Saturday 21 September 2024

गति जमा फैशन फ्लो जो





 'हम उनकी नींद से हैरत में हैं,उनकी योग्यता के समक्ष विनत है और उनकी स्टाइल की गिरफ्त में हैं।' 

ऐसा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन खेल की दुनिया की एक असाधारण प्रतिभा के बारे में कह रहे थे। उनके बारे में एक वाक्य में इससे बेहतर ढंग से नहीं कहा जा सकता।

दुनिया में कुछ ऐसी असाधारण खेल प्रतिभाएं हैं कि उनकी प्रतिभा की हदें मानवीय विश्वास की क्षमता को पार कर जाती हैं। लगने लगता है कि एक मानव के रूप में ऐसा कर पाना कहां संभव होता है। तब उसकी उसकी प्रतिभा के सामने या तो नतमस्तक हुआ जाता है या उस पर संदेह किया जाने लगता है या फिर दोनों ही।

हॉकी के जादूगर ध्यानचंद का स्टिक वर्क इतना शानदार था कि लोगों को संदेह होता था कि उनकी स्टिक में चुंबक लगी है। तभी वे इतनी शानदार ड्रिबलिंग को अंजाम दे पाते हैं कि गेंद उनकी स्टिक के ब्लेड से अलग ही नहीं होती। फिर उनकी स्टिक को तोड़ कर देखा जाता। पर ऐसे हर वाक्ये से उनकी विलक्षण प्रतिभा पर मुहर लगती जाती। खेलों की दुनिया के ऐसे प्रतिभावान वे इकलौते खिलाड़ी नहीं थे।

ये साल 1959 का 21 दिसंबर का दिन था। कैलिफोर्निया के लिटिल रॉक कस्बे में सिलाई का काम करने वाली एक महिला फ्लोरेंस ग्रिफ़िथ और इलेक्ट्रिशियन रॉबर्ट के 11 बच्चों में से सातवें नंबर के बच्चे के रूप में एक लड़की जन्म लेती है। इसे ही आगे चलकर एक महान एथलीट के रूप में जाना जाना था। 

वो लड़की अभी चार साल की ही हुई थी कि उसके माता पिता अलग हो जाते हैं और माता अपने बच्चों के साथ लिटिल रॉक छोड़कर कैलिफोर्निया के दक्षिणी हिस्से में बसे वॉट्स की सार्वजनिक आवास परियोजना में आ जाती है।

स लड़की को दौड़ने से प्रेम है और इस कदर प्रेम है कि वो बचपन में वो जैक रैबिट का पीछा करके दौड़ने के लिए खुद को तैयार करती हैं। वो केवल सात साल की उम्र में ही प्रतिस्पर्धात्मक रूप से दौड़ना शुरू कर देती है। उसके परिवार की संसाधनों की कमी और निर्धनता उसके लक्ष्य में बाधा नहीं ही बनने पाती। उसके उलट वो एक और प्रेम करने लगती है और प्रेम के द्वैत में जीने लगती है। उसका दूसरा प्रेम फैशन था। वो ना केवल दौड़ने के अपने पैशन को जीती है, बल्कि वो फैशन में भी कमाल की रुचि विकसित कर लेती है जिसे बाद में उसका ट्रेडमार्क बन जाना था। आगे के जीवन में उसकी एक प्रेम से दूसरे प्रेम में आवाजाही होती रहती है और धीमे धीमे समय की आंच में पकते प्रेम के दो रूप एकाकार हो जाते हैं।

ब वो प्राथमिक विद्यालय में थीं तो वह शुगर रे रॉबिन्सन संगठन में शामिल होती है और सप्ताहांत  ट्रैक मीट में भाग लेना शुरू कर देती है। जल्द ही अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करती है और 14 व 15 साल की उम्र में लगातार दो साल जेसी ओवेन्स नेशनल यूथ गेम्स में जीत हासिल करती है।


1978 में कैलिफ़ोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी में दाखिला लेती है, लेकिन 1979 में अपने परिवार की आर्थिक मदद करने के लिए पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। 'पहले प्रेम' खेल का साथ भी उससे छूट जाता है। वो अब एक बैंक टेलर की नौकरी करने लगती है और 'दूसरे प्रेम' फैशन का हाथ पकड़ती है। पर भाग्य पलटा खाता है। उसकी प्रतिभा इसका निमित्त बनती है। कैलिफोर्निया विश्विद्यालय के उसके कोच बॉब केर्सी उसे  वित्तीय सहायता दिलाते हैं और वो फिर से विश्वविद्यालय में वापस आती है। वो अब ना केवल पढ़ाई बल्कि अपना पैशन भी जारी रख पाती है। वो अब ना केवल  1983 में मनोविज्ञान में स्नातक की डिग्री भी प्राप्त करती है बल्कि एक बेहतरीन धावक के रूप में अपनी प्रतिष्ठा भी प्राप्त करती है

सकी मेहनत रंग लाती है। 1984 के लॉस ऐंजिलिस ओलंपिक के लिए अमेरिका की एथलेटिक्स टीम में चुनी जाती है। लॉस एंजिल्स के ग्रीष्मकालीन ओलंपिक  खेलों में अपने गृहनगर में दौड़ते हुए 200 मीटर की दौड़ स्पर्धा में रजत पदक जीतती है। 

रिवार की आर्थिक स्थिति एक बार फिर  उसे खेल छोड़ने के लिए मजबूर करती है और वो 1984 के ओलंपिक के बाद दौड़ना छोड़कर फिर से बैंक की नौकरी करती है और ब्यूटीशियन के रूप में भी। 

मय बीतता जाता है। उसका दौड़ाने का जुनून एक बार फिर ज़ोर मारता है और 1987 में फिर से ट्रैक पर लौट आती है और फिर से प्रशिक्षण लेना शुरू करती है। इस बार उसका लक्ष्य दक्षिण कोरिया के सियोल में 1988 के ओलंपिक होता है। उसी साल वो सुप्रसिद्ध एथलीट जैकी जॉयनर कर्सी के भाई अल जॉयनर से शादी करती है जो स्वयं भी एक बेहतरीन एथलीट और कोच होता है और 1984 के ओलंपिक  खेलों में ट्रिपल जंप के लिए स्वर्ण पदक विजेता भी। अब वे बॉब केर्सी की जगह अपने पति अल जॉयनर से प्रशिक्षण प्राप्त करने लगती है।

र तब 16 जुलाई, 1988 को वो लड़की एक इतिहास रचती है। उस दिन इंडियानापोलिस में ओलंपिक के ट्रायल में 100 मीटर दौड़ में एक महिला के लिए सबसे तेज़ समय का विश्व रिकॉर्ड बनाती है। उसका समय 10.49 सेकंड था। उसने अपनी हमवतन एवलिन एशफ़ोर्ड के रिकॉर्ड को .27 सेकंड से पीछे छोड़ दिया था। एशफ़ोर्ड, जिसने 1984 में अपना रिकॉर्ड बनाया था, 1988 के ओलंपिक में 100 मीटर में ग्रिफ़िथ जॉयनर के बाद दूसरे स्थान पर रही। उस समय उस लड़की की उम्र 28 साल थी।

 वो यहीं नहीं रुकी। अब वो ओलंपिक में भाग लेने दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल आई। यहां उसने 10.54 सेकंड के समय के साथ 100 मीटर महिला स्पर्धा का स्वर्ण पदक जीता। और उसके बाद 200 मीटर स्पर्धा का 21.34 सेकंड का विश्व रिकॉर्ड के साथ स्वर्ण पदक जीता। उस ने उस ओलंपिक में 4×100 मीटर रिले में तीसरा स्वर्ण पदक जीता और 4×400 मीटर रिले में रजत पदक जीता। उसके 100 और 200 मीटर स्पर्धा के विश्व रिकॉर्ड बहुत सारे देशों के पुरुषों के रिकॉर्ड से बेहतर थे। कमालनये है कि ये दोनों रिकॉर्ड आज तक कायम हैं।

सा करने वाली उस असाधारण एथलीट का नाम फ्लोरेंस ग्रिफिथ जॉयनर था जिसे 'फ्लो जो' के नाम से भी जाना जाता है।

 ये कुछ ऐसा असाधारण और अविस्मरणीय था जिसे दुनिया सहज स्वीकार नहीं कर पा रही थी। उस ओलंपिक में पुरुषों की 100 मीटर स्पर्धा असाधारण गति का प्रदर्शन करते हुए कनाडा के बेन जॉनसन ने जीती थी। लेकिन वे डोप टेस्ट में फेल हो गए। इसलिए फ्लो जो का असाधारण करनामा भी संदेह के घेरे में आ गया। लोगों को लगा कि उनका ये प्रदर्शन भी स्वास्थ्यवर्धक दवाओं का परिणाम है। लेकिन उनके जितने भी परीक्षण हुए, उनमें से एक में भी वे फेल नहीं हुईं।

रअसल वे उम्र के उस पड़ाव पर ये कारनामा कर रहीं थीं जब बाकी एथलीट ट्रैक से विदा ले लेते हैं। विश्व रिकॉर्ड बनाते समय वे 28 साल की थीं। इसलिए उनके बारे में संदेह और अफवाहें ताउम्र उनके साथ रही। उनके पूरे करियर के दौरान उनसे इस बारे में पूछा जाता रहा और उन्होंने हमेशा इन अफवाहों का खंडन किया।

साल 1989 में एक पूर्व अमेरिकन एथलीट डेरेल रॉबिन्सन ने एक यूरोपीय पत्रिका को बताया कि ग्रिफ़िथ जॉयनर ने उसे ग्रोथ हॉरमोन खरीदने के लिए पैसे दिए थे। लेकिन वे कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाए। जबकि अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति के चिकित्सा आयोग का कहना था कि 'आयोग ने 1988 ओलंपिक के दौरान ग्रिफिथ जॉयनर पर कठोर दवा परीक्षण किए थे और उनका परीक्षण हमेशा नकारात्मक आया था।'

ग्रिफ़िथ जॉयनर ने सियोल ओलंपिक के बाद ट्रैक से संन्यास ले लिया। 22 फरवरी 1989 को सियोल ओलंपिक खेलों के पांच महीने बाद  जब उन्होंने सन्यास लेने की घोषणा की तो एक बार फिर वे लोगों के संदेह के घेरे में आ गई कि उन्होंने सन्यास  कुछ दिन बाद लागू होने वाले  कठोर परीक्षण के कारण लिया है।

लोगों के संदेह का आलम ये था कि उन्होंने उनकी मृत्यु को भी संदेह की दृष्टि से देखा गया। उनकी मृत्यु केवल 38 वर्ष की उम्र में 1998 में सोते हुए हुई। लोगों को लगा ये मृत्यु अस्वाभाविक है ओर स्वास्थ्यवर्धक दवाओं के कारण हुई है। उनके शव का परीक्षण हुआ। कुछ भी संदेहास्पद नहीं निकला। दरअसल उनकी मृत्यु मिर्गी के दौरे के कारण हुई थी। इससे पहले भी उन्हें हवाई यात्रा के दौरान ऐसा दौरा पड़ चुका था। आईओसी मेडिकल आयोग के अध्यक्ष प्रिंस एलेक्जेंडर डी मेरोड को फ्लोरेंस ग्रिफिथ जॉयनर की मृत्यु के बाद उनके बारे में एक बयान जारी करना पड़ा। उन्होंने अपने बयान में कहा "हमने उन पर सभी संभव और कल्पनीय विश्लेषण किए। हमें कभी कुछ नहीं मिला। इसमें जरा सा भी संदेह नहीं होना चाहिए।"

साधारण योग्यता संदेह और अविश्वास का बायस होती ही है। फ्लो जो कोई अपवाद ना बन सकीं। उनकी प्रतिभा भी अविश्वसनीय थी क्योंकि वो असाधारण थी।



लेकिन वे दुनिया भर में केवल अपनी गति भर के लिए ही नहीं जानी गईं बल्कि इसलिए भी जानी गईं कि उन्होंने उस गति को फैशन का आवरण पहनाया। उन्होंने गति को फैशनेबुल बना दिया। 'फैशन' उनका दूसरा प्रेम था। वे अपनी दौड़ की ड्रेस तक खुद डिजायन करती थीं। वे गति के साथ अपनी स्टाइल,अपनी फैशन शैली के लिए भी जानी जाती थीं। वे अपने लंबे चमकीले नाखूनों और रंग बिरंगे एक पैर वाले ट्रैक सूट के लिए भी दर्शकों में बेहद लोकप्रिय हो चली थीं।

जुलाई 1988 में जब वे अमेरिकी टीम ट्रायल में विश्व रिकॉर्ड बना रही थीं उस दिन उस रेस में उन्होंने  बैंगनी रंग का एक पैर वाला बॉडी सूट पहना था और उसके ऊपर रंगीन बिकनी बॉटम। ये एक पैर वाली ड्रेस आगे चलकर एक फैशन स्टेटमेंट बन जानी थी।

सके बाद जब उन्होंने सियोल ओलंपिक में 200 मीटर का विश्व रिकॉर्ड तोड़ा तो वे लाल और सफ़ेद रंग का  लियोटार्ड पहने हुए थीं। उनकी कलाइयों पर सोने का कंगन और कान में सोने की बालियाँ पहनी हुई थीं। वे रेस खत्म होने पर घुटनों के बल ट्रैक पर बैठ गईं। दुनिया भर के कैमरे उन पर फोकस कर रहे थे। और दुनिया उनके उसके लंबे लाल, सफेद, नीले और सुनहरे रंग के नाखून देख रही थी। उन्होंने गति को भी एक स्टाइल स्टेटमेंट दे दिया था।

नकी असाधारण सफलता और फैशन ने उन्हें दुनिया भर में लोकप्रिय बना दिया। लेकिन उनकी असाधारण प्रतिभा केवल ट्रैक तक सीमित नहीं रही। अब उन्होंने ट्रैक से बाहर दूसरे क्षेत्रों में भी अपनी रचनात्मक यात्रा आरंभ की। उन्होंने कपड़ों की एक सीरीज विकसित की, नेल प्रोडक्ट बनाए, अभिनय में हाथ आजमाया और बच्चों की किताबें लिखीं। 

न्हें खूब एंडोर्समेंट मिले। अमेरिकी टेलीविजन पर अभिनय और कैमियो भी किए जिसमें सोप ओपेरा "सांता बारबरा" और सिटकॉम "227" शामिल हैं । एलजेएन टॉयज़ के साथ काम किया जिसने लंबे रंगे हुए नाखून और एक पैर वाला रनिंग सूट पहने उनके जैसी गुड़िया का निर्माण किया। साथ ही 1990 में एनबीए की टीम इंडियाना पेसर्स टीम की ड्रेस भी डिज़ाइन की। अपने पति के साथ मिलकर वंचित युवाओं की सहायता के लिए 1992 में फ्लोरेंस ग्रिफ़िथ जॉयनर यूथ फ़ाउंडेशन की स्थापना की। 1993 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने उन्हें अमेरिकी कांग्रेस के टॉम मैकमिलन के साथ राष्ट्रपति की शारीरिक फिटनेस परिषद के सह-अध्यक्ष के पद पर नियुक्त किया।

 ट्रैक पर उनकी असाधारण उपलब्धियों ने ग्रिफ़िथ जॉयनर को ना केवल दुनिया भर में लोकप्रिय बना दिया बल्कि उनकी अनूठी शैली और ट्रैक रिकॉर्ड ने लड़कियों की एक पूरी पीढ़ी को प्रेरित किया।

 2024 के पेरिस ओलंपिक में जब उनकी हमवतन स्प्रिंटर शा'कैरी रिचर्डसन अपने हमेशा बदलते बालों के रंग से लेकर अपने अनगिनत टैटू, अपने छेदों और लंबे, चमकीले ऐक्रेलिक नाखूनों तक अपनी एक अलग स्टाइल गढ़ी तो 'फ्लो जो' याद आईं और समझ आया उनका प्रभाव नई पीढ़ी पर कितना गहरा है।

आज 21 सितंबर है। आज ही के दिन 1998 में केवल 38 वर्ष की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया था।

आज के दिन उस महान एथलीट को याद करना तो बनता है।

Sunday 8 September 2024

यूएस ओपन की नई चैंपियन

 





रंग खुद में अभिव्यक्ति का शक्तिशाली माध्यम हैं। उतने ही शक्तिशाली जितने उच्चरित शब्द हो सकते हैं या लिखित शब्द। हर रंग एक कहानी कहता है,एक अर्थ ध्वनित करता है और एक प्रभाव की निर्मिति करता है। रंग दृश्यों को पूरी तरह से बदल देते हैं। टेनिस प्रेमी जानते होंगे कि समय का थोड़ा सा अंतराल,भौगोलिक सीमाओं की दूरी और रंग मिलकर टेनिस की पूरी दुनिया ही बदल देते हैं।

जब जुलाई सितंबर में बदल जाता है, लंदन न्यूयार्क में आ मिलता है, शालीन सफेद रंग शोख चंचल चटक रंगों में तब्दील हो जाता है और एक परंपरागत समाज खुले और उन्मुक्त समाज में बदल जाता है, तो टेनिस का खेल अपनी काया,अपना स्वभाव ना बदले, ये कैसे हो सकता है।

विंबलडन से यूएस ओपन तक आते आते टेनिस का मानो कायाकल्प हो जाता है। बंधन से मुक्त हो निर्द्वंद सा लगने लगता है। एक गंभीर शालीन प्रौढ़ मानो उम्र को पीछे धकेलते हुए किसी चपल चंचल युवा सा हुआ जाता है। 

विंबलडन और यूएस ओपन देखना टेनिस देखने के दो अलहदा अहसास हैं। कोर्ट के भीतर टेनिस के संघर्ष का अहसास भले ही एक हो, लेकिन टेनिस को समग्रता में देखना एक अलग अहसास है। सफेद कपड़ों में देखना और रंगीन कपड़ों में देखना। हरी घास पर देखना और कृत्रिम नीली सतह पर देखना। यानी टेनिस की दो अलग दुनिया से होकर गुजरना है। 

बीते शनिवार यूएस ओपन का महिलाओं का फाइनल मैच खेला गया। इस सीजन की दो सबसे ज्यादा इन फॉर्म खिलाड़ी विश्व नंबर दो बेलारूस की अलीना सबालेंका और विश्व नंबर छ खिलाड़ी अमेरिका की जेसिका पेगुला आमने सामने थीं। 

दोनों पहली बार यूएस ओपन के फाइनल में खेल रही थीं और दोनों अपने दीर्घ प्रतीक्षित सपने को पा लेने की चाहत लिए फ्लशिंग मीडोज के आर्थर ऐश अरीना के सेंटर कोर्ट में आमने सामने थीं। फ़र्क बस इतना था कि सबालेंका अपने तीसरे ग्रैंड स्लैम खिताब के लिए खेल रही थीं और पेगुला पहले खिताब के लिए। 

यूएस ओपन की अब तक की यात्रा दोनों खिलाड़ियों के लिए निराशा से भर देने वाली थी। पैगुला इससे पहले छ बार क्वार्टर फाइनल में हारकर अपने सपने को पूरा करने से चूक गई थीं तो सबालेंका अपने सपने को पूरा करने के और भी करीब आकर चूक गई थीं। वे पिछली बार फाइनल हार गई थीं और उससे पहले के साल 2021 और 2022 के दो सत्रों में उनकी राह सेमीफाइनल में आकर रुक गई थी।

ये फाइनल इस अर्थ में साल 2023 की पुनरावृति था कि सबालेंका के सामने इस बार भी स्थानीय खिलाड़ी प्रतिद्वंदी के रूप में थी। पिछली बार कोको गफ ने उन्हें फाइनल में हरा दिया था। लेकिन उससे भी अधिक ये फाइनल तीन सप्ताह पूर्व के सिनसिनाती ओपन के फाइनल का पुनरावृति था। उस फाइनल में सबालेंका ने पेगुला को 6-3, 7-5 से हरा दिया था। 

नीली सतह पर पेगुला नीले और सफेद रंग की ड्रेस में कोर्ट पर आईं। कोर्ट की सतह के रंग से एकाकार होती हुईं वे इस बात की घोषणा कर रही थीं कि वे मेजबान हैं और स्वाभाविक है मेजबान हैं तो दर्शक उनके साथ होंगे ही। दूसरी ओर सबालेंका फ्यूशिया पर्पल रंग की ड्रेस में थीं। एक विशिष्ट और जीवंत रंग जो बैंगनी रंग की गहराई और गुलाबी रंग की चमक से मिलकर बनता है। रंग जो बोल्डनेस के लिए जाना जाता है। रंग जो भले ही कोर्ट की सतह से एकाकार ना हुआ जाता हो पर सबालेंका के स्वभाव और उनके खेल से जरूर एकाकार हुआ जाता था।

उनके बाईं बांह पर टाइगर का टैटू खुदा है। वे मैदान में टाइगर की तरह फुर्तीली और शक्तिशाली होती हैं। वे अक्सर खुद को टाइगर बताती भी हैं। वे सेरेना और विलियम्स के बाद सबसे पावरफुल खिलाड़ी हैं जो दो सौ किमी की रफ्तार से सर्विस कर सकती हैं और शक्तिशाली ग्राउंड स्ट्रोक्स लगाती हैं। फ्यूशिया रंग उनके खेल और व्याहार का मानो प्रतीक हो।

दूसरी ओर पेगुला बहुत ही संपन्न परिवार से आती हैं। उनके पिता अमेरिकी बेसबॉल और फुटबॉल लीग की दो टीम के मालिक हैं। सबालेंका और पेगुला दोनों का लक्ष्य एक था। मकसद एक था। लेकिन दोनों की मोटिवेशनल फोर्स और कारक अलग अलग थे। मुकाबला कड़ा होना था।

मुकाबला कड़ा ही हुआ। हालांकि सबालेंका ने पेगुला को 7-5,7-5 से सीधे सेटों में हराकर अपना पहला और कुल तीसरा ग्रैंड स्लैम जीता और पेगुला के पहले ग्रैंड स्लेम खिताब के इंतजार को कुछ और लंबा कर दिया।

ये मैच भले ही दो सेटों में खत्म हुआ हो। लेकिन ये एक संघर्षपूर्ण मैच था। यह मुकाबला एक घंटा 53 मिनट तक चला। पहले ही गेम में पेगुला ने सबालेंका की सर्विस ब्रेक की। लेकिन अगले गेम में पेगुला अपनी सर्विस नहीं बचा पाई। इसके बाद सबालेंका ने 5-2 की बढ़त ले ली। पर पेगुला ने ना केवल स्कोर 5-5 की बराबरी पर किया। इसके बाद सबालेंका ने दोनों गेम जीतकर पहला सेट 7-5 से जीत लिया। दूसरे सेट में भी 3-0 की बढ़त ले ली। यहां पर पेगुला ने फिर वापसी की और 5-4 के स्कोर पर सर्विस कर रही थीं। लगा कि पिछले साल का इतिहास तो नहीं दोहराया जाने वाला है। पिछले साल भी सबालेंका पहला सेट जीत गई थी और उसके बाद दोनों सेट हारकर खिताब गंवा दिया था। लेकिन इस बार सबालेंका मजबूत इरादों के साथ आई थीं। उन्होंने ना केवल अगले दो गेम जीते बल्कि फाइनल भी जीत लिया।

इस प्रकार एक बार फिर यूएस ओपन के महिला एकल में एक नई चैंपियन बनी। विलियम्स बहनों के बाद महिला टेनिस एकदम खुल गया है और कोई भी खिलाड़ी किसी खास दिन जीत सकती है। इस बात का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दस सालों में यूएस ओपन की ये नवीं महिला एकल चैंपियन है। केवल नाओमी ओसाका इसे दो बार 2018 और 2020 में जीत सकी हैं।

फिलहाल यूएस ओपन की नई चैंपियन अरीना सबालेंका को बहुत बधाई।

Thursday 5 September 2024

अकारज_21







'मैं?'
'एक स्मृति!'
'अब भी स्मृति में शेष हूँ!'
'हाँ,दिल की किसी शिरा में घास के तिनके पर सुब्ह की शबनम की तरह!''मैं?'
'एक स्मृति!'
'अब भी स्मृति में शेष हूँ!'
'हाँ,दिल की किसी शिरा में घास के तिनके पर सुब्ह की शबनम की तरह!'
'शबनम की उम्र कहां होती है?'
'तरलता ज़िंदगी से कहां खत्म होती है!'
'ऐसा क्या?' 
'ज़िंदगी की दोपहर में व्यस्तताओं की ऊष्मा से मिटती थोड़े ही ना है। तरल हो स्मृति वाष्प हो जाती है बस। और यकीन मानो ज़िंदगी की सांझ की शीतलता में स्मृति संघनित हो फिर शबनम में ढल जाती है।'

वो ज़ोर से हंसी। मन चांदनी के से उजाले से भर उठा। कुछ बातें और ढेर सारी यादें हरसिंगार के फूलों सी बरस पड़ीं। दिल में प्यार मोगरे की सी खुश्बू सा फैल गया।

'चल झूठे'
'ओह, तुम्हें प्यार का नाम आज भी याद है!'

'शब्द ब्रह्मनाद जो होते हैं। दिल के ब्रह्मांड से कहां मिटते हैं।'

दो दिल थे कि धड़कनों के शोर में अब सिर्फ एक शब्द 'झूठे' से मचल मचल जा रहे थे।


Sunday 1 September 2024

डूरंड कप प्रतियोगिता




कल शाम कोलकाता के साल्ट लेक स्टेडियम में फुटबॉल प्रतियोगिता का फाइनल मैच खेला जा रहा था। सत्रह बार की विजेता मोहन बागान की टीम और पहली बार फाइनल खेल रही नॉर्थ ईस्ट यूनाइटेड एफसी टीम आमने सामने थीं। ये एक शानदार संघर्षपूर्ण मैच था। 

ग्यारहवें मिनट में ही जेसन कमिंग्स द्वारा पेनाल्टी से किए गए गोल से मोहन बागान की टीम ने एक गोल की बढ़त ले ली। उसके बाद पहले हाफ के इंजरी टाइम में सहल अब्दुल समद द्वारा इस सीजन के पहले गोल की बदौलत उसकी ये बढ़त दोगुनी हो गई।

लेकिन दूसरा हॉफ  पहले हाफ का एकदम उलट था। पचपनवें मिनट में मोरक्कन खिलाड़ी अलादीन अजारी ने बागान की बढ़त को कम कर दिया। और फिर तीन मिनट बाद ही युनाइटेड के गुलेरमो ने अजारी के शानदार क्रॉस पर गोल कर स्कोर बराबर कर दिया। नियमित समय में दो- दो गोल की बराबरी पर रहने के कारण मैच का फैसला पेनाल्टी शूटआउट से हुआ। इसमें यूनाइटेड ने चार के मुकाबले तीन गोल से जीत हासिल की। भारतीय फुटबाल के अपेक्षाकृत एक नए और केवल दस साल पुराने फुटबॉल क्लब नॉर्थ ईस्ट यूनाइटेड का ये इस प्रतियोगिता का पहला खिताब था। 

ये प्रतियोगिता डूरंड कप के नाम से जानी जाती है। एक ऐसी प्रतियोगिता जो भारत की ही नहीं बल्कि एशिया की सबसे पुरानी और विश्व की तीसरी सबसे पुरानी खेली जा रही प्रतियोगिता है। आज भले ही उसकी वो पहले वाली धज ना रहीं,लेकिन एक ऐसा समय हुआ करता था जब वो देश की सबसे प्रीमियर फुटबॉल प्रतियोगिता हुआ करती थी। ऐसी प्रतियोगिता जिसका सिर्फ खिलाड़ियों को ही नहीं बल्कि फुटबॉल के चाहने वालों को भी साल भर इंतजार रहता। मोहन बागान,ईस्ट बंगाल, मो. स्पोर्टिंग,जेसीटी फगवाड़ा,बीएसएफ,डेम्पो क्लब जैसी टीमों के समर्थक अपनी टीमों को लेकर खिलाड़ियों से भी ज्यादा उत्साहित रहते।

एक ऐसी प्रतियोगिता जिसका 136 साल लंबा इतिहास है। जिसके साथ फुटबॉल खेल की समृद्ध परंपरा है। जिसने तीन अलग अलग शताब्दियों में फुटबॉल खेल को बनते भी देखा और इस खेल को बनाया भी और देश में फुटबॉल के स्वरूप निर्धारण में अहम भूमिका भी निभाई। भले ही आज इस प्रतियोगिता की पहले वाली चमक ना रह गई हो लेकिन ये प्रतियोगिता भारतीय फुटबॉल इतिहास का महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा है।

प्रतियोगिता जो उन्नीसवीं सदी के साल 1888 में अस्तित्व में आती है,समय के घात प्रतिघात सहती हुई बीसवीं सदी को पार करती है और इक्कीसवीं सदी के चौथाई समय तक का सफर तय करती है। इतने पर भी वो मरती नहीं है,खत्म नहीं होती। वो अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए लड़ती है,संघर्ष करती है और अंततः एक नए स्वरूप में, एक नए कलेवर में, नए समय के अनुरूप खुद को ढालती है, नई जिम्मेदारियों को उठाने के लिए तैयार खड़ी होती है। और ये सब इस बार के सफल आयोजन और इसकी फिर से बढ़ती लोकप्रियता ने हमें बताया।

ऐसा नहीं है कि इसका इतना लंबा सफर हमेशा निरापद रहा हो। नहीं, इसकी राह में तमाम अवरोध आए,ये थकी भी,हताश भी हुई,अनेकानेक बदलाव भी झेले,जगहें बदलीं,मंजिलें बदलीं और विराम भी लिए। अगर कुछ ना हुआ तो बस उस यात्रा का कारवां ना रुका।

एक ऐसी प्रतियोगिता जिसने भारतीय फुटबॉल को बनते देखा,विकसित होते और बढ़ते देखा। जो उसके उठान की भी साक्षी रही और पतन की भी। जो भारतीय फुटबॉल के आरंभिक काल से अब तक की यात्रा की सबसे विश्वसनीय साथी रही और उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चली। वो जिसने भारतीय खिलाड़ियों को नंगे पैरों और घुटनों से ऊपर धोती पहन कर फुटबॉल खेलते भी  देखा और वीएआर वाला समय भी। वो जिसने पैसे की कमी के चलते जूतों के बजाय खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी नंगे पैर खेलते हुए भी देखा और खिलाड़ियों पर करोड़ों रुपयों की बोली लगने वाला आईएसएल लीग का समय भी देखा। वो जिसने नंगे पैर खेलते भारतीय टीम को ओलम्पिक में चौथा स्थान प्राप्त करते और पहले एशियाड में स्वर्ण पदक जीतते भी देखा और करोड़ों के बारे न्यारे होते हुए भी विश्व रैंकिंग में एक सौ पचासवें से भी नीचे के नंबर पर फिसलते हुए भी देखा।

भारत में फुटबॉल खेल का आगमन ब्रिटिश सेना के माध्यम से उन्नीसवीं सदी के उतरार्द्ध में हुआ। यूएस समय भारत में फुटबॉल के लोकप्रिय होने के दो कारक हुए। एक, बंगाली भद्रलोक के नागेंद्र प्रसाद ने 1885 में शोभा बाजार क्लब के स्थापना की जिसने कोलकाता में फुटबॉल को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस कारण से उन्हें भारतीय फुटबॉल का पितामह भी माना जाता है। दो, सन 1888 में ब्रिटिश भारत के विदेश सचिव हेनरी मोर्टिमर डूरंड ने शिमला के पास स्थित छावनी दागशाई में एक प्रतियोगिता शुरु कराई जिसे उनके नाम से डूरंड टूर्नामेंट के नाम से जाना गया। ये भारत की पहली आधिकारिक फुटबॉल प्रतियोगिता थी। ये डूरंड वही साहेब थे जिनके नाम से पाकिस्तान और अफगानिस्तान में मध्य विभाजक डूरंड रेखा है।

इस प्रतियोगिता का प्रारंभिक उद्देश्य सेना में  स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाना था और ये खालिस ब्रिटिश भारतीय सेना के निमित्त थी। 1888 का इसका पहला फाइनल एक स्कॉटिश डर्बी था जिसमें स्कॉटलैंड की दो टीमें हाइलैंड लाइट इन्फेंट्री और रॉयल स्कॉट्स फ्यूजीलियर्स आमने सामने थीं। मैच स्कॉट्स ने इन्फेंट्री को 2-1 से हराकर जीता।

देश की आजादी से पहले तक ये प्रतियोगिता पूरी तरह से ब्रिटिश सेना के लिए बनी रही थी। बस इसमें बाद में सीमांत प्रांतीय रेजीमेंट जैसी कुछ अन्य सैनिक रेजीमेंटों को भी भाग लेने की अनुमति मिली।

ये प्रतियोगिता एक वार्षिक आयोजन था। आरंभ होने के बाद से इसका लगातार प्रतिवर्ष आयोजन होता रहा। लेकिन 1914 से 1919 तक पहले विश्व युद्ध के कारण और फिर 1939 में तथा 1941 से 1949 तक द्वितीय विश्व युद्ध  और भारत की आजादी और विभाजन जैसी स्थितियों के कारण इसका आयोजन स्थगित रहा। 1940 में जब ज्यादातर रेजीमेंट युद्ध मोर्चे पर भेजी जा चुकी थीं तो इसका आयोजन पहली बार शिमला से हटाकर दिल्ली में किया गया। ये पहला अवसर था जब बहुत सारी रेजीमेंटों की कमी के कारण सिविल टीमों को भी इसमें खेलने का अवसर मिला। और कमाल की बात है कि ब्लैक पैंथर्स के नाम से जाने जानी वाली टीम मोहम्मडन स्पोर्टिग ने ब्रिटिश वर्चस्व खत्म करते हुए इस प्रतियोगिता को जीत लिया। ये पहला अवसर था जब किसी गैर सैनिक और भारतीय टीम ने ये प्रतियोगिता जीती थी।

1940 का फाइनल मैच दिल्ली के इर्विन एम्फीथियेटर में खेला गया था जिसे बाद में मेजर ध्यानचंद स्टेडियम के नाम से जाना जाना था। इस मैच में मो.स्पोर्टिंग टीम ने हाफ़िज़ राशिद और साबू के गोलों के मदद से रॉयल वारविकशायर रेजीमेंट की टीम को 2-1 से हरा दिया। इसके बाद अगले नौ सालों तक इस प्रतियोगिता को स्थगित रहना था।

1950 में डूरंड फुटबॉल टूर्नामेंट सोसायटी का अधिकार भारतीय सेना को सौंप दिया गया, जिसके संरक्षण में इस प्रतियोगिता का आयोजन 2006 में उस समय तक होना था जब इसका आयोजन में ओसियन नाम के कला संगठन को सह आयोजक बनाया गया। ये पहला अवसर था कि सेना के अलावा एक सिविल संगठन भी इसके आयोजन में महत्वपूर्ण भिका निभा रहा था।

बीसवीं सदी का उतरार्द्ध का इस प्रतियोगिता का इतिहास बंगाल की दो टीमों मोहन बागान और ईस्ट बंगाल के वर्चस्व का इतिहास था। मोहन बागान ने 17 बार और ईस्ट बंगाल ने 16 बार इस प्रतियोगिता को जीता। मोहन बागान की टीम एकमात्र ऐसी टीम है जिसने दो बार जीत की हैट्रिक लगाई। पहली बार 1963/1964/1965 में और दूसरी बार 1984/1985/1986 में। बंगाल के इस वर्चस्व को आजादी के बाद के कुछ सालों में कुछ हद तक हैदराबाद की टीमों ने चुनौती दी। आजादी के बाद 1950 में आयोजित पहली प्रतियोगिता का खिताब हैदराबाद सिटी पुलिस ने मोहन बागान को 1-0 से हराकर जीता। उसने दूसरा खिताब 1954 में और तीसरा 1957 में जीता। दरअसल उस समय इस टीम के कोच भारतीय फुटबॉल के लेजेंड सैय्यद अब्दुल रहीम हुआ करते थे। दूसरी टीम जिसने इतिहास रचा वो मद्रास रेजिमेंटल सेंटर की थी। इसने 1955 में भारतीय वायुसेना  टीम को 3-2 से हराकर फाइनल जीता। आजादी के बाद ये प्रतियोगिता जीतने वाली पहली सेना की टीम थी।

लेकिन बंगाल के वर्चस्व को सबसे बड़ी और कड़ी चुनौती पंजाब से मिली। पंजाब की ये टीमें थीं जेसीटी फगवाड़ा और बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स। बीएसएफ ने सात बार और जेसीटी ने पांच बार ये प्रतियोगिता जीती।

1997 का खिताब एफसी कोचीन ने जीता। वो इस प्रतियोगिता को जीतने वाली पहली दक्षिण भारतीय टीम थी। 2000 से 2015 तक के समय में गोवा की कई टीमों सलगांवकर क्लब,चर्चिल ब्रदर्स,डेम्पो क्लब ने अपना वर्चस्व स्थापित किया। सलगांवकर ने 1999,2003 और 2014 में,डेम्पो ने 2006 में और चर्चिल ब्रदर्स ने 2007 2009 और 2011 में ये प्रतियोगिता जीती। 

ये कमाल है कि 1940 में पहली बार खिताब जीतने वाली टीम मो स्पोर्टिंग को अपने दूसरे खिताब्बको जीतने के लिए 73 साल का लंबा इंतजार करना पड़ा।  2013ए उसने अपना दूसरा खिताब जीता। ये दिल्ली में इस प्रतियोगिता का अंतिम आयोजन था। वहां इस प्रतियोगिता को लेकर कोई उत्साह और आकर्षण नहीं रह गया था। अतः 2014 में इसका आयोजन हुआ में कराया गया और निर्णय लिया गया कि हर साल अलग शहर में इसका आयोजन कराया जाएगा।

लेकिन इस समय तक ये प्रतियोगिता अपनी चमक अपना महत्व को चुकी थी। भारतीय फुटबॉल कलंदर में आईसीएल प्रमुखता पा चुकी थी। इसी कारण 2015,2017 और 2018 में इसे भारतीय फुटबॉल कलंदर में जगह ही नहीं मिली और प्रतियोगिता स्थगित रही। लेकिन भारतीय सशस्त्र सेना इसको लेकर गंभीर थी ।  इसलिए 2019 में सेना ने पश्चिम बंगाल सरकार के साथ मिलकर इसका आयोजन कोलकाता में किया। लेकिन 2020 में कोविद के कारण इसे पुनः स्थगित करना पड़ा। इसके बाद सेना और बंगाल सरकार ने संयुक्त रूप से 2025 तक कोलकाता में आयोजित करने का निर्णय किया। साथ ही इसको फिर से लोकप्रिय बनाने के लिए कुछ कदम उठाए । इसमें सबसे महत्वपूर्ण ये था कि इसमें आईएसएल की सभी टीमों का भाग लेना अनिवार्य कर दिया गया। इसके अलावा सेना की चार और आई लीग की पांच आमंत्रित टीमों का भाग लेना भी सुनिश्चित किया गया। 2022 के 131वें संस्करण में भारतीय फुटबॉल की सभी टीमों ने पहली बार इसमें भाग लिया और प्रतियोगिता की लोकप्रियता बहाल होने की दिशा में एक महावपूर्ण पहल हुई।



इस प्रतियोगिता की एक सुंदर और विशिष्ट बात ये है कि इसमें विजेता टीम को एक नहीं बल्कि तीन तीन ट्रॉफी दी जाती हैं। पहली  डूरंड ट्रॉफी जिसे 
'द मास्टरपीस' के नाम से भी जाना जाता है। दूसरी शिमला ट्रॉफी और तीसरी प्रेसिडेंट ट्रॉफी जो आजादी से पहले वायसराय ट्रॉफी होती थी।

उम्मीद की जानी चाहिए एक ऐतिहासिक प्रतियोगिता अपनी पुरानी चमक और महत्व का फिर से पा सकेगी और भारतीय फुटबॉल के विकास में अपनी भूमिका निभाती रहेगी।

दूसरा दिन:तमगे चार

 


समय कुछ ठहरा ठहरा सा प्रतीत होता है। मानो पिछले तीन सालों में कुछ ना बदला हो। ना पैरा खिलाड़ियों का हौंसला,ना उनकी योग्यता और ना उनका जज़्बा। वे पेरिस में उसी तरह पदक जीत रहे हैं जैसे टोक्यो में जीते थे। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये पूरब है या पश्चिम। ये टोक्यो है या पेरिस। वे सिर्फ लक्ष्य साधते हैं। वे चिड़िया की आंख देखते हैं और आंख है कि किसी जादू सी पदकों में बदल जाती है। वे ठीक वहां से शुरू कर रहे थे जहां टोक्यो में छोड़ा था।

पैरा खिलाड़ियों की ये दुनिया यूं तो कठिनाइयों और दुश्वारियों से बने अंधेरे की दुनिया है। लेकिन क्या ही कमाल है कि इन पैरा सितारों ने अपने होंसलो, अपने जज़्बे,अपने धैर्य,अपने साहस और अपने अनथक परिश्रम से इन अंधेरों को उजाले में तब्दील कर दिया है। इन उजालों में वे नायकों की तरह प्रदीप्त हो उठते हैं।

पेरिस पैरा ओलम्पिक 2024 में आज स्पर्धाओं का दूसरा दिन था। आज के चार नायक थे। जिन्होंने अपनी प्रतिभा के लट्ठ गाड़े और भारत को आज कुल चार पदक दिला दिए। तीन निशानेबाजी में और एक एथलेटिक्स में।




🔵पहला पदक आया निशानेबाजी से। 10 मीटर एयर राइफल (एसएच1) स्पर्धा में भारत की 37 वर्षीया मोना अग्रवाल ने 228.7 के स्कोर के साथ कांस्य पदक जीता।

मोना अग्रवाल की ये उपलब्धि इस मायने में महत्वपूर्ण है कि वे ना केवल दो बच्चों की मां हैं बल्कि कामकाजी महिला भी हैं और बैंक में काम करती हैं। राजस्थान के सीकर में जन्मी मोना को बहुत ही छोटी उम्र में पोलियो हो गया था और उन्हें व्हीलचेयर का सहारा लेना पड़ा। अपनी नानी की प्रेरणा से उन्होंने पहले पावर लिफ्टिंग और एथलेटिक्स में जैवलिन और शॉटपुट से खेल जीवन की शुरुआत की। लेकिन विवाह के बाद जयपुर आईं और यहां उन्होंने 2021 में पावरलिफ्टिंग की जगह शूटिंग की शुरुआत की।

मोना का अंतरराष्ट्रीय करियर 2023 में शुरु हुआ जब उनका चयन क्रोएशिया के ओसिजेक में होने वाले डब्ल्यूएसपीएस विश्व कप में हुआ। यहां उन्होंने कांस्य पदक जीता। उन्होंने 2023 में ही लीमा में आयोजित डब्ल्यूएसपीएस चैंपियनशिप में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया। फिर नई दिल्ली में हुए डब्ल्यूएसपीएस विश्व कप 2024 में अवनी लखेरा को पीछे छोड़ते हुए  स्वर्ण पदक जीता।




🔵जिस स्पर्धा में मोना अग्रवाल ने भारत को पहला पदक दिलाया, उसी स्पर्धा में अवनी लखेरा ने शानदार प्रदर्शन करते हुए भारत को स्वर्ण पदक के रूप दूसरा पदक दिलाया वो भी विश्व रिकॉर्ड के साथ। उन्होंने 249.7 अंकों के साथ अपना ही टोक्यो पैरा ओलम्पिक में बनाया 249.6 अंकों का विश्व कीर्तिमान तोड़ दिया। उन्होंने टोक्यो ओलम्पिक में इसी स्पर्धा का स्वर्ण पदक जीता था। साथ ही उन्होंने वहां दूसरा पदक 50 मीटर एयर राइफल थ्री पोजीशन स्पर्धा में जीता था। ये कांस्य पदक था। अब वे शूटिंग में दो पैरा ओलम्पिक खेलों में स्वर्ण जीतने वाली पहली शूटर बन गई हैं।




🔵आज का तीसरा पदक जीता एथलीट प्रीति पाल ने। उन्होंने ये पदक जीता महिलाओं की 100 मीटर (टी-35) दौड़ स्पर्धा में। उन्होंने 14.21 सेकंड का समय लिया। ये उनका सर्वश्रेष्ठ व्यक्तिगत समय भी था। उन्होंने आज एक इतिहास रचा। ठीक वैसे ही, जैसे टोक्यो में नीरज ने रचा था। ये पैरालंपिक का भारत का ट्रैक स्पर्धा का पहला पदक है। हालांकि एथलेटिक्स में भारत पैरालंपिक खेलों में 17 पदक जीत चुका है। लेकिन वे सब फील्ड स्पर्धाओं में हैं।

इस स्पर्धा में चीन की जिया ने 13.35 सेकेंड के समय के साथ स्वर्ण और 13.74 सेकेंड के समय के साथ गुओ ने रजत पदक जीता।

इससे पूर्व प्रीति पाल ने इसी साल कोबे जापान में आयोजित विश्व पैरा एथलेटिक्स चैंपियनशिप में 200 मीटर (टी 35) में 30.49 सेकंड के समय के साथ कांस्य पदक जीता था। विश्व एथलेटिक्स में पदक जीतने वाली वे पहली भारतीय एथलीट थीं।




🔵आज का चौथा पदक आया निशानेबाजी में। मनीष नरवाल ने पुरुषों की 10 मीटर एयर पिस्टल (एसएच 1) स्पर्धा के फाइनल में रजत पदक हासिल करके पेरिस पैरालंपिक खेलों में भारत को निशानेबाजी में तीसरा और कुल मिलाकर चौथा पदक दिलाया। मनीष ने कुल 234.9 अंकों के साथ रजत पदक हासिल किया। उन्होंने स्वर्ण पदक विजेता कोरिया के जियांग डू जो को कड़ी टक्कर दी, जिन्होंने कुल 237.4 अंकों के साथ स्वर्ण पदक हासिल किया। यहां उल्लेखनीय है कि उन्होंने टोक्यो पैरा ओलम्पिक खेलों के स्वर्ण पदक विजेता विश्व रिकॉर्ड धारी चीन के यांग चाओ को पीछे छोड़ा।

मनीष नरवाल टोक्यो पैरा ओलम्पिक में  50 मीटर पिस्टल फोर पोजीशन (एस एच 1) मिश्रित स्पर्धा में स्वर्ण  पदक जीत चुके हैं। मनीष ने 2017 बैंकॉक विश्व कप में अपना अंतरराष्ट्रीय कैरियर शुरु किया और 10 मीटर एयर पिस्टल(एसएच1) स्पर्धा में जूनियर विश्व रिकॉर्ड के साथ स्वर्ण पदक जीता। मनीष ने 2022 एशियाई पैरा खेलों में कांस्य पदक भी हासिल किया।

दाहिने हाथ की विकलांगता के साथ जन्म लेने वाले मनीष बहुत ही साधारण पृष्ठभूमि से आते हैं। मेसी के दीवाने मनीष शुरू में फुटबॉलर बनना चाहते थे। लेकिन जल्द ही उन्हें लगा कि उनका प्यार फुटबॉल नहीं बल्कि शूटिंग है। ये बात साल 2016 की है जब वे एक स्थानीय शूटिंग रेंज में गए। फिर उन्होंने हाई परफॉरमेंस कोच जय प्रकाश नौटियाल और राष्ट्रीय कोच सुभाष राणा की देखरेख में अपनी प्रतिभा को निखारा और अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की। उनका कहना है अब 'शूटिंग ही उनकी जिंदगी' है।

यहां उल्लेखनीय है कि  निशानेबाजी के तीनों पदक एसएच 1 श्रेणी में आए। इस श्रेणी में इसमें वे शूटर शामिल होते हैं जिनकी भुजाओं या निचले शरीर में सीमित गति होती है। यानी इस श्रेणी में वे प्रतिभागी भाग लेते हैं जिनका निचला हिस्सा विकलांगता की श्रेणी में आता है लेकिन हाथ इतने मजबूत होते हैं कि राइफल या पिस्टल पकड़ने के लिए स्टैंड का सहारा नहीं लेना पड़ता है।

जबकि एथलेटिक्स में पदक जीतने वाली प्रीति पालटी 35 श्रेणी में भाल लेती हैं। टी-35 से टी-38 तक की श्रेणी में समन्वय संबंधी वे विकार आते हैं जिसमें एक खिलाड़ी अपने विभिन्न अंगों में सामंजस्य ठीक से नहीं बिठा पाता है जैसे सेरेब्रल पाल्सी की समस्या। इसके अंतर्गत हाइपरटोनिया,अटैक्सिया और एथेटोसिस जैसे विकार शामिल हैं।

भारत अब एक स्वर्ण,एक रजत और दो कांस्य पदक सहित कुल चार पदकों के साथ पदक तालिका में 13वें स्थान पर है। 

Saturday 31 August 2024

अवनी लखेरा:द गोल्डन गर्ल

 



साल 2021 के ओलम्पिक खेलों को याद कीजिए। टोक्यो ओलम्पिक में भारतीय खिलाड़ी पदकों को हासिल करने में हांफ रहे थे। वे अपने पदकों की गिनती बमुश्किल सात तक ले जा पाए थे। लेकिन इसकी भरपाई की हमारे पैरा एथलीटों ने। टोक्यो ओलम्पिक के तुरंत बाद टोक्यो में ही पैरा ओलम्पिक खेल हुए। इन खेलों में भारत ने कुल 19 पदक जीते थे। 05 स्वर्ण,08 रजत और 06 कांस्य। ये हमारे पैरा खिलाड़ियों का असाधारण प्रदर्शन था।

इन्हीं पदक विजेताओं में एक थीं अवनी लखेरा। वे निशानेबाजी प्रतियोगिता में भाग ले रही थीं। उन्होंने 10 मीटर एयर राइफल में स्वर्ण पदक जीता था। वे पैरालंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला शूटर थीं। इसके अलावा उन्होंने 50 मीटर राइफल थ्री पोजीशन में कांस्य पदक भी जीता था।

2021 से 2024 तक तीन साल लंबा वक्त बीत चुका है। खेल टोक्यो से पेरिस तक की हजारों किलोमीटर लंबी यात्रा कर चुके हैं। इस बीच अगर कुछ नहीं बदला तो अवनी लखेरा का शूटिंग के प्रति जज़्बा नहीं बदला और ना उनका निशाना चूका। वे अभी भी उतनी ही एक्यूरेसी से निशाना साध रही हैं। उनका निशाना कितना अचूक है ये उन्होंने आज एक बार फिर सिद्ध किया। 

ये वही शूटिंग रेंज थी जहां कुछ दिन पहले मनु भाकर भारत के लिए इतिहास रच रही थीं। आज भी किरदार वही थे। बस उनका नाम बदला था। आज मनु की जगह अवनी लखेरा थीं। हां, उन्होंने गौरव का रंग बदला। तमगे का रंग बदला और अपनी काबिलियत,अपने निशाने और निशाने की एक्यूरेसी से उसे सुनहरे रंग में बदल दिया। उन्होंने एक बार फिर देश को गौरवान्वित किया। आज उन्होंने 10 मीटर एयर राइफल में स्वर्ण पदक जीता। अब वे शूटिंग में दो पैरा ओलम्पिक खेलों में स्वर्ण जीतने वाली पहली शूटर बन गई हैं।

आज 10 मीटर राइफल में 249.7 अंकों के साथ अपना ही टोक्यो पैरा ओलम्पिक में बनाया 249.6 अंकों का विश्व कीर्तिमान तोड़ दिया। यहां उल्लखनीय है कि इसी स्पर्धा में कांस्य पदक 228.7 अंकों के साथ भारत की मोना अग्रवाल ने जीता।

अवनी पैरा ओलम्पिक में एस एच वन कैटेगरी में भाग लेती हैं। इस श्रेणी में वे प्रतिभागी भाग लेते हैं जिनका निचला हिस्सा विकलांगता की श्रेणी में आता है लेकिन हाथ इतने मजबूत होते हैं कि राइफल या पिस्टल पकड़ने के लिए स्टैंड का सहारा नहीं लेना पड़ता है।

साल 2012 में अवनी के पिता धौलपुर में तैनात थे। उस समय वे 11 वर्ष की थीं। वे परिवार के साथ जयपुर से धौलपुर जाते वक्त कार दुर्घनता में उनका निचला हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया था। पर उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपना धैर्य नहीं खोया। उन्होंने ना केवल अपनी पढ़ाई जारी रखी बल्कि खेलों भी हाथ आजमाया। उन्होंने शुरुआत तीरंदाजी से की। लेकिन जल्द ही शूटिंग करने लगीं। वे खेलों के साथ साथ मेधावी छात्रा भी हैं और इस समय  कानून की पढ़ाई कर रही हैं।

अवनी को बहुत बधाई और मोना अग्रवाल को भी। भारत को पेरिस पैरा ओलम्पिक के 2024 के पहले दो पदक मुबारक।


Friday 30 August 2024

साझे अतीत की तलाश का सफरनामा






यात्रा वृतांत हमेशा से बहुत रुचिकर लगते रहे हैं। वे अक्सर बहुत समृद्ध कर जाते हैं। रोचकता तो उनका अंतर्निहित गुण है ही। जिन जगहों को आपने ख़ुद नहीं देखा है,इन वृतांतों के माध्यम से देखा समझा जा सकता है। और भविष्य में उन जगहों पर अगर जाना हुआ तो वे मार्गदर्शक के रूप में काम में लाए जा सकते हैं।

दूसरे, जगहों को देखने समझने का हर व्यक्ति का अपना एक उद्देश्य होता है और अपना एक दृष्टिकोण भी। इस यात्रा वृतांतों से होकर जाते हुए चीजों और जगहों को अलग अलग कोनों से देख समझ कर ख़ुद को समृद्ध होते हुए पाया जा सकता है।

अभी अभी लेखक पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का यात्रा वृतांत 'कच्छ कथा' पढ़कर समाप्त किया है। ये एक शानदार यात्रा वृतांत है। पूरा कच्छ और उसका लोक आंखों के सामने पसरा है। एक ऐसा वृतांत जो आपके भीतर उसे खुद अपनी आंखों से देखने की तीव्र उत्कंठा से भर देता है। ऐसा वृतांत जो कच्छ और वहां के जीवन को पूरी समग्रता से सामने उपस्थित करता है। फिर वो चाहे कच्छ का इतिहास हो,भूगोल हो,सामाजिक जीवन हो,अर्थव्यवस्था हो,राजनीति हो या फिर सांस्कृतिक जीवन।

वे कमाल के किस्सागो हैं। वे वहां की बातों को किस्सों में सुनाते हैं और वहां के किस्सों को कविता में बदल देते हैं। वे मैक्रो और माइक्रो दोनों स्तरों पर अपने देखे को बयां करते चलते हैं। कभी उनके विवरणों का फलक इतना विस्तारित होता है कि लगता है वे कच्छ की नहीं, बल्कि देश दुनिया की बात कर रहे हैं। और कभी किसी चीज के इतने सूक्ष्म ब्यौरे प्रस्तुत कर रहे होते हैं कि पढ़कर अचरज में डूबने लगते हैं। उनकी लेखनी में मानो कोई कैमरा लगा हो जो मौके के अनुसार जूम इन और जूम आउट होता रहता है।

वे एक साझा संस्कृति की तलाश में बार बार कच्छ जाते हैं । लगातार दस सालों तक। और इस कच्छ की साझा विरासत की तलाश में दस सालों तक कच्छ के भूगोल से होते हुए उसके इतिहास,पुरातात्विक अवशेषों,साहित्य,अर्थ,धर्म,समाज और संस्कृति से गुजरते हुए राजनीति तक जाते हैं। जिन चीजों से वे गुजरते हैं, उसे खुद आत्मसात ही नहीं करते बल्कि उसे पाठकों के सामने भी हुबहू रख देते हैं।

ये वृतांत उन्हीं के शब्दों में 'साझे अतीत की तलाश का सफरनामा' है। वे अपने यात्रा वृतांत के आरंभ में लिखते हैं  "...मुंद्रा और मांडवी के बीच मरद पीर के कई मंदिर और दरगाहें हैं। कहानी तक़रीबन सभी की एक जैसी है, जैसी हमें विक्रम ने रामदेव पीर के बारे में बताई थी या जो रण के मशहूर हाजी पीर के बारे में प्रसिद्ध है। ऐसी हर कहानी में एक लाचार बूढ़ी औरत होती है और उसकी गायें होती हैं। गायों को डकैत उठा ले जाते हैं और उसकी मालकिन फ़रियाद लेकर पीर के पास पहुंचती है। पीर घोड़े पर बैठकर जाते हैं और औरत की गायों को बचाने के चक्कर में शहीद हो जाते हैं। हाजी पीर की कहानी में औरत हिंदू है। रामदेव पीर की कहानी में औरत मुसलमान है। दोनों में ही गायों को लूटने वाले डकैत मुसलमान हैं। ऐसी कथाएं आपको समूचे कच्छ में सुनने को मिलेंगी।"

लेकिन इन दस सालों की यात्रा का हासिल क्या है। इन दस सालों में कच्छ के हजारों सालों के साझे अतीत का ये साझापन दरकने लगता है। इस दरार को वे खुद देखते हैं और महसूस करते हैं। वृतांत के अंतिम पृष्ठों पर वे लिखने को मजबूर हो जाते हैं - "कच्छ में दुख की कई परतें हैं। यहां के सिखों का सबसे ज़ाहिर दुख यह है कि उनके ऊपर किसी कलंक की तरह 'पर-प्रांती' की मुहर लगाई जा चुकी है। इनके दुख यहीं से निकलते हैं और यहीं जाकर पनाह पाते हैं। जो लोग ख़ुद को कच्छी मानते हैं और सिखों को बाहरी,ऐसा नहीं है कि उनके दुख काम हों। वे ख़ुद गुजरातियों की तुलना में देखकर दुखी होते हैं। फिर तीसरी परत कच्छी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच रह रह कर उभारे जाने वाले उपजे दुख की है। ये तमाम दुख जिन जगहों पर पनाह पाते हैं,वहां अलगाव के खतरे और बढ़ जाते हैं।"

इस अर्थ में ये यात्रा वृतांत कच्छ के साझे अतीत का सफरनामा भर नहीं है बल्कि उससे आगे ये कच्छ के समसामयिक इतिहास, समाज और राजनीति का एक रूपक भी है और भविष्य का संकेत भी जो प्रकारांतर से पूरे देश काल और समाज को भी प्रतिविंबित करता है।

एक बेहतरीन यात्रा वृतांत जिसे यात्राओं में रुचि रखने वाले हर पाठक को अवश्य पढ़ना चाहिए।

Sunday 25 August 2024

प्रोफेसर की डायरी, तदर्थवाद और प्रसार भारती का प्रोग्राम कैडर







डॉ लक्ष्मण यादव की किताब 'प्रोफेसर की डायरी' अभी पढ़कर खत्म की है। ये इस किताब का चौथा संस्करण है। पहली बार किताब 08 फरवरी 2024 को प्रकाशित होती है और 29 फरवरी को इसका चौथा संस्करण आ जाता है। इसके कवर पर नीचे एक कोने में अंकित है 20 दिन में 26 हज़ार+  प्रतियां बिकी। यानी प्रतिदिन एक हज़ार से अधिक प्रतियों की बिक्री। ये एक हैरान कर देने वाला आंकड़ा है।

यूं तो अन्याय और भ्रष्टाचार अब इतना ज्यादा और इतना सामान्य हो गया है कि ऐसी कोई खबर हमें उस तरह से विचलित नहीं करती जितना कि एक इंसान को करना चाहिए। हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं, जब हमारी संवेदनाएं भोथरी हो चुकी हैं। लेकिन अगर इस किताब की लोकप्रियता को कोई पैमाना माना जाए तो ये पुस्तक इस बात की ताईद करती है, नहीं अभी भी हमारी संवेदना मरी नहीं है। हम अभी भी अन्याय देखकर विचलित भी होते हैं और उसे देखना समझना भी चाहते हैं।

दरअसल डॉ लक्षमण यादव को दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में 14 वर्षों तक एडहॉक अध्यापन करने के बाद नियमित करने के बजाय नौकरी से निकाल दिया जाता है। वे पैर छूने की संस्कृति के बजाय अपनी काबिलियत से नियमित होना चाहते हैं, और बकौल उनके पिछड़े और दलित वर्ग के लिए काबिलियत के आधार पर नौकरी पाना असम्भव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य है। उनका एक्टिविज्म भी इसका एक कारक बना। ये किताब उनके 14 वर्षों के अध्यापन के दौरान उनके द्वारा उनकी अपनी डायरी में दर्ज़ किया गया ब्यौरा है। डायरी का पहला पन्ना अगस्त 2010 का है और आखिरी 06 दिसंबर 2023 का। 

उनकी ये पुस्तक दो मुख्य बिंदुओं पर केंद्रित है। एक, दिल्ली विश्विद्यालय में एडहॉक व्यवस्था और दो, नियुक्तियों में वंचित तबकों के लिए आरक्षण रोस्टर। लेकिन इन दो बिंदुओं पर केंद्रित होते हुए भी ये अपने समय और समाज को भी रेखांकित करती है। समकाल उसमें साथ-साथ दर्ज़ होता चलता है।

इन दो केंद्रीय बिंदुओं के इर्द गिर्द वंचित तबके और अन्याय से पीड़ित आम आदमी के दुख-दर्द और संघर्षों की छोटी-छोटी कहानियों के सूक्ष्म ब्यौरे कथ्य को अधिक मार्मिक और सघन बना देते हैं।

बहुत ही सहज और सरल भाषा में बिना किसी अभिव्यंजना के अभिधा में वे अपनी बात कहते हैं। लेकिन विषय इतना गंभीर और ज़रूरी है कि बात सीधे दिल पर चोट करती है। दरअसल ये हमारी या हमारे इर्द गिर्द रहने वाले हर व्यक्ति की व्यथा कथा है।

लेकिन इस किताब की एक सीमा है। बावजूद इसके कि किताब में एडहॉक लोगों के साथ अन्याय और कठिनाइयों की बात वे बखूबी उठाते हैं, इस समस्या के मूल में नहीं जाते और इस पर उतनी गंभीरता या विस्तार से विचार नहीं करते जितनी गंभीर ये समस्या है। या तो वे अपने प्रति अन्याय को शीघ्रातिशीघ्र सबके सामने लाने की उत्कंठा से प्रेरित होंगे या अपने प्रति हुए अन्याय से मिली सहानुभूति का लाभ लेना चाहते हो। वे दिसंबर 23 में नौकरी से निकाले जाते हैं और 8 फरवरी 2024 को किताब का पहला संस्करण आ जाता है। शायद उन्होंने इस किताब को लाने में जल्दबाजी की। एक वजह ये भी हो सकती है कि उनके लिए एडहॉक व्यवस्था से अधिक महत्वपूर्ण पिछड़े और दलित वर्ग की समस्याओं को रेखांकित करना हो।

जो भी हो एडहॉक व्यवस्था पर बात करना भी बहुत ज़रूरी है।

एडहॉक व्यवस्था एक पुरानी सरकारी व्यवस्था है। ये व्यवस्था सरकार की लालफीताशाही का नतीजा थी। क्योंकि सरकारी महकमों में स्थाई व्यवस्था करने में पर्याप्त समय लग जाता है। अतः जब तक स्थाई व्यवस्था हो, तब तक तदर्थ नियुक्ति से काम चलाने की व्यवस्था की गई। क्योंकि ये स्थायी नियुक्ति नहीं होती थी,इसकी चयन प्रक्रिया आसान और स्थानीय रखी गई। आगे चलकर इस व्यवस्था का भरपूर दुरुपयोग किया जाना था और इसे भ्रष्टाचार और नौकरी में बैकडोर एंट्री का जरिया भी हो जाना था। कम से कम शिक्षा विभाग में एडहॉकवाद खूब चला। और शिक्षण कार्य में तमाम नाकाबिल लोग घुस गए। शिक्षा में गिरावट के तमाम कारणों में एक कारण ये भी था। ना केवल प्राइवेट माध्यमिक विद्यालयों में बल्कि डिग्री कालेजों में भी प्रबंधन ने अपने परिवार वालों को, सगे संबंधियों को या फिर पैसे लेकर एडहॉक नियुक्ति दी। ये सभी कुछ साल एडहॉक सर्विस कर न्यायालय का दरवाजा खटखटाते और और स्थाई नियुक्ति पा जाते। ये बात मैं उत्तर प्रदेश के संदर्भ में कह रहा हूं। उत्तर प्रदेश में शिक्षा की क्या स्थिति है ये किसी से छुपी नहीं है। कहने को ये कहा जा सकता है कि स्थाई नियुक्ति में भी गड़बड़ियां हो सकती हैं और होती भी हैं। लेकिन एडहॉक व्यवस्था  इन गड़बड़ियों को करने का बहुत ही सरल और आसान रास्ता है। ये प्रक्रिया बैकडोर एंट्री यानी चोर दरवाजे से नौकरी पाने की सुविधा देती है।

यहां याद रखना चाहिए कि 'एडहॉक' एक प्रक्रिया भर नहीं है बल्कि एक मनोवृति है जिसने पूरी प्रसाशनिक व्यवस्था को बुरी तरह जकड़ रखा है। ये एक ऐसी व्यवस्था है जो शोषण को पोषित करती है। जो अंततः संस्था को और व्यक्ति को बर्बाद कर देती है। और ये एडहॉकिज़्म यथास्थितिवाद के साथ मिलकर संस्थाओं को बर्बाद कर रहा है। पहले सबसे आसान और बैकडोर की हिमायती प्रक्रिया एडहॉक के माध्यम से अपनी मनचाही व्यवस्था बना लो और उसके बाद उसे अनंत काल तक चलने दो।

इसका एक सबसे बड़ा उदाहरण प्रसार भारती है। इस तदर्थवाद और उसके सहोदर यथास्थितिवाद ने देश की दो प्रीमियर संचार संस्थाओं आकाशवाणी और दूरदर्शन और विशेष रूप से आकाशवाणी को बर्बादी के कगार पर पहुंचा दिया है। ये इसलिए कि एडहॉकवाद और कैजुअल अप्रोच द्वारा इन संस्थानों के कार्यक्रम निर्माण के लिए उत्तरदाई प्रोग्राम कैडर को बर्बाद किया जा रहा है और कर दिया गया है।

कैसे? आइए समझने का प्रयास करते हैं।

प्राइवेट मीडिया के आने से पहले आकाशवाणी और दूरदर्शन ही संचार माध्यम थे जो देश की 90 फीसद से ज़्यादा आबादी और क्षेत्रफल को आच्छादित करते थे। ये दोनों सरकारी विभाग थे और सरकार के नियंत्रण में थे। विपक्ष का आरोप था कि ये दोनों संस्थान पक्षपात करते हैं। ये विपक्ष को कम स्थान देते हैं और सरकार के भोपू की तरह काम करते हैं। ज़ाहिर है ये आरोप काफी हद तक सही भी था। मांग हुई कि इन संस्थाओं को स्वायत्त किया जाय बीबीसी की तर्ज़ पर। कई आयोगों और कमेटी की सिफारिशों के बाद 1990 में इन संस्थाओं को स्वायत्त बनाने वाला बिल संसद में पास हुआ और सात साल बाद 1997 में 24 नवंबर को प्रसार भारती बोर्ड का गठन हुआ। आकाशवाणी व दूरदर्शन प्रसार भारती को सौंप दिए गए।

बिल के पास होने और प्रसार भारती बोर्ड के गठन में लगभग सात साल का फासला था। लेकिन कमाल की बात ये है कि इतना समय मिलने के बावजूद इसके बोर्ड का गठन जल्दबाजी में किया गया फैसला था जिसे आधी-अधूरी तैयारी के साथ शुरू किया गया था। इसमें आगे के कर्मचारियों की भर्ती , उनकी सेवाओं,पुराने कर्मचारियों की स्थिति, उनके प्रमोशन, सेवा शर्तें आदि के बारे में कुछ भी तय नहीं हुआ था। और कमोवेश आज भी वही स्थिति है। जो भी बने या बाद में बने उनमें इतनी अनिश्चितता और अस्पष्टता थी कि वे आगे चलकर और ज़्यादा स्थिति खराब करने वाले थे।

नए कर्मचारियों की भर्ती के लिए कोई निकाय प्रसार भारती के पास नहीं था। और आज भी नहीं है। लंबे समय तक नियुक्तियां हुई ही नहीं। यूपीएससी ने ये कहकर इनकार कर दिया कि हमारा काम सरकार के विभागों के लिए नियुक्ति करना है ना कि स्वायत्त संस्था के लिए काम करना। साल 2015 में भर्ती हुईं। ये भर्तियां बहुत ही कैज़ुअल तरीके से हुईं। इसमें इतनी ज़्यादा विसंगतियां थीं। ये भर्तियां एसएससी से करवाई गईं। इसमें प्रसारण निष्पादक की भर्ती तो ठीक है क्योंकि पहले से ही इन की भर्ती यही एजेंसी करती रही थी। लेकिन कार्यक्रम अधिकारियों की जो कि राजपत्रित अधिकारियों होते हैं, नियुक्ति भी इसी एजेंसी ने की। सबसे दयनीय बात ये थी कि इन दोनों पदों की का एक ही भर्ती एक ही एग्जाम द्वारा हुई। बस जो स्नातकोत्तर थे उन्हें पैक्स के लिए अर्ह माना गया,बाकी सब को ट्रैक्स के लिए। हुआ ये कि बहुत सारे अभ्यर्थी जो मेरिट लिस्ट में ऊपर थे वे निचले पद ट्रैक्स में चयनित हुए और जो मेरिट में नीचे थे वे ऊंचे पद पैक्स के लिए चयनित हुए। ये प्रोग्राम कैडर की प्रसार भारती की एकमात्र भर्ती थी। इसमें भी चयनित लगभग एक चौथाई लोगों ने नौकरी छोड़ दी। हां, इससे पहले 2007 के आसपास विशेष नियुक्ति हुई थीं। 

इस भर्ती की गंभीरता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि कार्यक्रम अधिकारियों की पोस्ट जो कि राजपत्रित होते थे,डिग्रेड करके अराजपत्रित कर दिया गया। अब प्रसार भारती में दो तरह के कार्यक्रम अधिकारी हो गए। एक वे जो पहले से थे वे राजपत्रित थे। । दूसरे वे जिन्हें प्रसार भारती ने चुना, वे अराजपत्रित रह गए। एक ही कैडर या पद पर दो तरह के अधिकारी।

एक और तो नई भर्तियां प्रोग्राम कैडर में नहीं हुई तो दूसरी और लगातार लोग सेवानिवृत होते रहे। इससे कई तरह की विसंगतियां पैदा हुईं।

एक, प्रोग्राम कैडर में लोगों की भारी कमी हो गई। जो लोग बचे उन पर काम का बोझ बहुत अधिक बढ़ गया। स्वाभाविक था कार्यक्रम की गुणवत्ता प्रभावित हुई।

दो, संस्थान का मूलभूत स्वरूप ही बदल गया। बीबीसी की तर्ज़ पर बनाया गया प्रसार भारती उसके एकदम उलट गया। बीबीसी में कुल मैन पॉवर का 80 फीसद कार्यक्रम के लोगों का है और 20 फीसद में बाकी सब लोग। यहां कार्यक्रम के लोग 20 फीसद भी नहीं बचे। देश भर में 400 से भी ज़्यादा केंद्रों पर कुल मिलाकर लगभग दो हज़ार भी कार्यक्रम कैडर के लोग नहीं हैं।
 
कमाल की बात ये है कि प्रसार भारती ने करोड़ों रुपए खर्च करके एक प्राइवेट कंपनी शायद अर्नेस्ट यंग से प्रसार भारती में मैन पावर ऑडिट कराया। पर इतना खर्च करने के बाद भी आज तक उस रिपोर्ट को लागू करना तो दूर,उसे पब्लिश तक नहीं किया गया। ये तदर्थवाद का एक और उदाहरण है।

दरअसल प्रसार भारती के कर्मचारियों के तीन विंग हैं -कार्यक्रम,अभियांत्रिकी और प्रशासनिक। अभियांत्रिकी विंग में सबसे अधिक कर्मचारी हैं। इसके दो कारण हैं। एक लगातार तकनीकी विकास के कारण मैन पावर की उतनी जरूरत नहीं रह गई है जितनी पहले थी। हालांकि पदों में अभी भी किसी प्रकार की कटौती नहीं हुई। दो, तकनीकी विकास के चलते और नई तकनीकी के आगमन के कारण बहुत सारे रिले केंद्र बंद कर दिए गए जिनकी बदली हुई परिस्थितियों में कोई जरूरत नहीं रह गई थी। रिले सेंटर होने के कारण यहां पर केवल अभियांत्रिकी वर्ग के लोग ही तैनात थे। वे अब सरप्लस हो गए और उन पर छंटनी का खतरा मंडराने लगा। उन्हें हर कैडर के खाली पदों पर ना केवल एडजस्ट किया गया बल्कि बहुत सारे पद सृजित भी किए गए। 

दूसरी और कार्यक्रम कैडर में नई भर्ती ना होने या बहुत कम होने से बहुत सारे पद रिक्त पड़े रह गए और अंततः उनको खत्म कर दिया गया या दूसरे कैडर की भेंट चढ़ा दिया गया।

एक बात ये भी कि प्रसारण के घंटे बढ़ाए जा रहे हैं। उसके लिए और ज्यादा कार्यक्रमों के निर्माण की जरूरत है। दूसरी ओर प्रोग्राम कैडर में लोग लगातार कम हो रहे हैं। इसका सीधा प्रभाव ये हुआ कि जो बचे लोग थे उन पर काम का अतिरिक्त बोझ पड़ा। ये बोझ थोड़ा नहीं बहुत अधिक था। इससे कार्यक्रमों की गुणवत्ता पर फ़र्क पड़ना स्वाभाविक था।

प्रोग्राम कैडर का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि पहले आकाशवाणी का महानिदेशक प्रोग्राम कैडर का ही होता था। आज की तारीख में प्रोग्राम का कोई भी व्यक्ति उप निदेशक से ऊपर के पद पर नहीं है। वे भी गिनती के बीसेक।इसका कारण ये है कि कार्यक्रम के अधिकारियों के प्रमोशन किए ही नहीं गए या उसमें इतने अड़ंगे लगा दिए गए कि वे हुए ही नहीं। इससे पैंतीस साल की नौकरी वाले लोग बिना किसी प्रमोशन या एक प्रमोशन के साथ रिटायर होते गए। ऊपर के पदों पर वे जा ही नहीं पाए। कमाल की बात ये कि जो प्रमोशन भी हुए वे रेगुलर नहीं होते बल्कि एडहॉक होते और उसी से सेवानिवृत होते जाते। यहां उल्लेखनीय ये है कि बाकी कैडर में नियमित रूप से प्रमोशन होते रहे और वो भी रेगुलर ना कि एडहॉक।

 प्रोग्राम कैडर के लोगों का प्रमोशन ना होने का परिणाम ये हुआ कि कार्यक्रम कैडर के इन ऊपर के सभी पदों पर या तो अभियांत्रिकी कैडर के लोग आ गए या फिर  बाहर से प्रतिनियुक्ति पर आए लोग बैठा दिए गए। मजे की बात ये है कि निर्णय लेने वाले इन महत्वपूर्ण पदों पर प्रतिनियुक्ति या अभियांत्रिकी कैडर के लोगों की कार्यक्रमों की अंतर्दृष्टि या तो है ही नहीं या बहुत ही कैजुअल तरीके की है। कम से कम वैसी तो नहीं ही है जैसी प्रोग्राम कैडर के लोगों की होती है या जैसी प्रोग्राम के लिए होनी चाहिए।

इससे दो तरह की समस्या हुईं। एक, या तो ये अधिकारियों  कार्यक्रम की तरफ से उदासीन रहे। इससे कार्यक्रम के मसले उपेक्षित होते गए। दो, या उनका गैर जरूरी हस्तक्षेप हुआ। इससे एक ओर प्रोग्राम कैडर के लोगों को अपनी साख और अधिकार बचाने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा खर्च करनी पड़ी,दूसरी ओर कार्यक्रम और उसके मसले उपेक्षित होते गए। इसका असर स्वाभाविक रूप से कार्यक्रमों की गुणवत्ता पर पड़ना था।

आखिर ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर प्रोग्राम कैडर में मैनपावर की कमी को कैसे पूरा किया जा रहा है।

दरअसल इसके लिए भी बहुत ही कैजुअल तरीका प्रयुक्त किया जा रहा है। ये कमी कैजुअल मैन पावर के द्वारा पूरी की जा रही है। ये भी एक तरह का एडहॉकवाद का ही एक रूप है। जो कैजुएल्स का पैनल बनता है,उसमें युवाओं के लिए जीवन यापन की बड़ी संभावना नहीं बनती है। उनकी महीने में अधिकतम छ बुकिंग हो सकती है। और कम से कम सालों साल कोई बुकिंग नहीं। आप एक तरफ नए लोगों को ट्रेंड करने में अपने रिसोर्सेज को खर्चते हैं और वो बेहतर अवसर पाते ही दूसरी जगह चला जाता है। इतना खर्च करने और मेहनत करने के बाद टैलेंट बाहर चला गया। कैजुअल में बहुत सारा ऐसा टैलेंट होता है जिसे अगर बेहतर अवसर प्रसार भारती में मिले तो वे बहुत अच्छा कर सकते हैं और प्रोग्राम कैडर को बेहतरीन बनाया जा सकता है। लेकिन जब बोर्ड का पूर्णकालिक प्रोग्रामर के प्रति ही रवैया कैजुअल हो तो कैजुअल मैनपावर की कौन कहे।

प्रसार भारती के एडहॉकवाद का एक बड़ा उदाहरण ये है कि वो एक निश्चित निर्णय अभी तक नहीं ले पाया है। और प्रोग्राम कैडर की ये सबसे बड़ी दुविधा हो गई है। ये चयन प्रसार भारती को ' पब्लिक ब्रॉडकास्टर' बनाए रखने और ' कमाऊ संस्था' बनाने के बीच का चयन है। एक तरफ वे इस पर से पब्लिक ब्रॉडकास्टर होने का ठप्पा भी नहीं हटाना चाहते हैं और दूसरी और उससे कमाई भी करना चाहते हैं। एक तरफ वे सरकार का भोंपू भी बने रहते हैं और दूसरी तरफ अपने को स्वायत्त संस्था का लेबल भी देना चाहते हैं। एक तरफ प्रोग्राम कैडर को साठ सत्तर साल पुराने पब्लिक ब्रॉडकास्टर वाले एआईआर मैनुअल से बांधने रखा गया है, तो दूसरी ओर उनके लिए साल दर साल राजस्व अर्जन के बड़े बड़े लक्ष्य तय किए जा रहे हैं। प्रोग्राम कैडर है कि उसे समझ ही नहीं आता वो पब्लिक कल्याण के लिए कार्यक्रम करे या राजस्व अर्जन के लिए।

बोर्ड की कैजुअल और एडहॉक दृष्टि और विचारों की विसंगति का सबसे अच्छा उदाहरण उसकी नवनिर्मित क्लस्टर व्यवस्था है। एक तरफ सब कुछ केंद्रीकृत किया जा रहा है। स्थानीय महत्व के निर्णय तक अब केंद्र स्तर पर निदेशालय या प्रसार भारती बोर्ड/सचिवालय को दे दिए गए हैं। कार्यक्रम को स्थानीय स्तर से खत्म करके राज्य स्तर पर और केंद्र स्तर पर करने का प्रयास किया जा रहा है। इसकी शुरुआत मध्य प्रदेश से हुई। जहां स्थानीय केंद्रों के कार्यक्रम चंक खत्म करके मध्य प्रदेश रेडियो के नाम से राज्य स्तरीय कार्यक्रम शुरू किया गया। स्वाभाविक है इससे स्थानीय प्रतिभाओं के अवसर कम हुए। ऐसा हर जगह होने की योजना थी,लेकिन हो हल्ला हो जाने के कारण योजना खटाई में पड़ गई। दूसरी तरफ दो चार केंद्रों को मिलाकर एक क्लस्टर व्यवस्था की गई है। यानी हर राज्य में अब कई क्लस्टर ऑफिस भी काम करने लगे हैं। कहा ये गया कि इससे निर्णय लेने की शक्ति को विकेंद्रित किया जा रहा है। लेकिन हुआ उलटा। केंद्रों  के अधिकार क्लस्टर को सौंप दिए गए। निर्णयों में अनावश्यक देरी होने लग गई लालफीता शाही चरम पर पहुंच गई।

कुल मिलाकर प्रसार भारती में प्रोग्राम कैडर बहुत दयनीय स्थिति में है। प्रसार भारती बोर्ड और उसके नियंताओं के एडहॉक़िज़्म ने उसे रसातल में पहुंचा दिया है। प्रोग्राम कैडर अपनी अस्वाभाविक मौत मर रहा है। इसे तत्काल प्राणवायु पहुंचाने की नितान्त आवश्यकता है। जान लीजिए प्रोग्राम कैडर की मृत्यु दरअसल देश के दो प्रीमियर संचार संस्थानों की मौत भी है। क्योंकि इनकी प्राणवायु कार्यक्रम और गुणवत्ता वाले कार्यक्रम ही है। और प्रोग्राम कैडर के बीमार होने का मतलब इन संस्थानों का बीमार होना और कैडर की मृत्यु इन संस्थानों की मृत्यु है। 




Friday 23 August 2024

सुनो जोगी व अन्य कविताएं




आकाशवाणी में काम करते हुए कुछ बहुत ही जीनियस और होनहार युवाओं के साथ काम करने का अवसर मिला। ऐसे युवा जिन्हें आगे चलकर अपने-अपने क्षेत्रों में बेहतरीन काम करना था और एक मकाम हासिल करना था। 

उनमें एक नाम संध्या नवोदिता है।

संध्या की पहली पहचान एक बहुत ही 'आत्मविश्वास से भरी लड़की' है जिसे अपने होने और अपनी काबिलियत पर पूरा भरोसा है।

दूसरी पहचान एक बेहतरीन रेडियो ' कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता ' की है। वो रेडियो से पहले पहल  युववाणी कॉम्पियर के रूप में  जुड़ीं। वे इस कार्यक्रम की शानदार स्क्रिप्टिंग करती और बेहतरीन तरीके से पेश करतीं। रेडियो में नई होने के बावजूद उनमें आत्मविश्वास झलकता। शायद वे पहले से ही मंच संचालन में दक्ष थीं। और ये आत्मविश्वास रेडियो पर कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए झलकता।

तीसरी पहचान एक 'एक्टिविस्ट' की है।  इलाहाबाद में कहीं भी कोई महत्वपूर्ण कार्यक्रम हो या धरना-प्रदर्शन हो,एक चेहरा हमेशा मौजूद होता। और वो चेहरा  संध्या का होता। वे हर जगह मौजूद होतीं। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो उन्होंने सोनभद्र जिले में कन्हर नदी पर बनने वाले बांध के लिए भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध आंदोलन में भी सक्रिय भाग लिया और वहां के हालातों पर एक महत्वपूर्ण  रपट भी जारी की। 

चौथी पहचान एक बहुत ही संवेदनशील और आला दर्ज़े की युवा 'कवयित्री' की है। 

संध्या की जो बात सबसे ज़्यादा मुत्तासिर करती हैं वे छोटे से छोटे मनोभावों को बड़ी आसानी से पकड़ती हैं। खासकर विसंगतियों को। और फिर उसको बहुत सॉफ्ट से लहज़े में लेकिन मारक जुमलों में ज़ाहिर भी कर देती हैं।

क्योंकि वे एक्टिविस्ट हैं तो जाहिर सी बात है उनकी कविता में  राजनीतिक स्वर होना स्वाभाविक है। उनकी कविता है 'बाश्शा'। कविता जो सन 14/15 के आसपास पढ़ी गई होगी। लेकिन आज भी स्मृति में ताज़ा है। दस सालों बाद भी ये कविता उतनी ही मारक है। इतने सालों में  मानो कुछ भी ना बदला हों। इसमें बादशाह के लिए स्लैंग शब्द 'बाश्शा' का प्रयोग जिस तरह से किया गया है, वो अद्भुत है। इस एक शब्द ने कविता को बेहद मारक बना दिया है।

'....मुलुक बाश्शा का , हुकुम बाश्शा का/ 

सो बस रौंदने चला आ रहा है बाश्शा/ 

इतिहास को, भूगोल को, पूरी कायनात को../

बाश्शा के शौक अजीब हैं/ 

बाश्शा की भूख अजीब है/ 

बाश्शा की प्यास अजीब है।'


लेकिन राजनीतिक स्वर उनकी कविताओं का मुख्य स्वर नहीं है। उसका फलक विशाल है। वे देश, समाज और अपने समय से गुजरती हुई प्रेम तक जाती हैं और एक बहुत ही कोमल संसार की निर्मिति करती हैं।

इस बात को उनके अभी हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह 'सुनो जोगी और अन्य कविताएं' में लक्षित किया जा सकता है। संग्रह में दो भाग हैं। पहले भाग 'एक दिन हमने खेल किया था' में विविध विषयों पर 55 कविताएं हैं। जबकि दूसरे  भाग 'सुनो जोगी' में इसी नाम की कविता श्रृंखला की बहुत  ही चर्चित 45 कविताएं हैं।

उनकी कविताओं में समय किसी इतिहास की तरह दर्ज़ होता चलता है। 'देश-देश' का अंश देखिए-


'यह देश जो अपने खेतों में झूमता रहा/ 

जंगलों में,बीहड़ों में,गॉवों में पलता रहा/ 

कब उग आया कंक्रीट के कैक्टसों में/ 

और डेढ़ सौ खम्बों वाली एक विशालकाय गोल इमारत में कैद हो गया/ 

यह देश/ 

क्रिकेट के भगवानों/ 

सदी के महानायकों/ 

आइडलों और आइकनों के चक्रव्यूह में/ 

मासूम बच्चे सा फँसा लिया गया।'


अफ्रीका के सुप्रसिद्ध साहित्यकार चिनुआ अचेबे का एक प्रसिद्ध कथन है 'जब तक हिरण अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, तब तक हिरणों के इतिहास में शिकारियों की बहादुरी के किस्से गाए जाते रहेंगे'। ये एक सर्वकालिक और सार्वभौमिक सत्य है। संध्या इस कथन को भारतीय संदर्भ में कितनी ख़ूबसूरती विस्तारित करती हैं अपनी कविता 'चिनुआ अचेबे के नाम' में कि

'हिरण जाएंगे जान से

ठगे जाएंगे

घायल किए जाएंगे पीढ़ियों से

इतिहास में साबित होंगे सर्वोत्तम शिकार

मुलायम मांस और अलबेली खाल वाले

मासूम,सुंदर,चितचोर

अपनी हत्या के लिए खुद ही दोषी

 करार दिए जायेंगे

हिरण जब भी दायर करेंगे मुकदमा शिकारियों के खिलाफ

 बदतमीज,नाकारा,विकास विरोधी कहे जाएंगे। 


वे समसामयिक घटनाओं पर केवल पैनी नज़र ही नहीं रखतीं, बल्कि बेहद मार्मिक संवेदना से उसे दर्ज़ भी करती हैं-

'आरे के पेड़ कटते हैं

अमेज़न के जंगल जलते हैं

....एक पेड़ कटता है/

 सौ बरस का इतिहास कटता है/ 

पानी कटता है/ 

शर्म कटती है/ 

विवेक कटता है/

 प्यार कटता है...'


 स्त्री विमर्श उनकी कविताओं का एक मुख्य स्वर है। लेकिन वे स्त्री विमर्श के बने बनाए रूढ़ ढांचे को तोड़ती हैं और स्त्री के दुःख दर्द को,सवालों को तरल संवेदना के साथ प्रस्तुत करती हैं-

'औरतों ने अपने तन का/ 

सारा नामक और रक्त/ 

इकट्ठा किया अपनी आंखों में/ 

और हर दुख को दिया/ 

उसमें हिस्सा/ 

हज़ारों साल में बनाया एक मृत सागर/ 

आंसुओं ने कतरा कतरा जुड़कर/

 कुछ नहीं डूबा जिसमें/

औरतों के सपनों और उम्मीदों/ 

के सिवाय।'


वे इस संग्रह की पहली ही कविता में ही लिखती हैं 'सबसे ज़्यादा मुखर हो जाऊंगी मैं आपके मौन में'। उनकी कविताएं मुखर मौन की तरह ही आती हैं। उनकी कविताएं कहीं भी लाऊड नहीं होती। वे बहुत सहजता और धीमे स्वर में अपनी बात कहती हैं लेकिन अधिकतम बेधक क्षमता के साथ।

 वे बहुत ही सहज और कम शब्दों में गंभीर से गंभीर बात कह जाती हैं। देश की,समाज की, उनकी विसंगतियों की, विडंबनाओं की। कमाल ये है कि परिस्थितियां चाहे जितनी विषम हों, निराश करने वाली हों, उनकी कविता एक आशा में खत्म होती हैं-

'ऊष्मा से भरा हुआ दिन हुआ जा सकता है/

ठंड की नरम भाप भी/ 

सवेरे की मीठी ओस भी/

आदमी को भरोसे की आवाज होना चाहिए।'


संग्रह के दूसरे भाग 'सुनो जोगी' में इसी नाम की श्रृंखला की 45 प्रेम कविताएं  हैं।

ये अद्भुत प्रेम कविताएं हैं। ये कविताएं बाकी सभी प्रेम कविताओं से इस  मायने में अलग हैं कि दैहिक और भौतिक प्रेम की कविताएं ना होकर प्रेम के उच्चतर स्तर की कविताएं हैं। ऐसी कविताएं जहां  व्यष्टि में समिष्ट समाहित हो जाता है। वैयक्तिक कामनाओं में विश्व कल्याण समाहित हो जाता है।

भारतीय संस्कृति में जोगी की अवधारणा एक ऐसे सिद्ध पुरुष की है जो सांसारिक रागद्वेष से ऊपर उठ गया है। सामान्य जन से ऊपर। सिद्ध। ईश्वर प्रेम में अनुरक्त। कबीर के जोगी सा। 'सुनो जोगी' का जोगी भी ऐसा ही है -

 'कबीर के रास्ते आते हो तुम/ 

सांवरिया को खोजते/ 

राग बरसाते हो / 

जादू जगाते हो/ 

जोगी दीवाना किए जाते हो।


उनकी भाषा में ताजगी हैं। उन्होंने कमाल के बिंब और मेटाफर प्रयोग किए हैं। एक दम नए। एकदम अनूठे। ऐसे जैसे अब तक किसी ने ना किए। ऐसे जो अब तक कवियों की नज़र से ओझल थे। उनकी कल्पना से परे कि

 'लंबी परछाइयाँ,लंबे डग/ 

पलक झपकते धरती  नापते हो/ 

जो है तुम्हारे गुरुत्व से ढकी/

 पखावज बजाते हो/ 

जादू जगाते हो/ 

मल्हार गाते हो/ 

सारी चेतना पर फूंक देते हो मंतर/'


उनकी कविताओं में कमाल की लय है। कुछ कविताओं को पढ़ कर संगीत का सुख मिलता जैसे आप केदारनाथ अग्रवाल को पढ़कर पाते हैं 'मांझी ने बजाओ बंशी/ मेरा मन डोलता/ जैसे मेरा तन डोलता'। संध्या की कविता देखिए- 

'एक कहानी मैंने लिखी एक कहानी तू भी पढ़/

आंसू आंसू मैंने लिखी पानी पानी तू भी पढ़/'


सुनो जोगी कविताएं प्रेम की अद्भुत अभिव्यक्ति हैं

'आंखों की तरलता,तुम बहो/ 

मुस्कान,तुम खिलो/

हँसी,तुम छा जाओ/ 

स्पर्श,तुम जादू बन जाओ/

उंगलियों,तुम वाद्य पर बारिश बन बजना/

आवाज, तुम झरने सी होना/

आत्मा तुम अरुणोदय बनना..... 

सुनो मन रंगना।'


तो आपको भी प्रेम के रंग में मन को रंगना है। आपको भी प्रेम में डूब जाना है। तो एक बार 'सुनो जोगी और अन्य कविताओं' से होकर ज़रूर गुज़रना चाहिए।




गति जमा फैशन फ्लो जो

  'हम उनकी नींद से हैरत में हैं,उनकी योग्यता के समक्ष विनत है और उनकी स्टाइल की गिरफ्त में हैं।'  ऐसा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ...