Wednesday 26 May 2021

अकारज_10

 




उस रात छत पर लेटे हुए वो देर तक आसमाँ को देखती रही। फिर सहसा उसने कहा ' कितने सुंदर झिलमिलाते तारे!'

मैंने कहा 'हमारी इच्छाएं। सुंदर तो बहुत हैं पर हाथ नहीं आतीं।'

उसने पूछा 'और ये जुगनू ?

मैंने कहा 'हमारी उम्मीद। हर पल जलती बुझती। जिस पल जले ज़िन्दगी रोशन,जिस पल बुझे ज़िन्दगी अंधेरा।

उसने कहा 'अच्छा छोड़ो। पूर्णिमा का चांद देखो। कितना सुंदर। वो तो चांद ही है ना?

मैंने कहा 'हमारा जीवन। हर रोज घटता जाएगा और फिर अमावस आ जाएगी।'

चारों और सन्नाटा था,हम थे और दो धड़कनें एक साथ कदमताल करते हुए सन्नाटे से लड़ रही थीं।


ये उदासियों का मौसम है

 



लगभग महीने भर बाद फिर दफ्तर जाना शुरू हो गया है। मेरे साथ साथ मां और बेटी की रिपोर्ट भी नेगेटिव आयी है। दिल में सुकून है। लेकिन ये सुकून खुशी से आवृत ना होकर भय,आशंका और संत्रास घिरा है। 

ऐसे समय में जब हमारे चारों ओर अपनों के साथ लाखों लोग जीवन राग के सुरों को साधने का अनथक प्रयास कर रहे हों,उस प्रयास में उनकी सांसे छूट रही हों,उनमें से बहुत सारे लोगों ने इस जीवन राग को साधते साधते मृत्यु राग को साध लिया हो और जब जीवन राग की मधुरता मृत्यु राग की कर्कशता में दबी जाती हो,तो आपका सुकून किसी खुशी का वाहक हो भी कैसे सकता है। 

ये मई का उत्तरार्द्ध है। सामान्य दिनों में ये समय अधिक ऊष्मा,ऊर्जा और उजास से भरा होता है। दिन का उजास कुछ ज्यादा लंबा होता है। उजास कुछ जल्द आता है और शाम को देर तक ठहरता है। अंधेरा कुछ कम समय का होता है। मई की इस ऊर्जा को,इस ऊष्मा को तमाम चीजें अपने अपने ढंग से बढ़ाती हैं। इन तमाम चीजों में खेल,खिलाड़ी और मैदान भी शामिल होते हैं। तमाम खेल मैदानों में खिलाड़ियों का कौशल और उनका संघर्ष इस गरम मौसम को अतिरिक्त उष्मा देता है।

ये ही वो समय होता है जब मोंटे कार्ले,मेड्रिड और रोम के मिट्टी के मैदानों पर दुनिया भर के टेनिस दिग्गज अपने तरकश के तीरों की आजमाइश कर रहे होते हैं और अपने दूसरे हथियारों को भी परख रहे होते हैं कि जिनसे उन्हें लाल मिट्टी के अजेय योद्धा राफा को परास्त करना है। पर रोलां गैरों तक आते आते उनके वे सारे हथियार भोथरे पड़ जाते और वे खेत रहते। लोग राफा के जादू पर विस्मित होते जाते। पर इस बार कहां इसकी सुध है कि माटी की सतह पर एक और प्रतिद्वंदिता जन्म ले रही है और  मेड्रिड में ज्वेरेव ने राफा को हरा दिया है। कहाँ इस बात को जान पाए कि रोम में राफा ने ज्वेरेव को हरा दिया है और फिर फाइनल में एक और क्लासिक मैच में राफा ने जोकोविक को हरा दिया है। कि रोम जीत कर राफा रोलां गैरो के अजेय किले को बचाने निकल पड़ा है। कहां इस बार जानने की मन में उत्कंठा है कि रोलां गैरों में इस बार क्या होगा। कि पीट सम्प्रास ने कुल 14 ग्रैंड स्लैम जीते हैं और इस बार अगर राफा रोलां गैरों में जीत जाता है तो वो केवल इस मैदान पर ही उसकी बराबरी कर लेगा। ऐसा कोई विचार अब कहाँ आपको उत्तेजना से भर पाता है कि ग्रैंड स्लैम की जीत की प्रतिस्पर्धा और कितना आगे जाएगी। कि कौन सार्वकालिक महानतम खिलाड़ी है-फेडरर,जोकोविच या फिर राफेल नडाल। अब ऐसी कोई बहस कहां आपमें उत्तेजना ला पाती है। दुख से सीले मन को सुखाने की वो ऊष्मा इस खेल में इस बार कहां है।



यही वो समय है जब इस गर्म मौसम को एनबीए के प्ले ऑफ मुकाबले भी अतिरिक्त ऊष्मा प्रदान कर रहे होते हैं। सामान्य दिनों में आपकी रुचि होती है कि पिछली बार खिताब जीतने वाली टीम इस बार भी पिछला प्रदर्शन बरकरार रख पाएगी या फिर कोई पुरानी टीम ये खिताब जीतेगी या फिर कोई टीम छुपी रुस्तम साबित होगी। इस बार कौन जानना चाहता है कि अपने पावर प्ले से लेब्रोन जेम्स कौन से रिकॉर्ड ध्वस्त कर रहा है या फिर स्टीफेन करी अपने 3 पॉइंटर से कौन सी कविता रच रहा है। कौन इस बात से हतप्रभ हो रहा होगा कि  पिछली चैंपियन टोरंटो रप्टर्स की टीम इस बार प्ले ऑफ में भी जगह नहीं बना पाई है। कि हज़ारों मौत के मातम से मुरझाए मन को खिलाने की ताकत इस खेल में इस बार कहां है।

इस समय यूरोप की तमाम फुटबॉल लीग अपने चैंपियन तय करने की जद्दोजहद में गर्मी पैदा कर रही होती हैं। प्रीमियर लीग हो या ला लीगा, बुंदेस लीगा हो या सीरी ए और लीग वन, जोरदार संघर्ष और बेहतरीन खेल की गर्मी सभी उत्सर्जित करती हैं। दुनिया भर की फुटबॉल सेलेब्रिटी पैरों के जादू से लोगों में मदहोशी भर रहे होते हैं। फिर चाहे    बार्सिलोना का मेस्सी हो या जुवेंतस का सीआर 07,बेयर्न म्यूनिख का लेवेंदोसकी हो या चेल्सी का जोरजिन्हो हो,रियाल मेड्रिड का टोनी क्रूस हो या मैनचेस्टर सिटी का रुबेन डियास। पर इस बार कौन जानना चाहता है कि मेस्सी का जादू अभी भी बरकरार है और 21 ला लीगा मैचों में 23 गोल किए हैं या कौन रिकार्ड्स में रुचि रखने वाला अपनी रिकॉर्ड बुक में नोट कर रहा होगा कि इस बार अभी तक 40 गोल करके लेवेंदोसकी ने गर्ड म्युलर के रिकॉर्ड की बराबरी कर ली है। कौन जानना चाहेगा कि पेप गार्डियोला ने कौन सी रणनीति से मैनचेस्टर सिटी को पांचवी बार प्रिमीयर लीग का चैंपियन बनाया या एंटोनियो कोंते ने इंटर मिलान को कैसे सीरी ए का चैंपियन बनाया या 29 गोल करने के बाद भी सीआर 07  जुवेंतस को सीरी ए का चैंपियन नहीं बना पाया। इस खेल की तमाम गतिविधियों में मृत्यु की आशंका से डरे मन को आश्वस्त करने की ऊष्मा इस बार कहां है।

ये समय इंडियन प्रीमियर लीग का भी है जो तमाम क्रिकेट प्रेमियों को ऊर्जस्वित करने का काम करती है और मौसम में अतिरिक्त गर्मी पैदा करती है। भले ही ये खेल से ज़्यादा मनोरंजन का सबब बन गयी हो,लोगों की दिलचस्पी चौकों और छक्कों को देखने में और नए चैंपियन को जानने की जिज्ञासा से गर्मी तो बनी ही रहती है। पर इस बार दुख की मार वो खुद ही कहाँ झेल पाई और औंधे मुँह जा गिरी है।



दरअसल इस बार अलग मौसम है इस जहान का। ये उदासियों से घिरा है,ग़मों से सहमा है,आंसुओं से गीला है। इस बार के मौसम में ऊष्मा नहीं है। आसमान से बादल बरस रहे हैं और धरती पर मौत। शरीर ठंडे मौसम से सहम रहे हैं और आत्मा दर्द और ग़मों से करहाते लोगों की चीत्कारों से। 

क्या ही विडंबना है कि हम जितना आगे बढ़ते हैं उतना ही पीछे जाते हैं। जितना सभ्य होते जाते हैं उतना ही असभ्य भी होते जाते हैं। जितना श्लील बनने का प्रयास करते हैं उससे ज़्यादा अश्लील होते जाते हैं। नहीं तो कोई कारण नहीं था कि उन जगहों पर जहां हज़ारों हज़ार लोग काल कवलित हो रहे हों,जहां ज़िंदगी और मृत्यु के बीच संघर्ष चल रहा हो,वहां स्टेडियम की चारदीवारी के भीतर खेल हो रहे हों। जब दिल्ली,मुम्बई,अहमदाबाद और चेन्नई सबसे ज़्यादा हाहाकार मचा था उस समय बीसीसीआई और दुनिया भर के क्रिकेटर देश के लिए नहीं बल्कि पैसों के लिए मनोरंजन कर रहे थे। पिछली बार उनमें इतनी शर्मो हया तो बाकी थी कि विदेश चले गए। इस बार तो वे लाशों के बीच तांडव कर रहे थे। वे खुद को खुदा समझने लगे थे। उन्होंने बायो बबल बनाया था। उनका मानना था उन्हें कुछ नहीं हो सकता। दरअसल जब तक खुद पर नहीं आ पड़ती तब तक दूसरों के दर्द का अहसास नहीं होता। उन्हें भी नहीं हुआ। लेकिन जब उन पर आ पड़ी तो दुम दबाकर भाग खड़े हुए।

खेल हमेशा मनुष्यता के पक्ष में खड़े होते हैं। कितने उदाहरण हैं जब खेल पीड़ितों के पक्ष में खड़ा हुआ। खुद क्रिकेट और क्रिकेटर भी। फुटबॉलर सादियो माने को याद कीजिए। वे अपने अपनी कमाई अपने शहर के लोगों की भलाई में खर्च कर देते हैं। फुटबॉलर मार्कस रशफोर्ड को याद कीजिये जिसने ब्रिटेन के 13 लाख गरीब बच्चों के पक्ष में अभियान चलाकर ब्रिटिश सरकार को घुटनों के बल ला दिया। पिछला अमेरिकन ओपन याद कीजिए जिसमें चैंपियन ओसाका नोआमी ने अमेरिका के अश्वेतों के विरुद्ध हिंसा के विरोध में हर मैच में एक पीड़ित के नाम का मास्क लगाकर हिंसा का विरोध किया। वेस्टइंडीज और इंग्लैंड के बीच खेले जाने मैच को याद कीजिए जिसमें खिलाड़ियों ने घुटनों के बल बैठ कर 'ब्लैक लाइव्स मैटर्स' अभियान का समर्थन किया। भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच खेले गए उस टेस्ट मैच को याद कीजिए जिसमें ऑस्ट्रेलिया टीम ने दिल के असाध्य रोग से पीड़ित बच्चे आर्ची शिलर की इच्छा पूर्ण करने के लिए उसे बाकायदा 12वां खिलाड़ी और मानद सह कप्तान बनाया। वे तमाम मौके याद कीजिए ज़ब दुःख की किसी घड़ी में खिलाड़ी काली पट्टी बांधकर खेले। ऐसा कुछ भी आईपीएल में हुआ क्या। नहीं हुआ। इसलिए नहीं हुआ कि ये खेल नहीं व्यापार है। जो लोग इसे अभी भी खेल समझते हैं वे या तो हद से ज़्यादा भोले हैं या फिर नासमझ। 

कहना सिर्फ इतना है कि इस बार गर्मी के मौसम  में  खेलों में भी वो ताब है ही नहीं कि मौसम में या लोगों के दिलों में अतिरिक्त उष्मा भर दें। दरअसल इस बार मौसम खुद ही उदास उदास सा है। सूरज हर सुबह उष्माविहीन उदासी लिए उगता है और थका मांदा सा छिप जाता है तो हवा कुछ बैचैन सी, भागी दौड़ी सी,हेराइ सी लगती है और आसमाँ है कि दुख से गीला हो बरसता जाता है।

ये उदासियों का मौसम है,बेबसी का मौसम है,बेचैनियों का मौसम है। 

और हमें इंतज़ार है उल्लास,उमंग,ऊर्जा और उष्मा से भरे उस पहले वाले मौसम का जिसमें खेल हममें अतिरिक्त उत्साह का संचार  करते थे और हम खुशियों से, रोमांच से,हार-जीत के आवेगों से सराबोर रहते थे। 

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काश वे दिन जल्दी लौट आते।

Tuesday 11 May 2021

अकारज_09


     बहुत दिनों से उससे कोई संवाद ना हुआ था। लगा मौन उसे रास आ गया।

 फिर एक दिन अचानक उदास स्वर में बोली 'तुम्हें पता है पहले बहुत दिनों तक आसमान में बादल छाए रहते थे। उनसे रिमझिम पानी बरसता रहता था। वो पानी नहीं ज़िन्दगी होता था जिसे धरती धीमे धीमे अपने भीतर सींझती रहती थी।'

मुझे संवाद का एक सूत्र मिला। मैंने कहा 'है तो आज भी कुछ वैसा ही। देखो ना ज़िन्दगी के आसमान पर कितने दिनों से दुख के स्याह बादल छाए है। फर्क़ सिर्फ इतना कि इनसे ज़िन्दगी नहीं मौत बरस रही है।'

वो कुछ और उदास हुई। उसने कहा 'पता है उस पानी में लगातार काम करते करते माँ बाबा के पैर की उंगलियों के बीच खार हो जाते'

मैंने कहा 'हां पर आज तो बरसते दुखों से दिलों पर ही खार हुए जा रहे हैं।'

उसके चेहरे पर उदासी और गहरी हुई। वो बोली 'पता है उस लगातार बारिश से घर सील जाते'

मैंने कहा 'पर दुख की इस बरसात से घर ही नहीं आत्माएं भी सील सील जा रही हैं। बेबसी की उमस से आत्मा पर फफोले हो रहे हैं।'

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अब उसकी आँखों से गंगा जमुना बह रही है। इससे वो आसमाँ से बरस रहे मौत के तेजाब को जीवन के अमृत में बदल देना चाहती है।

अकारज_08

'मुझे मौन मधुर लगता। उसे मौन बोरिंग सा लगता। मौन मुझे अन्यतम अभिव्यक्ति लगता, उसे मौन संवादहीनता की पराकाष्ठा। मौन मुझे असीम शांति से भर देता,उसे मौन उदासी का सबब लगता। वो कहती शब्दों से मधुर क्या हो सकता है, मैं कहता शब्दों से गैर जरूरी क्या! 

और जब भी हम मिलते तो

मैं अपने शब्दों से मिलन का मधुर गीत लिखता और वो अपने मौन से उस गीत की सुरीली धुन रचती।

यकीनन जुदा जुदा थे हम। पर एक ही नींद के दो ख़्वाब थे हम।



Friday 7 May 2021

जाना क्रिकेट की आवाज का


 

         यूं तो शायद ही कोई ऐसा कोई खेल होगा जिसके विकास में,उसे आगे बढ़ाने में,उसे ओर अधिक लोकप्रिय बनाने में इलाहाबाद का योगदान ना रहा हो। पर क्रिकेट को लोकप्रिय बनाने में जो योगदान इलाहाबाद का है उससे क्रिकेट का खेल शायद ही उऋण हो पाए। उसने क्रिकेट को मो.कैफ, ज्योति यादव,आशीष विंस्टन ज़ैदी,ज्ञानेंद्र पांडेय,हैदर अली,कमाल उबैद जैसे बेहतरीन खिलाड़ी तो दिए ही पर उसका क्रिकेट को सबसे बड़ा योगदान कुछ सर्वश्रेष्ठ कमेंटेटर देना रहा है।

       इलाहाबाद ने क्रिकेट को हिंदी कमेंटेटर की एक शानदार चौकड़ी दी। मनीष देब,स्कन्द गुप्त,अमरेंद्र कुमार सिंह और इफ्तेखार अहमद। किसी एक शहर ने इतने सारे उच्च कोटि के कमेंटेटर शायद ही दिए हों। इन चारों ने मिलकर रेडियो क्रिकेट कमेंट्री की विधा को नई ऊंचाइयों पर ले गए और उसके माध्यम से क्रिकेट की लोकप्रियता को बलन्दी पर पहुंचाया। मनीष देब और स्कन्द गुप्त इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक थे तो अमरेंद्र कुमार सिंह अर्थशास्त्र विभाग में। स्कन्द गुप्त और मनीष देब  अंग्रेजी के प्राध्यापक होते हुए भी हिंदी में ही कमेंट्री किया करते थे। इफ्तेखार अहमद जिन्हें प्यार से सब 'पापू' भाई कहकर बुलाते थे रेलवे में कार्यरत थे और कुछ दिन पहले ही सेवा निवृत्त हुए थे। मनीष,स्कन्द और अमरेंद्र के बाद आज इस चौकड़ी के अंतिम स्तंभ पापू भाई ने भी इस संसार को अलविदा कहा।

         वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक थे और विश्वविद्यालय स्तर तक उन्होंने क्रिकेट खेली थी।जिस समय वे क्रिकेट खेल रहे थे उस समय रेडियो पर क्रिकेट कमेंट्री अपना स्वरूप ग्रहण कर रही थी और वे खुद क्रिकेट खेलने से ज़्यादा क्रिकेट कमेंट्री की ओर आकर्षित हुए। वे पहले स्थानीय मैचों में शौकिया कमेंट्री करने लगे और जल्द ही इस विधा में माहिर हो गये। अपने पहले ही प्रयास में वे रीजनल स्तर के  पैनल के चुन लिए गए। बाद में वे राष्ट्रीय पैनल में शामिल कर लिए गए।

        हालांकि वे विश्वविद्यालय स्तर तक ही क्रिकेट खेले थे,लेकिन उन्हें क्रिकेत की गहरी समझ थी और उसकी बारीकियों को समझते थे। उनकी भाषा पर भी बढ़िया पकड़ थी और इसके चलते वे धाराप्रवाह कमेंट्री करते। जो कोई भी उन्हें सुनता उनका दीवाना बन जाता।

        मेरी उनसे पहली मुलाकात खेल पर एक परिचर्चा की रिकॉर्डिंग के दौरान हुई थी। उस परिचर्चा में उनके अलावा तीन और खेल जगत के बड़े नाम थे और मुझे रेडियो जॉइन किये हुए बहुत ज़्यादा दिन नहीं हुए थे। उस परिचर्चा का संचालन मैं खुद करना चाहता था और मैंने की भी। हालांकि रिकॉर्डिंग से पहले सभी लोगों को ये बात नागवार लग रही थी कि उन सीनियर लोगों के बीच ये 'कल का लौंडा'कैसे संचालन कर सकता है। लेकिन रिकॉर्डिंग के बाद इफ्तेखार भाई ने पीठ थपथपाई और उसके बाद जब भी वे आते तो कहते आप ही संचालन करो या इंटरव्यू करो।

       दरअसल वे शानदार कमेंटेटर तो थे ही पर उससे भी शानदार वे एक व्यक्ति थे। बहुत ही सहज और सरल। वे बहुत मोहब्बत से मिलते। उन्हें जब भी मैंने अपने कार्यक्रम के लिए याद किया वे तुरंत चले आते। जितनी बार उन्हें स्टूडियो में रिकॉर्ड किया उससे कहीं अधिक बार उन्हें फोन पर रिकॉर्ड किया। जब भी रिकॉर्डिंग के बाद उनको चाय ऑफर करते तो वे कहते नहीं कमरे में नहीं और फिर  आकाशवाणी गेट के बाहर चाय की दुकान पर जाकर महफ़िल जमती जहां इलाहाबाद के खेलों पर लंबी बहस चलती।

          मैंने उन्हें आखरी बार अपने कार्यक्रम के लिए फोन पर देहरादून आकाशवाणी स्टूडियो से रिकॉर्ड किया था जब जसदेव सिंह का निधन हुआ था। और रेडियो पर आखरी बार उन्हें कमेंट्री करते हुए सुना 13 से 17 फरवरी तक भारत और इंग्लैंड के बीच दूसरे टेस्ट मैच के दौरान। शायद रेडियो के लिए ये उनकी आखरी कमेंटी थी। वे सिगरेट बहुत पीते थे। अभी कुछ साल से उन्हें स्वास्थ्य संबंधी संबंधी समस्या थी। उन्हें हृदयाघात हुआ था। वे जल्द ही थक जाते थे। इसका असर उनकी कमेंट्री पर भी पड़ा था। वे अब थोड़ा फम्बल करने लगे थे। लेकिन कमेंट्री के प्रति उनका गहरा अनुराग था,उनका पहला प्यार था और उसका दामन उन्होंने आखिरी वक्त तक नहीं छोड़ा। वे लगातार  कमेंट्री करते रहे। उन्हें मैदान से सीधे कमेंट्री करने के बजाय ऑफ ट्यूब कमेंट्री कभी नहीं भायी। वे उसकी खूब आलोचना करते लेकिन वे उसमें भी सिद्धहस्त हो गए थे और जब भी कमेंट्री करते लगता सीधे मैदान से बोल रहे हैं।

       इलाहाबाद की क्रिकेट की हिंदी कमेंट्री की समृद्ध परंपरा के आखरी स्तंभ को आखरी सलाम। इलाहाबाद का खेल जगत थोड़ा और सूना हुआ और हमार हृदय भी। आप बहुत याद आएंगे इफ्तेखार सर। 

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विनम्र श्रद्धांजलि।


ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...