Sunday, 28 June 2015

कबूतर और बहेलिया



बहेलिया पहले डालेगा चुग्गा आश्वासनों का
उसमें मिलाएगा सुनहरे भविष्य के सपनों की अफीम
जब मदहोश हो जाएंगे कबूतर सारे
तो बिछाएगा मजबूत जाल
जिसका एक सूत्र होगा नस्ल का
एक बतियाने की बोली का
एक रहने की डाल का
एक उनके शरीर के रंगों का
जो रंगा होगा धर्म और देशभक्ति के गहरे रंगों से
इस बार बहेलिया नहीं खड़ा होगा पेड़ के पीछे
क्योंकि वो जानता है उनके उड़ जाने की बात
बल्कि हाथ में लिए चुग्गा खड़ा होगा कबूतरों के पास
और पेड़ के पीछे होंगे बहेलिए के व्यापारी मित्र
जिनकी गिद्ध दृष्टि टिकी होगी कबूतरों के घोंसलों पर
और भिड़ा रहे होंगे जुगत पेड़ों को कब्जाने की
इस बार नहीं उड़ पाएंगे मदहोश कबूतर
बाई द वे उड़ भी जाएं
तो जाएंगे कहाँ?
चूहे के पास ही ना !
पर वे नहीं जानते कि
चूहा भी मिल चुका है पेड़ के पीछे वाले व्यापारियों से
और खुद भी बन गया है बड़ा बहेलिया
उसके जाल कुतरने वाले दांत हो गए हैं भोथरे
और उसके हाथ लग गया है और भी ज्यादा मदहोशी वाला रसायन
सीख गया है कबूतरों को जाल में फंसाए रखने की जुगत
वो चलाएगा अस्मिता का जादू
नहीं हो पाएंगे आजाद कबूतर
तो मित्रों कहानी थोड़ी बदल गई है
नमूदार हो गए हैं कुछ नए किरदार
बहेलिया सीख गया है कुछ नए दांव पेंच
कबूतर भूल गए हैं कुछ कुछ एकता का पाठ।

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