Sunday 14 October 2018

एक वो और एक लॉन



एक वो और एक लॉन 

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ये शहर की एक पॉश लोकैलिटी है। इसे कभी अंग्रेज साहबों की रिहायश के लिए बसाया गया था। यहाँ बहुत सी बड़ी बड़ी पुरानी कोठियां हैं।ये कोठियाँ कई कई एकड़ में फ़ैली हैं। ज़्यादातर कोठियां रखरखाव के अभाव में भुतहा जंगल सी प्रतीत होती हैं। हर कोठी में सामने एक भरा पूरा  लॉन है। सामने नीरव शांत सड़कें। सड़क के दोनों और घने छायादार वृक्ष। इन्हीं कोठियों में से एक का बहुत ही खूबसूरत सा 'लॉन' है । उस कोठी की चहारदीवारी बहुत ऊँची नहीं हैं। सड़क से आते जाते ये 'लॉन' सबको दिखाई देता है।


इस 'लॉन' में यूँ तो उस कोठी में रहने वाले लोग अक्सर ही दिखाई देते हैं। खासकर शाम के समय। कई बार उस कोठी में आने वाले लोग भी मेजबानों के साथ बैठे दिखाई देते हैं। कभी कभार बच्चे भी खेलते खालते दीख जाते हैं । पर एक ऐसा व्यक्ति है जो सुबह से शाम तक उस लॉन के किसी ना किसी कोने में हमेशा दिखाई देता है। ये 'लॉन' और 'वो' व्यक्ति दोनों बरसों से ऐसे ही दीख रहे हैं। एक दूसरे के साथ। एक दूसरे से गुंथे हुए। एक दूसरे में समाए हुए। ऐसा लगता है मानो एक दूसरे के लिए ही बने हैं। इतने सालों में बहुत ही कम मौके ऐसे आए होंगे जब 'वो' 'वहां' ना दिखाई दिया हो,बहुत ही कम।
'वो' यानी एक दुबला पतला स्याह सा आदमी। शरीर पर उसी के रंग से मेल खाते मटमैले से कपड़े। हो सकता है वे भी कभी सुर्ख रंगों वाले रहे हों। लेकिन जिसने भी देखा उसे ऐसे ही मटमैले स्याह रंग वाले वस्त्रों में देखा। सच तो ये है कि वस्त्र कहना शायद निर्लज्जता भी मानी जा सकती है। दरअसल वे चिथड़े होते हैं जिन पर कई जगह थेकलियां लगी होतीं हैं। कई जगह सीवन उधड़ी होती। और जिस शरीर पर ये वस्त्र टंगे होते वो शरीर क्या बस समझो अस्थियों का एक जालनुमा कोई चीज़ है। एक ऐसी चीज जिसमें लकड़ीनुमा अस्थियों को बेतरतीब सा एक दूसरे के ऊपर रख ज्यामिति बना दी गई है। हाँ, सर पर बेहिसाब बाल हैं जो बेतरतीब से चारों और बिखरे रहते हैं। पर क्या ही कमाल है कि असंतुष्टि के तमाम उपादानों के बावजूद उसके चेहरे पर एक भोली सी मुस्कान पसरी रहती है।
'उसका' यानी लॉन का और 'वो' के चेहरों का भूगोल लगभग एक सा है। दोनों के चहरे लगभग सपाट और चौकौर। 'उसके' चेहरे पर फूलों की खुशनुमा सी मुस्कराहट हर मौसम में बिखरी रहती है। फ़िज़ा में फ़ैली उन फूलों की सुगंध 'उसके' चहरे की मुस्कान को स्निग्धता से भर देती है। और 'उसकी' इस स्निग्ध मुस्कराहट से 'वो' के चहरे की मुस्कराहट थोड़ी और गोलाई ले लेती है और 'वो' के चहरे के चौकोरपने को थोड़ा ढीला कर देती,उसके चहरे के किनारों की तीक्ष्णता को थोड़ा स्मूद कर देती है। 'वो' के चहरे की मुस्कराहट जितनी गोल होती जाती एक संतुष्टि का भाव सुर्ख से सुर्खतर होता जाता है। ऐसा लगने लगता है कि 'वो' के चहरे की संतुष्टि एक स्थायी भाव है। 'वो' का चेहरा कठोर है। पर ये कठोरता मुस्कराहट की मुलायमियत और बेफिक्री की आभा में हमेशा छिपी रहती है। ठीक वैसे ही जैसे 'उसकी' ज़मीन की कठोरता घास की मुलायमियत से ढकी रहती है। खिलते,महकते,झूमते फूल मंद मंद हवा में जितनी ज़्यादा अपनी सुगंध बिखेरते जाते,उतना ही 'वो' का रूखा सूखा चेहरा लावण्य से भर भर जाता है।
'वो' 'उसके' भीतर हर समय गतिशील रहता है। हर समय। समय के हर अंतराल में 'वो' एक अलग जगह पर दीखता है। अभी यहां तो थोड़ी देर में सरक कर वहां,फिर और आगे,फिर और आगे। मानो ये सरकना ही उसकी जिंदगी हो। 'वो' की गतिशीलता की सीमा 'उसकी' चौहद्दी है। ऐसा लगता मानो 'वो' समय के दायरे में बहता एक पल है। निर्द्वन्द सा। लेकिन उद्दंड नहीं। उसके बहने में एक लय है। किसी राग की बंदिश की तरह। उसके बहाव को देखकर अहसास होने लगता है मानो वो एक हिमखंड है। एक विशाल हिमपिंड से टूटा छोटा सा हिमखंड जो अपार नीली जल राशि में मंद गति से तैर रहा हो। फ़र्क़ रंग का है। वो हिमखंड के शुभ्र रंग की तरह नहीं है। वो स्याह है और घास के हरे समुद्र में दरख्तों और पेड़ पौधों से अठखेलियां करता बहता रहता है। स्याह रंग वाला 'वो' 'उसकी' खूबसूरती पर काला टीका लगा होने का आभास देता है। कभी कपाल पर, कभी गाल पर,कभी भाल पर। आखिर वो उसका टीका हो भी क्यूँ ना। उसने इतने जतन से उसे सजाया जो है। उसके बरसों की पसीने की कमाई है। ऐसे में किसी की नज़र लग गई तो। मखमली हरी घास और दुनिया भर के रंग बिरंगे और महक वाले खूबसूरत फूलों और बहुत सारे दरख्तों के बीच 'वो' टीका ही हो सकता है। उससे कम या ज़्यादा कुछ भी नहीं।
'वो' हमेशा 'उसके' पेड़ पौधों से एक गहरे संवाद में संलग्न रहता है। कई बार लगता वो उनके प्यार में है। उसके हाथ में हमेशा लौह धातु का एक औजार होता है। उसके हाथ में इस औजार को देख कर 'उसके' शत्रु होने का संदेह हो सकता है। पर ऐसा है नहीं। ये कठोर धातु वाला औजार दरअसल 'उसकी' और 'वो' की मुलायम मीठी मुस्कराहट का सबसे बड़ा कारक है। 'वो' के सधे हाथ अपने औजार से मृदा और वनस्पति से संवाद करते हुए इतने नियंत्रित ढंग से चलायमान होते मानो कोई वाद्ययंत्र बजा रहा हो। इस औजार के जरिए ही तो 'वो' ना केवल मृदा से बल्कि 'उसके' सभी रहवासों से भी संवाद करता है। एक ऐसा संवाद जिसमें गजब की लय है जो धीरे धीरे संगीत में रूपांतरित होती जाती और अनगिनत रंगों के रूप में चारों और बिखर बिखर जाता है। 'वो' 'उसके' प्यार में है तो संगीत के रंग बिखरने लाजिमी हैं। इस संगीत को 'वो' के 'उसके' रहवासों के साथ किये जा रहे संवाद को देख कर ही महसूस किया और सुना जा सकता है।
'उसके' प्यार में डूबा 'वो' 'उसको' हर ताप संताप से बचाने का जतन करता है। इस प्रयास में 'वो' पेड़ पौधों और दरख्तों के इर्द गिर्द उग आते अवांछित तत्वों का सफाया करके एक बड़े दरख़्त के नीचे इकट्ठा करता रहता है। शाम होते होते उस ढेर को बाहर फेंक आता है। ये क्रम अनवरत चलता रहता है। ये ढेर सूख कर उसकी तरह स्याह हो जाता है। जब तब 'वो' उस ढेर के पास सुस्ताने बैठता है तो वे एक जैसे दो ढेर लगते हैं। कभी कभी तो वो और ढेर मिलकर एक बड़ा ढेर लगने लगते हैं। 
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क्या पता किसी एक दिन 'वो' को भी उसी ढेर में बदल जाना है।
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क्रिया को बदलते देर नहीं लगती। 'वो' अब 'है' से 'था' में बदल गया। और निपट अकेला 'लॉन' धीरे धीरे जंगल में परिवर्तित हो रहा है।

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