Saturday 21 March 2020

एक सितारे का विदा हो जाना !



ज़िंदगी इतने विरोधाभासों से भरी होती है कि वो अक्सर आपको हतप्रभ कर देती है। आप माइकल शुमाकर को याद कीजिए। ये सुप्रसिद्ध जर्मन फार्मूला वन ड्राइवर गति का बादशाह था जो तीन सौ किलोमीटर प्रतिघंटा से भी अधिक की गति से कार चलाता था लेकिन नियति देखिए एक स्कीइंग दुर्घटना के चलते कोमा में चला गया और एक इतना गतिशील व्यक्तित्व एकदम निश्चल हो गया। कल भारत के महानतम फुटबॉलरों में से एक प्रदीप कुमार बनर्जी का देहांत हो गया। क्या ही विडंबना है कि एक ऐसा खिलाड़ी जो किसी समय चपलता,फुर्ती और शक्ति का पर्याय था,उसकी मृत्यु न्यूमोनिया, पार्किंसन, डिमेंशिया और दिल की बीमारी से जुझते हुए हुई।

जून 1936 में जलपाईगुड़ी में जन्मा और  'पी के' और 'प्रदीप दा' के नाम से जाना जाने वाला ये राइट विंगर फारवर्ड भारतीय फुटबॉल के स्वर्णिम युग का सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ था। निसंदेह साठ का पूरा दशक और सत्तर का आधा दशक भारतीय फुटबॉल  का स्वर्णिम काल है जिसमें भारतीय फुटबॉल की सबसे बड़ी उपलब्धियाँ दर्ज़ हैं। ये वो समय था जब खेलों में  न्यूनतम सुविधाएं हुआ करती थीं। ये भी उस खिलाड़ी के जीवन की एक विडंबना ही कही जाएगी कि न्यूनतम सुविधाओं के बावजूद फुटबॉल के स्वर्णिम युग के खिलाड़ी का अवसान अधिकतम सुविधाओं के बावजूद भारतीय फुटबॉल के एक निहायत खराब दौर में हुआ।


इस खिलाड़ी की विडंबना यहीं नहीं रुकती। क्या कोई कल्पना कर सकता है उनके कद का कोई बंगाली फुटबॉल खिलाड़ी मोहन बागान,ईस्ट बंगाल या मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब से ना खेले। लेकिन ऐसा यथार्थ घटित हुआ है। 'पी के' इन क्लबों से कभी नहीं खेले। ये अलग बात है कि जब उन्होंने कोच के रूप में कार्य करना शुरू किया तो इनमें से दो क्लबों का दामन उन्होंने अनगिनत उपलब्धियों से भर दिया। उन्होंने अपने प्रशिक्षण काल में ईस्ट बंगाल को 30 और मोहन बागान को 23 ट्रॉफी दिलवाई। उनके बारे में कहा जाता था कि 'जहां पीके जाता हैं वहां वहां ट्रॉफी जाती है'। हालांकि एक खिलाड़ी के रूप में भी मोहन बागान और ईस्ट बंगाल दोनों क्लबों में उनके शामिल होने की बात चली लेकिन परवान नहीं चढ़ पाई। उन्होंने अपना क्लब कॅरियर 1954 में आर्यन क्लब से शुरू किया पर उसके कोच दासु मित्रा से उनकी बनी नहीं। वे वापस जमशेदपुर जाने की सोचने लगे ही थे कि उनके जीवन में तत्कालीन सुप्रसिद्ध कोच बाघा शोम ने  प्रवेश किया। ये बात 1955 की है । उन्होंने पी के को ईस्टर्न रेलवे के लिए ऑफर दिया,उन्होंने रेलवे जॉइन की और उसके बाद वे तब तक  ईस्टर्न रेलवे के लिए खेलते रहे  जब तक कि उन्होंने 1967 में खेल से सन्यास नहीं ले लिया। रेलवे में शामिल होने के बाद अन्य क्लबों से ऑफर आए ज़रूर  पर वे रेलवे के साथ बने रहे । कुछ तो इसलिए कि इन ऑफरों को क्लबों की तरफ से ही बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया। लेकिन उससे भी अधिक उनकी अपनी दुविधा थी अपनी रोज़ी रोटी को लेकर। वे रेलवे को छोड़ने की हिम्मत ना जुटा सके।

उनका जन्म तो जलपाईगुड़ी में हुआ पर उनका परिवार जमशेदपुर आ गया। यहीं उनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई और यहीं फुटबॉल का कॅरियर भी शुरू हुआ। 1951 में 15 साल की उम्र में वे पहली बार बिहार की टीम से संतोष ट्रॉफी में खेले। 1954 में वे कोलकाता आ गए जब उन्होंने आर्यन क्लब जॉइन किया। 1955 में 19 वर्ष की उम्र में वे राष्ट्रीय टीम में चुने गए और ढाका में होने वाले चार देशों की प्रतियोगिता में उन्होंने भाग लिया। उन्होंने तीन बार एशियाई खेलों में भारतीय फुटबॉल टीम का प्रतिनिधित्व किया। 1958 में जकार्ता में, 1962 में बैंकॉक में जहां भारतीय टीम ने स्वर्ण पदक जीता था और 1966 में टोक्यो में। इसके अतिरिक्त 1956 में मेलबोर्न ओलंपिक में भाग लेने वाली भारतीय टीम के सदस्य भी थे जहां भारतीय टीम सेमीफाइनल तक पहुंची थी और चौथे स्थान पर रही थी। 1960 के रोम ओलंपिक में तो वे भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान थे। उन्होंने तीन बार कुआलालंपुर में होने वाले मर्देका टूर्नामेन्ट में भारत की टीम का प्रतिनिधित्व किया जहां 1959 और 1964 में रजत पदक और 1965 में कांस्य पदक जीता। 1967 में खेल से सन्यास लेने के बाद उन्होंने प्रशिक्षण के क्षेत्र में हाथ आजमाया क्योंकि वे फीफा के क्वालिफाइड कोच थे। इस पारी की शुरुआत बाटा क्लब से की,फिर  ईस्ट बंगाल समें आए और फिर मोहन बागान में। 1972 में वे राष्ट्रीय टीम के कोच बने और 1986 तक बने रहे। उसके 1997 तक बाद टाटा फुटबॉल अकादमी के निदेशक बने। यानी खिलाड़ी और मैनेजर दोनों ही किरदारों में उन्होंने फुटबॉल को खूब जिया और एक दिशा दी।

वे चुन्नी गोस्वामी, तुलसीराम बलराम और जरनैल सिंह के साथ एक चौकड़ी की और चुन्नी और बलराम के साथ एक ऐसी तिकड़ी की निर्मिति करते थे जिन्होंने भारतीय फुटबॉल इतिहास की सबसे चमकदार इबारतें लिखी हैं।  उनकी तिकड़ी के साथी चुन्नी गोस्वामी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि 'पी के जैसे ताकतवर शॉट लगाने वाला और कमाल की गति और नियंत्रण से आक्रमण करने वाला भारत में कोई दूसरा नहीं हो सकता। साथ ही उसमें खेल और मैच की परिस्थितियों की गजब की समझ थी'। जानकार मानते हैं भारत के फुटबॉल में पावर और गति का समावेश उन्होंने ही किया। पूर्व फुटबॉल खिलाड़ी सुब्रत भट्टाचार्य कहते हैं कि 'एक खिलाड़ी और एक कोच के रूप में भारतीय फुटबॉल को उनका जो दाय है उसकी कोई भी बराबरी नहीं कर सकता है।'

1956 के ओलंपिक के क्वार्टर फाइनल में ऑस्ट्रेलिया को हराकर सेमीफाइनल में पहुंचाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। फिर 1960 में रोम में भारत ने फ्रांस से 1-1 से ड्रा मैच में पहला गोल पी के ने ही किया था। उस समय विश्व फुटबॉल में भारत सबसे ज़्यादा संभावनाओं से भरी टीम मानी जाने लगी थी। इसमें बड़ा हाथ पी के दा का भी था। वे भारतीय फुटबॉल के लीजेंड थे,एक बड़ा सितारा थे। एक खिलाड़ी और कोच के रूप में उनका कृतित्व और व्यक्तित्व भारतीय फुटबॉल के इतिहास और भूगोल का एक बड़ा हिस्सा घेरते हैं। यहाँ सबसे उल्लेखनीय ये है कि उस समय खेल के पास संसाधनों का टोटा था। इसको इस तथ्य से समझा जा सकता है कि 1948 के ओलंपिक में भारतीय फुटबॉल टीम के पास बूट तक नहीं थे और फ्रांस के विरुद्ध उसने नंगे पांव खेला था।लेकिन प्रतिभाएं  किसी की मोहताज नही होतीं। पी के बनर्जी ऐसी ही प्रतिभा थे। वे सुविधाओं और संसाधनों के मोहताज़ नहीं थे। उन्होंने भारतीय फुटबॉल को उन ऊंचाइयों तक पहुंचाया था जिस पर वो दोबारा नहीं पहुँच सकी।

दरअसल उनका जाना किसी एक खिलाड़ी या कोच का जाना भर नहीं है। ये एक युग का अवसान हैं। भारतीय फुटबॉल इतिहास के महत्वपूर्ण अध्याय का लुप्त हो जाना है। और,और भारतीय फुटबॉल के आसमान से सबसे चमकदार सितारे का ओझल हो जाना है।
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विनम्र श्रद्धांजलि।





Friday 13 March 2020

ये खेल के सुपर फैंस की दुनिया है



खेल के लिए टीमों का होना जरूरी होता है और टीमों के लिए खिलाड़ियों का। लेकिन ये सब बिना फैंस के अधूरे हैं। फैंस का अपनी अपनी चहेती टीम और चहेते खिलाडियों के लिए उनके उत्साह,उनके उल्लास,उनके ज़ुनून, उनके दीवानेपन से खेलों की तस्वीर में रंग भरते हैं,वो मुकम्मल होती है। इन फैंस के अजब गजब रंग होते हैं। ये फैंस ही हैं जो खेल को और खिलाड़ियों को भी दूसरी दुनिया में पहुंचा देते हैं।

अब बार्मी आर्मी को ही देखिए। इंग्लिश क्रिकेट टीम के पीछे पीछे साए की तरह लगी रहती है। पॉल बर्नहम ने इंग्लिश क्रिकेट समर्थकों का 1994 में जो ग्रुप बनाया वो आज एक लिमिटेड कंपनी में बदल गया है और अब वो सिर्फ क्रिकेट कोय ही नहीं बल्कि अन्य खेलों के दीवानों को भी तमाम तरह की सुविधाएं उपलब्ध कराती है। और उसके एक सदस्य ट्रम्पेट वादक बिली कूपर उर्फ बिली द ट्रम्पेट को भला कौन नहीं जानता होगा। और फिर सचिन के उस दीवाने का क्या जिसका नाम सुधीर कुमार गौतम है। जो अपने पूरे शरीर को तीन रंगों में रंग कर सचिन का नाम लिखकर तेंदुलकर के हर मैच में कई सौ किलोमीटर साईकल से ही तय कर लेता। उसे हर हाल में मैच के वेन्यू पर पहुंचना ही होता था भले ही बिना टिकट यात्रा करनी लड़े या चंदा करना पड़े।और फिर धोनी के उस दीवाने फैन को क्या कहें जो चंडीगढ़ का बाबूराम है। दरअसल ये सुपर फैंस ही हैं जो खेलों के सबसे गाढ़े रंग हैं। 

लेकिन इन सुपर फैंस का एक सुपर फैन हो तो उसका क्या। सुपर फैन विंसेंट नवार्रो अपरिसिओ। स्पेनिश फुटबॉल क्लब का अनोखा फैन। वेलेंशिया क्लब का मेम्बर नंबर 18। नवार्रो  साठ के दशक से अपनी मृत्यु की मृत्यु तक लगातार वेलेंसिया के हर मैच में उपस्थित रहा। सबसे बड़ी बात तो ये कि 54 साल की उम्र में रेटिना डिटैचमेंट की वजह से दृष्टिहीन हो जाने के बावजूद  उसने वेलेंसिया का कोई भी मैच नहीं छोड़ा। वो लगातार अपने बेटे के साथ मैच देखता। वेलेंसिया के घरेलू मैदान मेस्तला स्टेडियम के ट्रिब्यूना सेंट्रल सेक्शन के 15वीं पंक्ति की सीट न.164 की सीट पर बैठकर अपनी दृष्टिहीनता के बावजूद स्टेडियम के वातावरण और बेटे के आंखों देखे हाल से हर मैच का आनंद लेता। 2017 में वेलेंसिया के उस अनोखे फैन की मृत्यु हो गई। और तब क्लब ने उनके सम्मान में 2019 में उसकी उस सीट पर उज़की कांसे की मूर्ति स्थापित कर दी। 

बीते 10 मार्च को चैंपियंस लीग के प्री क्वार्टर फाइनल मैच के दूसरे चरण के मैच में वेलेंशिया क्लब अतलांता क्लब को अपने घरेलू मैदान मेस्तला स्टेडियम में होस्ट  कर रहा था। इस समय तक कोरोना का खतरा वाया इटली यूरोप में फैल चुका था। अब बहुत सारे खेल आयोजन रद्द होने लगे थे। इस मैच के बारे में निर्णय लिया गया कि मैच खाली स्टेडियम में खेला जाएगा। लेकिन मेस्तला स्टेडियम में ये संभव कैसे हो सकता था। सेंट्रल ट्रिब्यूना सेक्शन की 15वीं पंक्ति की सीट नंबर 164 पर वेलेंसिया टीम का अनोखा दीवाना नवार्रो  जो बैठा था। सच में उस मैच का नवार्रो एकमात्र दर्शक था जो अकेले किसी राजा की तरह उस मैच का आनंद ले रहा था।
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सुशोभित लिखते हैं 'जीवन ऐसी कहानियों का संकलन है'। और सच ये भी है कि खेल की ऐसी ही कहानियां खेल के खिलंदड़पने को संभाल कर रखती हैं।



Tuesday 10 March 2020

सुपर वीमेन इन ब्लूज

    
ये आठ मार्च का दिन था। यूं तो उस दिन भी सूरज आम दिनों की तरह ही उगा था। पर उस दिन फ़िज़ाओं में उम्मीदों का गुलाबी रंग थोड़ा ज्यादा ही चारों तरफ फैला था। ये अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस था। उनके हक हकूकों के मानने मनाने का दिन जो था। उस दिन में बहुत सारे लोगों को और विशेष रूप से खेल प्रेमियों को ये उम्मीद भी थी कि फ़िज़ाओं में घुला ये गुलाबी रंग कुछ और गाढ़ा होकर लोगों के चेहरों से होता हुआ उनके दिलों पर फैल जाएगा। पर अक्सर जब उम्मीद ज़्यादा होती है वो टूट जाती है।उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। जैसे जैसे सूरज ढल रहा था गुलाबी रंग चेहरों की उदास रंगत सा फीका सा होता जा रहा था।
उस दिन भारतीय बालाएं मेलबोर्न क्रिकेट ग्राउंड में एक इतिहास रचने उतरी थीं पर रचते रचते रह गईं। ये महिला क्रिकेट टी 20 विश्व कप का फाइनल मैच था। भारत की टीम पहली बार इस प्रतियोगिता के फाइनल में पहुंची थी और यहां उसका मुकाबला चार बार की विश्व चैंपियन मेज़बान ऑस्ट्रेलिया की टीम से था। निःसंदेह पलड़ा ऑस्ट्रेलिया के पक्ष में था। लेकिन भारत की उम्मीदें भी हवा हवाई नहीं थीं। वे हवा में नहीं तैर रही थीं बल्कि ठोस ज़मीन पर खड़ी थीं। वो उस समय तक प्रतियोगिता में अपराजित टीम थी। अपने पहले ही मैच में उसने अपने इसी प्रतिद्वंद्वी को 17 रनों से मात देकर इस विश्व कप में अपने अभियान की शानदार शुरुआत की थी और अनुभव तथा युवा जोश से संतुलित टीम उत्साह से लबरेज थी।
पर शायद ये भारत का दिन नहीं था।  लड़कियां बड़े अवसर के दबाव को झेलने में असमर्थ रहीं और मुकाबला आसानी से 85 रनों से हार गईं। निसंदेह  ये बड़ा नहीं बल्कि बहुत बड़ा मुकाबला था। और इतने बड़े अवसर के प्रेशर को हैंडल कर पाना जीवट का काम होता है। ये महिला खेल इतिहास का अगर सबसे बड़ा नहीं था तो सबसे बड़े मुकाबलों में से एक तो निश्चित था। इस मैच को देखने के लिए 86154 दर्शक मैदान में उपस्थित थे। और दर्शकों के लिहाज से महिला खेल इतिहास का दूसरा सबसे बड़ा इवेंट था। इससे ज़्यादा दर्शक केवल 1999 में अमेरिका  के कैलिफोर्निया स्थित रोज़ बाउल में महिला फीफा वर्ल्ड के फाइनल में उपस्थित थे। ये मैच अमेरिका और चीन के बीच खेला गया था और अमेरिका चैंपियन बना था। इसमें उपस्थित दर्शकों की आधिकारिक संख्या 90185 थी। 
उस दिन भारत के हर दर्शक को उम्मीद थी कि 8 मार्च 2020 का दिन 25 जून 1983 में इतिहास को दोहराएगा जब पुरुषों की टीम ने वेस्टइंडीज की मजबूत टीम को हरा कर पहली बार विश्व कप जीता था और ये भी कि मेलबोर्न का क्रिकेट मैदान लॉर्ड्स के मैदान में तब्दील हो जाएगा। मैदान तो लॉर्ड्स में तब्दील ज़रूर हुआ और उसने वहां लिखे इतिहास को भी दोहराया। पर जिस इतिहास को दोहराया उसकी तारीख बदल गई थी। उस दिन मेलबोर्न के मैदान पर लॉर्ड्स में 23 जुलाई 2017 को लिखे इतिहास को दोहराया गया जब एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट विश्व कप प्रतियोगिता में पहली बार खेल रही भारत की महिला क्रिकेट टीम एक करीबी मुकाबले में मेजबान इंग्लैंड से 9 रनों से हार गई थी।
हम भारतीय शगुन अपशगुन में बहुत विश्वास करते हैं। और उस दिन भी ऐसा ही हुआ। भारत की कप्तान टॉस हार गई। शायद ये अपशगुन ही था। यहीं से लड़कियों के कंधे ढीले होने शुरू हो गए थे। भारत की ओर से शुरुआत ऑफ स्पिनर दीप्ति शर्मा ने की।उन्होंने पहली तीन गेंद फुलटॉस की। उसके बाद भी पाँचवी गेंद पर एलिसा हीली कवर में कैच थमा बैठी। पर शिफाली वर्मा ने कैच छोड़ दिया। दरअसल ये सिर्फ एक कैच का छूट जाना भर नहीं था बल्कि उस मैच में जीत का  छिटक जाना था, विश्व चैंपियन बनने के अवसर को छोड़ देना भी था और एक सपने का टूट जाना भी था। अगर ये कैच पकड़ लिया गया होता तो कहानी दूसरी हो सकती थी। जल्द। ही एक अवसर और मिला लेकिन इस बार पांचवें ओवर में   राजेश्वरी गायकवाड़ ने अपनी ही गेंद पर बेथ मूनी का कैच छोड़ दिया।  इसके बाद ऑस्ट्रेलिया ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। एलिसा ने शानदार खेल दिखाया और 39 गेंदों पर 75 रन बनाकर आउट हुईं उस समय ऑस्ट्रेलिया का स्कोर 11.4 ओवरों में 115 रन था। और उनकी ये पारी मैच का निर्णायक पारी थी जिसने मैच का लगभग निर्णय कर दिया था। इस शानदार पारी को देखने उस समय स्टेडियम में उनके क्रिकेटर पति मिचेल स्टार्क भी थे। खेल की दुनिया का ये बहुत ही खूबसूरत जेस्चर था कि वे दक्षिण अफ्रीका का दौरा बीच मे ही छोड़कर अपनी पत्नी के मैच को देखने वापस स्वदेश आ गए थे। अपनी पत्नी की उस डीफाईनिंग इनिंग को देखकर उन्हें 5 साल पहले इसी मैदान पर 2015 के  न्यूज़ीलैंड के विरुद्ध विश्वकप फाइनल में अपना प्रदर्शन याद आ रहा होगा जब उन्होंने  पहले ही ओवर में एक शानदार यॉर्कर पर ब्रेंडन मैक्कुलम को आउट करके ऑस्ट्रेलिया को जीत की राह पर अग्रसर कर दिया था। उस मैच में मिचेल ने 8 ओवर में 20 रन देकर 2 विकेट लिए थे। दूसरी ओर बेथ मूनी ने नॉट आउट 79 रन की सहायता से ऑस्ट्रेलिया की टीम 4 विकेट पर 184 रन रन बनाने में सफल हुई। ये तो भला हो दीप्ति शर्मा का जिसने इनिंग के 17वें ओवर में 3 रन देकर दो विकेट निकाले। वरना स्कोर और भी अधिक होता। 
निसंदेह ये एक विनिंग स्कोर था। फिर भी शैफाली की फॉर्म और हरमनप्रीत, स्मृति और जेमिमा रोड्रिग्ज जैसे खिलाड़ियों के चलते एक संघर्ष की उम्मीद सभी कर रहे थे। लेकिन जब इनिंग के पहले ओवर की तीसरी ही गेंद पर शैफाली ने विकेट के पीछे हीली को कैच थमा दिया तो भारत की उम्मीदों पर पानी फिर गया।अगले ही ओवर में जेमिमा भी चलती बनी। चौथे ओवर में स्मृति और छठवें ओवर में हरमनप्रीत भी आउट हो गईं।उस समय स्कोर था 5.4 ओवरों में 4 विकेट पर 30 रन। अब कोई उम्मीद बाकी नहीं रही थी। अंततः पूरी टीम 99 रनों पर ढेर हो गई। भारत 85 रनों से मैच हार गया।ये एक शानदार शुरुआत की निराशाजनक अंत था।
निसंदेह खेल में हार जीत चलती रहती है। पर किसी ने भी ऐसी हार की कल्पना नहीं ही की होगी। खुद खिलाड़ियों ने भी। और ऐसी हार आपको ही नहीं बल्कि खुद खिलाड़ियों को भी उदास करती है। कुछ इस उदासी को छिपा ले जाते हैं पर कुछ नहीं भी। शैफाली ऐसी ही खिलाड़ी थी। उनकी आंखों से आँसू बह निकले। दरअसल ये आँसू बता रहे थे कि शैफाली और उनकी साथी खिलाड़ियों के सघन सपनों में अभी भी सीलन बाकी है जिसे उन्हें आने वाले दिनों में अपनी मेहनत और संघर्ष की आंच से तपाना है।
लेकिन एक बात तय है कि इस बार टीम भले ही हार गई हो पर पूरी प्रतियोगिता में भारतीय बालाओं का प्रदर्शन उम्मीद जगाता है कि आने वाला समय इनका ही है। ये इसलिए कि इन खिलाड़ियों में ज़ज़्बा है ,जुनून है,उनकी आंखों में सपने हैं और उन सपनों को पूरा करने की ललक है। आप इन खिलाड़ियों की मेहनत और संघर्ष के किस्से पढ़िए और उनके बारे में जानिए तो समझ आएगा। रोहतक की शैफाली अभी 16 साल की हैं। जब 10 साल की थीं तो चोट लगने के डर से उन्हें लड़कों के साथ टूर्नामेंट में खेलने की अनुमति नहीं मिली तो उन्होंने अपने बाल लड़कों जैसे करा लिए और अपनी पहचान छिपाकर उसमें खेलने में सफल रहीं। ऋचा घोष भी अभी 16 साल की हैं।वे सिलीगुड़ी से हैं। 2016 में उनके पिता अपनी बेटी के क्रिकेट करियर के लिए अपने व्यवसाय को अस्थायी तौर पर बंद करके कोलकाता आ गए। आगरा पूनम यादव अब सीनियर खिलाड़ी हैं। उनके पिता नहीं चाहते थे कि वे क्रिकेट खेलें। पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। खेल जारी रखा। खेल से रेलवे में नौकरी मिली और अपनी पहली सैलरी से पिता की डेयरी की छत डलवाई।पिता को गलती का अहसास हुआ। राधा यादव 20 साल की हैं। उनके पिता जौनपुर से आकर कांदिवली मुम्बई से सब्जी का ठेला लगाते हैं। दरअसल भारतीय महिला क्रिकेट टीम छोटे छोटे शहरों की छोटी छोटी लड़कियों के बड़े बड़े सपनों की ऐसी ही छोटी छोटी अंतर्कथाओं से बुनी एक बड़ी कहानी है। एक ऐसी कहानी जो पुरुष क्रिकेट की तरह ही बड़े बड़े मेट्रोपोलिटन शहरों से निकल कर छोटे छोटे शहरों की गली मोहल्लों तक पहुंच गया है। क्रिकेट भी अब निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की लड़कियों की आंख का सपना बन गया है।
               लेकिन दुःख की बात ये है कि भारत में महिला क्रिकेट की वो स्थिति अब भी नहीं बन पाई है जो पुरुष क्रिकेट की है। पहला महिला टेस्ट मैच 1934 में खेला गया था ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच। पर भारत में महिला क्रिकेट की नींव पड़ी 1973 में जब वूमेंस क्रिकेट असोसिऐशन ऑफ़ इंडिया का गठन हुआ और 1976 में भारतीय महिलाओं ने पहला टेस्ट मैच खेला वेस्ट इंडीज़ के विरुद्ध। तमाम दबावों के बाद 2006 में वूमेंस एसोसिएशन का बीसीसीआई में विलय हो गया। इस उम्मीद के साथ कि महिला क्रिकेट की दशा सुधरेगी। ऐसा हुआ नहीं। बीसीसीआई ने भी इस और कोई ध्यान नहीं दिया। ना उन्हें पैसा मिला,ना मैच मिले,ना बड़ी प्रतियोगिताएं मिली और ना आईपीएल जैसा कोई प्लेटफार्म। इसके विपरीत आस्ट्रेलिया  ने महिलाओं के लिए एक सफल बिग बैश लीग स्थापित की है और उसके 5 सफल सीजन सम्पन्न हो चुके हैं। ऑस्ट्रेलिया की विश्व कप विजेता महिला टीम को पुरुषों के बराबर इनामी राशि मिलेगी। लेकिन बीसीसीआई दोनों में बड़ा भेद रखती है। जहां  पुरुषों में टॉप कॉन्ट्रैक्ट वाले खिलाड़ी को 7 करोड़ के मुक़ाबले लड़कियों को केवल 50 लाख मिलते है। यानी 14 गुना फ़र्क़। तर्क ये कि जो कमाई होती है वो पुरुषों के क्रिकेट से होती है। यानी बीसीसीआई को सिर्फ कमाए की चिंता है ना कि महिला क्रिकेट को बढ़ावा देने की।शायद यही कारण है अभी भी घरेलु क्रिकेट का भी कोई समुचित ढांचा विकसित हो पाया।
लेकिन इस सब के बावजूद अगर लडकियां विश्व पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराती हैं और एक ताकत बन कर उभर रहीं हैं तो ये उनकी खुद की मेहनत है,लगन है। ये उनके भीतर की बैचनी और छटपटाहट है अपने को सिद्ध करने की,साबित करने की। कोई गल नी जी। इस हार से ही जीत का रास्ता बनेगा कि 'गिरते हैं शह सवार मैदाने जंग में..। कम ऑन सुपर वीमेन इन ब्लूज।

Friday 6 March 2020

और उन बुकमार्क्स का क्या जो यूँही बीत जाते हैं


और उन बुकमार्क्स का क्या जो यूँही बीत जाते हैं
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बिला शक किसी भी किताब का कंटेंट सबसे महत्वपूर्ण होता है। लेकिन किताब की फॉर्म यानि रूप सज्जा के भी तो कुछ मायने होते हैं। किताब की छपाई,अक्षरों का फॉन्ट और डिज़ायन, काग़ज़ और उसका आवरण के भी तो कुछ मायने होते है कि किताब के प्रति आकर्षित करने,उसे खरीदने और पढ़ने के उत्प्रेरक कारक बन जाते हैं। और  उन आनुषंगिक चीजों का क्या जो एक किताब के बीच से होकर की जाने वाली यात्रा को पूरी करने में साथ निभाती हैं। उन कुर्सी मेजों का क्या जिन पर बैठ कर ये यात्राएं पूरी होती हैं। किताबों की उन जिल्दों और कवरों का क्या जो उनकी उम्र बढ़ाने के लिए चढ़ाई जाती हैं। उन बुक शेल्फ़ और बुक रैक्स का क्या जिन पर वे किताबें सजाई जाती हैं। किताबों की उस महक का क्या जो आपको मदहोश कर कर जाती है।

और इन सबकी तो अहमियत है भी। पर उन'बुकमार्क्स' का क्या जो इस यात्रा में महत्वपूर्ण किरदार निभाते हुए भी सबसे उपेक्षित रहते हैं। वे बुकमार्क्स जो इन लंबी यात्राओं के मध्य पड़ने वाली वे सराय सरीखे हैं जहां यात्री ठहरता है,आराम करता है और आगे की यात्रा के लिए निकल पड़ता है। ये वे लाइटहाउस हैं जो आगे की यात्रा का मार्ग दिखाते हैं। किताबों की यात्रा के अल्प विराम और अर्द्ध विराम हैं जो यात्रा को सही मायने में रवानी देते हैं। किताब से होकर की जाने वाली यात्रा के बीच जब भी कोई व्यवधान आता,कोई समस्या आती या यात्री को आराम करने का मन होता तो ये ही वे खूबसूरत किरदार होते हैं जो इन यात्रियों को रुकने की,सुस्ताने की और आगे की यात्रा करने की सहूलियत देते हैं।

 पर दुख! बेचारे कितने उपेक्षित रहते हैं! कहीं किसी दराज़ में, मेज़ के किसी कोने में या फिर पढ़ ली गई किताब के बीच गुमनाम ज़िन्दगी बिताते हुए! वे बस यूं ही बीत जाते हैं,रीत जाते हैं,खत्म हो जाते हैं!
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(खूबसूरत बुकमार्क्स जो बेटी ने बनाकर गिफ्ट किए और कुछ विक्रेताओं ने किताबों के साथ भेजे)

ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...