पत्रकार लेखक विपिन धनकड़ का सद्य प्रकाशित उपन्यास ' गेट वेल सून सोनम ' अभी पढ़कर अभी समाप्त किया है। ये उनकी दूसरी पुस्तक है। इससे पहले उनके रोचक अनुभवों व संस्मरणों पर एक पुस्तक 'हाउस हसबैंड ऑन ड्यूटी' आ चुकी है।
विपिन एक ऐसे परिवेश से आते हैं जहां कृषि भूमि का मालिक होना सबसे गौरवपूर्ण माना जाता है और खेती करना सबसे बड़ा और सुगम जीविकोपार्जन का साधन। उससे इतर पुलिस या सेना में भर्ती को लेकर भी जहां खासा रोमान होता है। उनके पास ये दोनों रास्ते सहज ही सुलभ थे। लेकिन वे पारंपरिक सोच से हटकर अपने लिए पत्रकारिता का रास्ता चुनते हैं। ये एक साहसिक निर्णय था। इससे ज्यादा साहसिक निर्णय वे तब लेते हैं जब 17 साल के जमे जमाए पत्रकारिता के करियर को छोड़ स्वतंत्र लेखन को अपनाते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं वे पत्नी को नौकरी करने और खुद के लिए 'हाउस हसबैंड' की भूमिका चुनने का निर्णय लेते है। भारतीय समाज के पर्याप्त प्रगतिशील हो जाने के बावजूद ये अपने आप में एक साहसिक निर्णय कहा जा सकता है।
वे हाउस हसबैंड बनने के अपने इस निर्णय को ना केवल उजागर करते हैं,बल्कि एक हाउस हसबैंड की भूमिका को निभाने के दौरान के अनुभवों को बहुत ही ईमानदारी से कलमबद्ध करते हैं और दुनिया से साझा करते हैं।
ये भूमिका इसलिए कि किसी भी लेखक के लिए लीक से हटकर और अधिक प्रासंगिक विषयों पर लेखन का साहस और अपने अनुभवों का ईमानदारी से अंकन उसके लेखन को प्रामाणिक बनाता है और बेहतर भी। साहस और ईमानदारी अच्छे लेखन के जरूरी गुण की तरह है। विपिन में और उनके लेखक में ये गुण खूब हैं।
इस उपन्यास के केंद्र में हमारे आस पास का चिकित्सा परिदृश्य है। पिछले 50 सालों में चिकित्सा परिदृश्य में बहुत ज्यादा परिवर्तन आया है। जैसे-जैसे उपभोक्तावादी संस्कृति हावी होती चली गई,वैसे वैसे चिकित्सा क्षेत्र एक बाजार में तब्दील होता गया जिसमें मरीज एक व्यक्ति ना रह कर ग्राहक बन गया और चिकित्सा सुविधाएं उपभोक्ता वस्तु। डॉक्टर और मरीज के बीच का जो एक मानवीय सूत्र था वो बाजार की शक्तियों के दबाव टूट गया और उन दोनों के बीच का संवेदनशील रिश्ता क्षीण होता चला गया। वे संबंध विशुद्ध रूप से क्रेता और विक्रेता के संबंधों में बदलते गए जिसमें मुख्य भूमिका उपयोगिता और मुनाफे की है। सेवा भाव का विलोप होता चला गया।
इस उपन्यास के प्राक्कथन में जाने माने अनुवादक,लेखक,संपादक प्रभात सिंह सर इसको चिह्नते हुए लिखते हैं 'गुज़रे ज़माने के एमबीबीएस डॉक्टर मर्ज़ का इलाज तो खैर करते ही थे,हाथ में शिफ़ा होने के बाद भी उनका मानवीय चेहरा हमेशा नुमायां रहता था,उनकी हिदायतों पर अमल ना करने वाले मरीज़ डांट भी खाते थे। बच्चों और बड़ों के इलाज के लिए अमूमन एक ही डॉक्टर के आसरे रहते थे। विशेषज्ञता वाले इस दौर में,तमाम तरह की उपलब्धियों के बीच डॉक्टर का इंसानी चेहरा कहीं छूट गया क्यों लगता है।'
दरअसल ये उपन्यास चिकित्सा क्षेत्र की तमाम तरह की उपलब्धियों और तरक्की के बीच छूट गए इस मानवीय चेहरे को पहचानने की कोशिश है। उसको शिनाख्त करने की कयावद है। छोटी सी सही,लेकिन एक महत्वपूर्ण कोशिश।
आज के बहुत ही विडंबनापूर्ण और चुनौती भरे समय में चिकित्सा क्षेत्र की चालबाजियां,चालाकियां,शोषण के नित रोज ईजाद होते तरीके, सारी कमियां और दुर्गुण तो बहुत लाउड हैं। सिस्टम की सारी कठोरताएं बहुत आसानी से पहचानी जा सकती हैं। उन्हें चिह्नित किया जा सकता है। आज की असल जरूरत ही उस कोमलता को छूने की है जो इनके पीछे अभी भी मौजूद है। उसे पहचानने की जरूरत है जो मानवीयता अभी भी सांस ले रही है।
आज के नकारात्मकता के इस वातावरण में सकारात्मक चीजों को हाइलाइट करना कहीं अधिक जरूरी है। विपिन का ये उपन्यास उस जरूरत को पूरा करने का एक प्रयास है।
अस्पतालों में बाजार और मुनाफे से इतर एक पूरा जीवन भी सांस लेता रहता है। रोजमर्रा का जीवन। आम आदमी का जीवन। उस स्थान के जीवन के समानांतर जहां वो अस्पताल स्थित है। अपने सारे दुख सुख के साथ। अपनी जिजीविषा से उम्मीद पाता हुआ। जिसमें शामिल हैं बीमार,उनके तीमारदार,नर्स,गार्ड,वार्ड बॉय,कैंटीन कर्मी,डॉक्टर और उसका स्टाफ तो है ही।
इस उपन्यास के दो भाग है। पहले भाग में नायिका सोनम के बीमार होने के पर अस्पताल में भर्ती होने से लेकर ठीक होकर वापस घर जाने की कथा और दूसरे भाग में ऑपरेशन के लिए पुनः भर्ती होने से लेकर ठीक होकर वापस घर जाने तक। पहले में केवल अस्पताल और उसका जीवन है। दूसरे भाग में अस्पताल के जीवन के साथ-साथ फ्लैशबैक में नायक नायिका की प्रेम कहानी भी चलती रहती है।
इस उपन्यास की एक खूबी ये भी है कि इसमें वे सारे पात्र स्पेस पाते हैं जो बहुत सामान्य हैं और कहन में छूट जाते हैं या उपेक्षित रह जाते हैं,जैसे नर्सेज,वार्ड बॉय,गार्ड आदि। क्योंकि विपिन एक पत्रकार हैं,वे विवरण प्रमाणिक देते हैं। निःसंदेह उपन्यास में अस्पताल के अंदर और बाहर के जीवन का बहुत सुंदर और सजीव चित्रण है। तमाम जगहें ऐसी हैं जो मन में कहीं अटकी रह जाती हैं। एक जगह वे लिखते हैं। 'चाय उनके लिए सिर्फ एक पेय पदार्थ ना होकर यादों का एक गुलदस्ता थी। जिसमें सुख दुख के फूल जड़े थे।'
लेकिन ऐसा नहीं है कि इस पेशे से जुड़े स्याह पक्ष इसमें नहीं ही हैं। हैं, लेकिन संकेतों में। शुरू में ही नायिका को बेड खाली होते हुए भी मिलने में परेशानी का एक प्रसंग आता है जो साफ तौर पर बड़े अस्पतालों का मरीज को लूटने और उनकी असंवेदनशीलता का साफ संकेत है। अनावश्यक टेस्ट कराने,लापरवाही,लूट खसोट,असंवेदनशीलता, सभी के तो संकेत हैं। वे एक जगह लिखते हैं 'अस्पताल में बीमारी के साथ बिल भी चिंता का विषय है।' एक अन्य जगह वे लिखते हैं अस्पताल में पेड़ों के पैसे हैं। जिधर देखो लटके हैं और बरस रहे हैं। नर्स,डॉक्टर,स्टाफ दिन - पैसे उठाने में लगे हैं। जितने बेड पर मरीज,उतने पेड़। हिलाओ और उठाओ।' किसी और जगह लिखते हैं ' काम के घंटे ज्यादा और सैलरी कम होना एक वैश्विक समस्या बन चुकी है और अस्पताल भी ऐसा करके मरीजों को बीमार बना रहे हैं।'
कुल मिलाकर उपन्यास पठनीय बन पड़ा है। उसकी भाषा में रवानी है। शुरू करने के बाद एक बार में पढ़े बिना नहीं रहा जा सकता। निःसंदेह विपिन संभावनाओं से भरे लेखक हैं। लिखना उनका पैशन है। निकट भविष्य में उससे कुछ और बेहतर किताबों की उम्मीद की जा सकती है।
फिलहाल इस उम्दा उपन्यास के लिए लेखक को बधाई।
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