता,खुरचता और कुरेदता।
पर क्या ही कमाल है दोनों के बीच समानताओं की परछाइयां एक सी ही है। दोनों ही पर्दे पर अपने अभिनय में कितने सहज नज़र आते हैं। एक अपने खिलंदड़ स्वभाव के साथ 'प्लेबॉय' की सी इमेज के साथ और दूसरा अपनी गंभीर भाव भंगिमा के साथ कुछ कुछ 'एंग्री मैन' जैसी इमेज के साथ। दोनों एक ही बीमारी से घायल होते हैं,संघर्ष करते हैं और अन्ततः एक ही अस्पताल से संसार को अलविदा कहते हैं। दोनों ने ऐसे समय को अपने जाने के लिए चुना जब दुनिया चाहरदीवारों के बीच सिमटी है। मानो वे बिना किसी शोर शराबे के शांति से और अकेले विदा होना चाहते हों। लेकिन उनके बीच  समानता का सबसे बड़ा बिंदु उनका व्यक्तित्व,उनका अभिनय और उनकी फिल्में हैं जिनसे जो भी होकर गुजरता थोड़ा सा मनुष्य होकर निकलता है। टूल्स और अहसास अलग हो सकते हैं पर नतीज़ा एक ही होता है। एक की फिल्मों से आदमी स्वप्नलोक की सैर कर प्रेम में भीगा होता तो दूसरे की फिल्मों से जीवन की वास्तविकताओं से जुझकर अनुभवसमृद्ध होकर निकलता। दोनों ही स्थितियों में व्यक्ति थोड़ा मनुष्य बनकर ही निकलता है। हाँ एक बात और। ऋषि 67 साल की अपेक्षाकृत भरी पूरी ज़िंदगी जी कर गए। पर इरफान। 54 साल की उम्र का प्लेटफॉर्म वो प्लेटफार्म कतई नहीं हो सकता कि उसपे उतर लिया जाय। यूं तो ऊपर वाले उस्ताद ने इरफान से प्लेटफॉर्म 51 पर भी कहा था 'ज़िन्दगी की ट्रेन से यहीं उतर जाओ जमूरे।' पर शागिर्द ने धीमे से इसरार किया 'गुरु अभी कहां'। तब उस्ताद मान गया था। पर इस बार नहीं माना।उस्ताद ने ज़िन्दगी ही पटरी से उतार दी।

ऋषि कपूर की 'बॉबी' सन 1973 में आई थी। लेकिन मैंने पर्दे पर उसे  1977-78 में देखा। ये ऋषि से पहला परिचय था। उस समय टीन ऐज में हुआ करते थे हम। ये वो समय था जब आपके मन में प्रेम की कोंपले फूटती हैं। बॉबी में ऋषि को देखकर हर टीनएजर खुद में ऋषि को ही महसूसता। उसी अहसास के साथ हमारी पीढ़ी के लोग बड़े हुए। प्रेम में डूबे। प्रेम से भीगे। और प्रेम करना सीखे। जीवन ऐसे ही बीतता है और बीतता रहा। और तब इलाहाबाद आना हुआ। 2001 में  त्रिगमांशु धूलिया अपनी टीम के साथ इरफान को लेकर आए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 'हासिल' की शूटिंग हुई। मेरा इरफान से ये पहला परिचय था। वो एक  बहुत ही साधारण लेकिन गंभीर सा नवयुवक था। उस समय खुद भी जीवन की कठोर भूमि से दो चार हो चुके थे। बहुत सी असफताओं के साथ बहुत से सपने बीत गए थे। मन से कुछ कुछ प्रेम भी रीत गया था। अब मन में प्रेम के साथ जीवन की कठोर हक़ीक़तें भी उसी अनुपात में बस गईं थी। यानी अब ऋषि के साथ साथ इरफान भी समा गया था। ज़िन्दगी अगले बीस साल ऐसे ही चलती रही।अचानक दोनों के जाने की खबर आई। तो लगा जैसे ज़िन्दगी से स्वप्न और हक़ीकत दोनों ही कहीं गुम हो गए और ज़िन्दगी बिना किसी रंग के बेरंग सी हो गई।
मैं जब कभी भी ये सोचता हूँ 'कि दुनिया से जाने वाले जाने चले जाते हैं कहाँ' तो लगता है ये कहीं भी तो नहीं जाते। यहीं तो रहते हैं। हमारे साथ।  हमारी यादों में। हमारे दिलों में। हमारे अहसासों में। हमारी स्मृतियों के स्पेस को घेरे हुए। ऋषि और इरफान भी ऐसे ही हमारे साथ रहेंगे। हाँ उनके जिस्मानी आइडेंटिटी को ज़रूर विदाई देनी पड़ेगी। यही दस्तूर है। रवायत है। तो
अलविदा ऋषि !अलविदा इरफान!

विनम्र श्रद्धांजलि!



Saturday 18 April 2020

लम्हे जो समय के बहाव में छूट गए_3


 उसे इस मझोले शहर में आए लगभग दो महीने हो चले थे। और वो अब कुछ कुछ सहज होने लगा था। एक तो इस शहर में भी बहुत कुछ वैसा ही था जैसा उसके अपने छोटे से शहर में था जिससे वो आया था। बाकी जिन चीजों से शुरुआती दिनों में वो असहज होता था उनको भी उसके दिलो दिमाग ने अब स्वीकार करना शुरू कर दिया था। अब कम से कम वे चीज़ें उसे उस तरह से डराती या अचंभित नहीं करती थीं जैसे शुरू शुरू में करती थीं। विशालता और भव्यता अब कम से कम उसे अचरज में नहीं डालती थी बल्कि वे उसमें उत्सुकता जगाने लगी थीं। साथ ही भव्यता और विशालता के भीतर के खोखलेपन से भी उसका धीरे धीरे परिचय हो रहा था। वो अब समझ पा रहा था कि  चमकने वाली हर चीज सोना नहीं होती है। उसे समझ में आने लगा था हर बड़ी चीज से आक्रांत होने की ज़रूरत नहीं है। अब विश्वविद्यालय में प्रवेश करने पर उसके दिल की धड़कन उस तरह से असामान्य नहीं हो जाती थी जैसे शुरू में होती थी। उल्टे कई बार तो वे चीजें उसे रुचने लगी थीं। कुल मिलाकर उसके लिए चीजें सहज होती जा रही थीं और ज़िंदगी व्यवस्थित।

लेकिन ज़िन्दगी होती ही ऐसी है। जब जब ये लगता है  कि सब कुछ व्यवस्थित होता जा रहा है उसी समय बहुत कुछ ऐसा भी चल रहा होता है जो फिर फिर ज़िन्दगी को असहज ही नहीं करता जाता है बल्कि ज़िन्दगी में बेचैनी भी भरता जाता है।  वो अभी शहर को समझने की कोशिश कर रहा था। अपने आस पास की चीजों से उसकी पहचान बन रही थी। और इस बीच उसका वास्ता एक ऐसी चीज से पड़ा जिसने उसको एक अलग ही तरह की बेचैनी से भर दिया था। ये एक जादू था। लोग इसे काला जादू कहते थे। लोगों का मानना था ये दरअसल बंगाल का काला जादू है। इस जादू की व्याप्ति शहर भर में थी। शहर में जहां कहीं भी वो जाता उसे अपने ऊपर इस जादू का असर होता लगता और हर बार सम्मोहित सा लौटता। ये जादू उसके मन मष्तिष्क पर छाया रहता। हालांकि लोग इसे काला कहते पर उसे हमेशा लगता कि ये जादू  इस कदर स्याह भी नहीं है। बल्कि उसे लगता कि इसका रंग तो साँवला है। इस रंग में फैली अजीब सी कशिश उसे अपनी और खींचती। वो जब भी इस जादू से बावस्ता होता उसे हर बार उस रंग का एक अलग शेड महसूस होता। किसी एक रंग के इतने ज्यादा शेड्स भी हो सकते हैं ये उसे अब पता चला था। कि हर बार एक नया शेड देख वो अचंभित हो जाता।

 निसन्देह ये वाला जादू उस जादू सा तो नहीं था जैसा उसकी कल्पना में था और उसके बारे में यहां आने से पहले उसने पढ़ा सुना था। वो जब से यहां आया था हर बार जादू की एक नई आकृति, एक नया रूप देखने को मिलता। जब भी वो जादू से होकर गुजरता उसे महसूस होता कि वो  जादू एक खास किस्म के अभिजात्य से दमकता है। ये शायद उस जादू की अपनी सुदीर्घ और समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा और विरासत से आता जिसे वो जतन से सहेजता आया था। वो उसे ज्ञान के प्रकाश से आलोकित सा लगता। उसे आश्चर्य होता जादू ऐसा भी हो सकता है। पर सच यही था। जो कुछ साक्षात दीख रहा था वो झूठ तो नहीं हो सकता था। उसके भीतर की बेचैनी बढ़ती जाती।

  उसे उसमें सांझ की सी छाया दिखाई देती। उस जादू में भी सांझ की सी ही आतुरता होती। दिन को अपने में समेट लेने की। अपने से बांध लेने की। दिन के अस्तित्व को समाप्त कर खुद में समाहित कर लेने की। दिन पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेने की ऐसी उत्कट उत्कंठा। उसे विश्वास नहीं होता। उसे एक और बात भी सालती। उसे जादू के हर शेड में,हर रूप में एक उदासी पसरी दिखाई देती। उसकी खूबसूरत मुस्कुराहट और खनकदार हंसी के बावजूद वो उदासी छिप नहीं पाती। लगता ये उदासी मानो उसका अंतरनिहित गुण हो।

वो उदासी उसे बेचैन करती। वो अक्सर उस उदासी के बारे में सोचता। उसे लगता कि जादू में जो स्याहपन है शायद उसी से ये उदासी है। उसे लगता वो जादू भी अपने प्रभाव में आने वाले व्यक्ति को उसी तरह अपने में समेट लेना चाहता है जैसे सांझ दिन को खुद में समेटकर उसकी चमक से अपने स्याहपन को खत्म करना चाहती है। पर ऐसा कहीं होता  है क्या! नहीं ना!  सांझ की नियति तो स्याह रात में तब्दील हो जाने की होती  है। सांझ तो दिन का अंत है ना। क्या जादू भी यही सोचकर उदास होता है कि वो भी किसी का अंत है। पर वो ये क्यूं नहीं सोच पाता कि सांझ हर रात की सुबह भी तो होती है। वो ये क्यों नहीं सोच पाता कि वो अंत नहीं आरंभ है। आरंभ एक खूबसूरत रात का। वो जादू दिन की चमक के पीछे के स्याह को क्यों नहीं देख पाता। क्यों नहीं देख पाता रोशनी के पीछे  अंधेरे को। क्यों दिन भर की भागम भाग,आपा धापी,छल कपट,प्रवंचना का भान उसे नहीं होता। और फिर ये भी कि क्यों उसे रात के पीछे का उजाला नज़र नहीं आता। रात्रि का सुकूँ और असीम शान्ति महसूस नहीं होती। क्यों सिर्फ स्याह रंग के कारण उदासी को एक स्थायी भाव बना लिया। पर उसे तो जादू की वो उदासी भी सुहाने लगी थी। उसे वो उदासी जादू के चेहरे पर नज़र के किसी टीके सी लगने लगी थी। निसंदेह जादू का सम्मोहन अब गहरा होता जा रहा था । 
                     वो उस दिन भी रोज़ की तरह ही विश्वविद्यालय गया था। उस  दिन भी चमकदार दोपहर में दो विभागों के मध्य वाली सड़क से होता हुआ वो अपने विभाग की ओर जाने का उपक्रम कर ही रहा था कि उसे महसूस हुआ कि वो जादू वहां पसरा हुआ है और वो उसके सम्मोहन में बंधा जा रहा है। इस बार जादू का असर बहुत गहरा था। वो मदहोश सा हुआ जा रहा था। अब वो एक स्वप्नलोक में था। उसे दिखाई दे रहा था जादू एक आकृति में तब्दील हो रहा है। एक नए शेड में। बादल के किसी आवारा टुकड़े सा। जो आसमान में उन्मुक्त विचरण कर रहा हो। उस झुलसा देने वाली धूप में उसे अहसास हुआ  काले बादल का खूबसूरत सा टुकड़ा उसी की तरफ  बढ़ा आ रहा है। पास आते ही जो उसके अहसासों पर छा गया। तीखी धूप की तपिश कहीं बह गई हो। उसे लगा वो रुई सा हल्का हो गया है और आसमान में उड़ने लगा है। उसे महसूस हुआ ये उस जादू का सबसे खूबसूरत शेड है। उसकी नाक पर एक ऐनक  थी। उसका चेहरा थोड़ा सा ऊपर उठा हुआ था। शायद इसी वजह से उसकी ठोढ़ी उसकी नाक से भी थोड़ी आगे निकली हुई थी। पहली नज़र में उसे लगा कि उसके नाक और कान उसके ऐनक का बोझ संभाल नहीं पा रहे हैं। इसीलिए ये मुँह उसने थोड़ा ऊपर किया हुआ है। कहीं ऐनक गिर ना जाए। पर अचानक जादू ने गर्दन घुमाई और उसकी तरफ देखा। उसे लगा समय रुक गया है। उसने जादू की आँखों में झांका था। वे आंखें उम्मीद की रोशनी से लबालब थीं। उस रोशनी में अनगिनत सपने दिखाई दे रहे थे। वे सपने उस रोशनी के समंदर में मछलियों से तैर रहे थे। तब उसे समझ आया कि उसने मुँह ऐनक थामने के लिए नहीं बल्कि अपने सपनों को आंखों से छलक जाने से रोकने के लिए ऊपर किया हुआ  है। जादू को पता था अपने सपनों को बचाने की कीमत चुकानी पड़ सकती है। जब आपकी निगाहे आसमां पर होती हैं जो जमीं कहां दिखाई देती है।  पर उसे अपने सपने बचाने की एवज में हर ठोकर मंज़ूर थी। अगर कुछ मंज़ूर नहीं था तो बस बिना सपनों वाली आंखें।
जादू ने उसको देखा । उसने जादू को देखा। दोनों की नजरें मिली। मिली और वे फिर फिर मिलने लगी। मिलती रही। मिलकर एक हो गई। सपने उसकी भी आंखों में थे। दोनों के सपने अब साझा हो गए थे। दिन गुज़रने लगे। जादू के इस शेड के बाद उसे कभी और शेड नहीं दिखाई दिया। ये अल्टीमेट जो था शायद इसलिए। ये शेड उसकी आत्मा में समा गया था। अब समय उड़ने लगा। मानो हाथ ही ना आता। हज़ार दिन बीते । फिर और ज़्यादा दिन बीते। 
फिर एक दिन अचानक। उस दिन  उसने देखा कि  जादू का मुँह कुछ और ऊंचा है। ठोड़ी कुछ और आगे बढ़ गई है। जमीं कुछ और ज़्यादा छूट गयी है।  सपने कुछ और ज़्यादा और बड़े हो गए थे। आसमान जितने शायद। उसकी पहुंच से दूर। जादू उस दिन उसके पास नहीं बल्कि पास से गुजरने को हुआ कि ठोकर लगी। अचानक उसके हाथ सामने आ गए। उसे लगा वो जादू की ऐनक को और उसके पीछे के अनगिनत सपनों को थाम लेगा। बिखरने से, टूटने से बचा लेगा। पर... पर... वहां  वहां कुछ भी तो नहीं था। ना सपने। ना जादू। ना जादू का वो सबसे खूबसूरत शेड। वहां एक शून्य था। उसका सम्मोहन खत्म हो गया। जादू गायब हो गया था। अब सिर्फ खुरदरी ज़मीन थी। कुछ सूखी मटमैली घास नीचे पैरों में चुभ रही थी और कुछ अनचाहे अहसास दिल में। जो उसे अहसास करा रहा था कि जादू कुछ नहीं होता। एक गहरी उदासी थी। कुछ गीलापन था। कुछ टीसें थीं। उस दिन उसने अपनी डायरी में एक दर्द जिया था-

'क्लासरूम में
कभी ख़त्म ना होने वाली 
हमारी बातों के बीच 
वो अनकहा
और पलास के सिंदूरी दहकते फूलों से लदे पेड़ों के नीचे टहलते हुए
हमारी लम्बी खामोशियों के बीच 
बहुत कुछ कहा गया
सीनेट हाल के कॉरीडोर में तैरती हमारी फुसफुसाहटें
और चबूतरे पर बैठकर गाये गीतों की हमारी गुनगुनाहटें
आनंद भवन के सीढ़ीनुमा लॉन पर 
गूंजती हमारी खिलखिलाहटों से
मिलकर बनी 
गुलाब के अनगिनत रंगों की मौज़ूदगी में
अनजाने लोगों के होठों पर तैरती रहस्यमयी मुस्कान
और उनकी आँखों की चमक से
साहस पाती हमारी कहानी
बन चुकी थी प्रतिरोध का दस्तावेज
जिसे जाना था संगम की ओर
मिलन के लिए
पर पता नहीं
क्या हुआ
क्यों बहक गए तुम्हारे कदम 
और चल पड़े कंपनी बाग़ की तरफ
जहाँ ब्रिटेन की महारानी की तरह
तुम्हें करनी थी घोषणा
एक युग के अंत की
ताकि सध सके तिज़ारत का बड़ा मुक़ाम।'
----------------
ये जादुई कथा का उपसंहार था। 
-----------------
समय का बहाव  तेज होता है। उसमें  सब बह जाता है। जादू की वो कहानी भी बह गई। पर वो लम्हा, जिससे उस जादुई कथा की शुरुआत हुई थी,समय की नदी के बहाव से किसी बूंद की तरह अलग हो उसकी स्मृतियों के बियावान में किसी बिरवे की तरह हमेशा हरा खड़ा रहा।

Tuesday 14 April 2020

अकारज_5



उस दिन सुबह टेरेस पर चाय पीते हुए उसने कहा 'कितनी खूबसूरत नरम नरम सी सुबह है ये'मैं  बुदबुदाया था'हां बिल्कुल वैसी जैसी तुम्हारे हौले से स्पर्श से मन में होती है गुदगुदाहट।' सर्दियों में उस दोपहर छत पर लेटे हुए उसने कहा 'कितनी मीठी मीठी चमकीली सी है धूप।'मैने हौले से कहा 'हाँ जैसे तुम्हारे गले से फूटते  आलाप कीमिठास।' फिर उस शाम सड़क पर टहलते हुए मेरा हाथ पकड़कर उसने कहा था 'कुछ उदास सी है आज की ये शाम।' मैंने मन ही मन कहा था 'जैसे तुम्हारे बिना मन में कैसे हो सकता है भला उजास।' उस रात पूरे चाँद को देखकर वो चहकी थीं 'वाह कितनी झिलमिलाती है ये चांदनी रात।' मैंने कहा था 'हाँ जैसे मेरे कानों में घुलती तुम्हारी खनकती हँसी की मिठास।' और उस दिन वापस घर लौटते समय अचानक आई बारिश में भीगते हुए गुलाबी सी आवाज़ में सिर्फ इतना ही तो कहा था उसने 'उफ्फ ये बरसात भी ना'। बूंदों के साथ तुम्हें अठखेलियाँ करते देख तब मैं बुदबुदाया था 'ये बारिशें भी तो तुम्हारी शरारतों जैसी ही हैं ना।'
--------------
और आज जब वो एक बार फिर बाहर से बारिश की बूंदों में भीग रही थी, मैं अंदर से यादों की बूंदों से गीला हो रहा था।


अकारज_4

संवाद
-------    

'हाय! कितनी नर्म मुलायम सी सुबह!'
''तुम्हारी मुस्कान'

'अहा! कैसी सोने सी धूप!'
' तुम्हारा रूप'

'ओह! एक अलसाई सी शाम!'
'तुम्हारी अंगड़ाई'

'ओहो! कैसा रूपहला चाँद'
'तुम्हारी हँसी'

'आह! कितनी अंधेरी रात'
'तुम्हारी उदासी भरी कोई बात'

फिर इक दिन उसने कहा 'आज कुछ तुम कहो'
वो गुनगुनाई 'दो दिल, बहती उमंगें और एक    
मंज़िल'           



Sunday 12 April 2020

अकारज_3



दरअसल ये ज़िन्दगी तुम्हारे और मेरे अस्तित्व के समीकरण से बने सुलझे अनसुलझे सूत्रों से युक्त गणित है। तुम्हारी उम्मीदों और मेरी इच्छाओं का योग तुम्हारे एक स्पर्श भर से अनगिनत सपनों में बदल जाता हैं। किसी अलसुबह तुम्हारे अधरों से फूटी एक स्मित सी मुस्कान किसी त्रिज्या सी मेरी खुशियों की परिधि से छूकर उसका आयतन नापने की कोशिश करती है। और किसी शाम तुम्हारे चेहरे की एक उदास रेखा मेरे चेहरे पर एक समानांतर रेखा उकेर जाती है। 
यूं तो जीवन रेखाओं का बनना किस्मत का खेल है। पर अपनी खुशियों की प्रमेय मैं खुद की खींची रेखाओं से हल करना चाहता हूँ। बोलो,मेरा संबल बनकर तुम इति सिद्धम बन हमेशा मेरे साथ दोगी ना।




अकारज_2


उसे सांझ उदासी से भरती, मुझे सांझ उम्मीद से लबालब करती। उसे लगता ये दिन का अंत है। मुझे लगता ये रात का आरंभ है,रात की सुबह है। उसे लगता दिन का उल्लास और स्पंदन खत्म होने को है। मुझे लगता रात का एकांत और संगीत शुरू होने को है। दोनों खयालों से भरे थे। कितने जुदा जुदा पर कितने एक थे हम।



Tuesday 7 April 2020

अकारज_1

एक लंबी प्रेम कथा
---------------------

उसने उससे कहा "इन छुटियों में मैं गाँव नहीं जाऊंगा। यहीं रहकर पढ़ाई करूंगा।"
(दरअसल वो कहना चाहता था कि वो उससे दूर कहीं नही जाना चाहता।)

उसने अपनी नोटबुक के आखरी सफे पर कुछ लिखा और छोटी सी परची थमा कर चली गई।

उसमें लिखा था "तुम जाओ मैं तुम्हें रोज़ खत लिखूंगी"

वो चला गया और कभी नहीं लौटा।

ये उसके जीवन का इकलौता कभी खत्म ना किए जाने वाला 'प्रेम पत्र' था।

ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...