Tuesday 10 June 2014

आँसू




ये आंसू भी अजीब शै हैं। ख़ुशी में छलक जाते हैं और ग़म में बहने लगते हैं। 8 जून को रोलाँ गैरों की लाल मिट्टी पर समकालीन लॉन टेनिस के इतिहास के दो महान खिलाड़ी फ्रेंच ओपन का फ़ाइनल मैच खेलने
उतरे होंगे तो ना तो जोकोविच को और ना राफा को ये पता होगा कि उनकी आँख से आँसू छलकेंगे या बहेंगे। वे दोनों तो अपना अपना नाम खेल इतिहास में लिखने आए थे। यदि जोकोविच चारों ग्रैंड स्लैम जीतने वाले सात महान खिलाड़ियों की लिस्ट को और बड़ा करना चाहते थे तो नडाल निश्चित ही रोलाँ गैरों पर जीत की सूची  को कुछ और लम्बा  करने की चाहत लिए मैदान में उतरे होंगे। साढ़े तीन घंटे बीतते बीतते राफ़ा हाथ में मस्केटियर ट्रॉफी उठाए थे। ट्रॉफी से चिपकी उँगलियों पर लगे टेप उनकी असाध्य परिश्रम की कहानी बयाँ कर कर रहे थे और उनके भीतर सफलता के  असीम आनंद से फूटे स्रोते की कुछ बूंदे आँखों से  छलक छलक बाहर आ जाती थी। आँखों से छलका ये पानी खारा नहीं शहद जैसा मीठा था जिसे  राफा ही नहीं बल्कि उन जैसी सफलता पाने वाला हर शख़्स जानता होगा। कुछ क्षणों बाद जोको की आँख भी नम थीं ठीक राफा की तरह। फ़र्क इतना सा था कि इस पानी में सारे समन्दरों का खारापन सिमट  आया था जो उनके ग़म को डूबने नहीं देता था बल्कि फिर फिर दिल से उबार उबार कर चेहरे पर ले आता था।  सच में अजीब शै है ये आँसू। 


No comments:

Post a Comment

ये हार भारतीय क्रिकेट का 'माराकांजो' है।

आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...