Sunday 21 June 2015

दास्तान मुग़ल महिलाओं की



              

                   जब 'नया ज्ञानोदय' और 'बी.बी सी' ने  इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर हेरम्ब सर की लिखी पुस्तक  'दास्तान मुग़ल महिलाओं की' को 2013-14 की चर्चित पुस्तकों में शुमार किया और ज्ञानोदय ने उस वर्ष की सबसे चर्चित 6 पुस्तकों में शामिल किया तो पहली बार इस किताब के बारे में जानकारी हुई। ज्ञानोदय की 6 पुस्तकों की सूची में एक यही पुस्तक नॉन फिक्शन किताब थी। इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते इसके प्रति उत्सुकता होना स्वाभाविक ही था। इसके टाइटल ने इसको पढ़ने की ललक थोड़ी और बढ़ा दी। कई महीने पहले इस किताब को खरीद लिया था। ये दीगर बात है कि इसको ख़त्म अभी अभी किया है। किताब को उत्साह से पढ़ना शुरू किया लेकिन जल्द ही उत्साह कम होने लगा।सात अध्याय में लिखी किताब का पहला अध्याय बाबर की नानी इबुस्कुन पर आधारित है जिसकी पृष्ठभूमि में मध्य एशिया है। दरअसल इसके पढ़ने में कठिनाई मध्य एशिया के स्थानों के नाम और व्यकिवाचक फारसी नामों को लेकर है जो आपके पढ़ने की एकाग्रता को कहीं ना कहीं बाधित करते हैं खासकर इतिहासेत्तर किताब के रूप में पढ़ने पर तो अवश्य ही।  इसके विषय में जब मैने हेरम्ब सर से कहा तो उन्होंने मज़ाक में कहा कि 'मैं सबको इसे पीछे से पढ़ने की सलाह देता हूँ'। लेकिन थोड़ा सा धैर्य बनाए रखने पर आप इसमें जल्द ही डूबने उतराने लगते हैं। इस किताब की शुरुआत कठिन ज़रूर है लेकिन जैसे जैसे आप आगे बढ़ते हैं आनंद का सोता एक पहाड़ी नदी की तरह आपके मन में बह निकलता है और आप उसके  तेज बहाव में बहते चले जाते हैं। दरअसल भूगोल और इतिहास एक दूसरे से घात प्रतिघात करते चलते हैं। इसमें भी कुछ ऐसा ही है। जब तक पात्र मध्य एशिया के कठिन और दुर्गम प्रदेशों में रहते है उनकी कहानी भी कठिन और शुष्क सी मालूम दीख पड़ती है लेकिन जैसे जैसे वे पात्र अपेक्षाकृत कम दुर्गम और उर्वर प्रदेश में आते चले जाते हैं वैसे वैसे इतिहास अधिक रंगोंवाला और अधिक रसपूर्ण बन पड़ता है। शायद यही कारण है कि अंतिम दो अध्याय सबसे दिलचस्प और बेहतरीन बन पड़े हैं। क्योंकि उस समय किरदार भारत की समतल उर्वर हरी भरी धरती पर आ चुके होते हैं।
                किताब अपने कथ्य और कहन दोनों ही कारणों से बेजोड़ बन पडी है। मुग़लकालीन महिलाओं के बारे में आप के दिमाग में जो पहले पहला ख्याल आता है उससे या तो आपके मन में मुमताज़महल और नूरजहाँ की और बहुत हुआ तो महम अनगा की तस्वीर उभरती है या फिर हरम में रहने वाली असंख्य बेग़मों,जिनकी स्थिति अपनी दासियों से भी गई बीती होती थी,की तस्वीर उभरती है। लेकिन किताब में इनसे इतर ऐसी मुग़ल महिलाओं की दास्ताँ हैं जिनके बारे में या तो हम बिलकुल नहीं जानते या थोड़ा बहुत जानते हैं जिनका कि इतिहास में पारिवारिक नामावली पूरा करने भर को उल्लेख किया  गया है। इस किताब में उन महिलाओं के मुग़लों के शानदार इतिहास को बनाने में महती भूमिका को स्थापित करने की सफल कोशिश है जिसकी कि तत्कालीन इतिहासकारों ने उपेक्षा की थी।भले ही आधुनिक सन्दर्भों के अनुरूप इसमें नारी विमर्श ना भी हो,भले ही इसमें राजपरिवार की स्त्रियों की दास्ताँ कही गयी हो जिन्होंने राजशाही को ही मज़बूत बनाने की कोशिश की हो लेकिन ये भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि मध्यकालीन समाज में जहाँ नारी का अस्तित्व एक ऑब्जेक्ट से अधिक कुछ नहीं था ऐसे में कुछ महिलाएँ अपनी इच्छा शक्ति और योग्यता के बल पर उस समय के हिंसक और निरंतर संघर्षों वाले माहौल में पुरुषों के वर्चस्व वाले राजनीतिक परिदृश्य को ना केवल प्रभावित करती हैं बल्कि अपने को स्थापित भी करती हैं। ये किताब उन महिलाओं की गरिमा को ही नहीं बल्कि उनके योगदान भी को बखूबी स्थापित करती है जिसे इतिहास ने शायद सायास भुला दिया था। फिर बात चाहे चग़ताई इबुस्कुन की हो या महारानी खातून की हो, ईशान दौलत खानम,हर्रम बेग़म या फिर हमीदा बानो बेग़म की।
                                  जब इतिहासकार कवि भी होता है तो उसके इतिहास लेखन में अतिरिक्त लालित्य आ जाता है। फिर वे प्रो. हरबंस मुखिया हों या प्रो. लाल बहादुर वर्मा और प्रो. हेरम्ब चतुर्वेदी तो यहाँ हैं हीं। प्रो. चतुर्वेदी मुग़लकालीन महिलाओं का इतिहास लिखते है तो उसमे ललित निबंध सा आनंद आता है। ये उद्धरण एक बानगी भर है "..बाबर के जीवन में ये दो महिलाएं ही प्रमुख हुईं। एक ने एक यायावर,संसाधनहीन शासक के जीवन में नई आशा नई दिशा व नया स्वप्न दिया तो दूसरी ने उसे क्रियान्वित करने का उत्साह व सम्बल दिया। एक ने अभिलाषा को जागृत किया तो दूसरी ने उसे ऊर्जा व गति प्रदान की। एक ने विचार दिया तो दूसरी ने उसे व्यवहत करने का संकल्प। एक ने उर्वर भूमि तलाशी व बीज बो दिया दूसरी ने निश्चित कार्य योजना के साथ उसे अंकुरित कर दिया। एक ने मन मस्तिष्क टटोला,दूसरी ने ऐसी मनःस्थिति ही निर्मित कर दी …।"   दरअसल इतिहास निर्मिति और लेखन एक दुष्कर कार्य है। जैसे पत्थरों में से कोई मोती ढूंढ लाना। इतिहासकार उस मूर्तिकार की तरह होता है जो अपनी अंतर्दृष्टि और तर्क की छेनी हथौड़े से पत्थर को तराशकर खूबसूरत मूर्ति का रूप देता है।प्रो. चतुर्वेदी भी मुग़लकाल के सात अनजाने पर महत्वपूर्ण पत्थरों को खोजते हैं उन्हें तराशकर सात खूबसूरत मूर्तियों का निर्माण करते हैं।अगर इनमे से प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में हर्रम बेग़म प्रभावित करती है तो एक प्रेमकथा के रूप में हमीदा बानो की कहानी अद्वितीय बन पडी है। जिसकी तुलना किसी भी बेहतरीन से बेहतरीन प्रेम कहानी से की जा सकती है। लगभग इसी के साथ साथ 'बेदाद ए इश्क़ रूदाद ए शादी' पढ़ी थी। उसमें कई लोगों के अंतर्जातीय और अन्तर्धार्मिक विवाहों को लेकर आत्म संघर्षों के  वक्तव्य बेहतरीन बन पड़े हैं। उन वक्तव्यों में पूरे समय एक तनाव की व्याप्ति रहती है जो उनसे पाठक को बांधता है। उनसे एक अलग धरातल की किस्सगोई होने के बावजूद हमीदा बानो के किस्से में भी उसी तरह के तनाव की व्याप्ति रहती है। अनारकली को लेकर भारतीय जनमानस में एक अलग रोमानी छवि बसी है। प्यार के प्रतीक के रूप में। वे यूरोपियन यात्रियों के वृत्तांत के साक्ष्यों के सहारे इस छवि को तोड़ते हैं। जब ये स्थापित होता है कि सलीम ने अपनी सौतेली माँ अनारकली से बलात् दुष्कर्म किया तो निश्चित ही एक बड़ा मिथक टूटता है। और जब अकबर को ये पता चलता है कि इसमें स्वयं अनारकली की भी सहभागिता तो वो अनारकली को लाहौर के किले  दीवार में चुनवा देता है। दरअसल ये मुग़ल शासकों की विलासिता,लम्पटता  तो बताता ही है साथ ही अन्तःपुर हरम में व्याप्त षड्यंत्रों अनाचारों और बदहाली की भी कहानी कहती है। 
         सच तो ये है जब वे ये किताब लिख रहे होते हैं तो वे केवल एक किताब नहीं लिख रहे होते हैं बल्कि कविता में इतिहास बुन रहे होते हैं और इतिहास में कविता रच रहे होते हैं। फिलहाल उनके एक नए ऐतिहासिक महाकाव्य की प्रतीक्षा में। 



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