Sunday 21 April 2019

ये महासू की धरती है



ये महासू की धरती है

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देहरादून आए एक माह से ज़्यादा बीत चुका है ।लेकिन एक खास किस्म का खालीपन अभी भी मन में पसरा पड़ा है। जब भी किसी एक जगह से विस्थापित होकर दूसरी जगह स्थापित होते हैं तो आपको अपने लिए जगह बनाने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ती है। आपको अपने लिए एक स्पेस क्रिएट करना होता है। ये स्पेस आपको यूं ही सहजता से नहीं मिल जाता। लोग आपको या तो स्पेस देते नहीं हैं या फिर देते हैं तो इतना कम कि वो खाँचा आपके लिए बहुत छोटा है। उसमें आप फिट नहीं हो पाते। अपनी काबिलियत से,मेहनत से अपने लायक स्पेस बनाना पड़ता हैं ।आपको खुद को साबित करना पड़ता है। तब जाकर आपकी उपस्तिथि दर्ज होती है। इसीलिए किसी भी नई जगह बनाने में एक लंबा अरसा बीत जाता है। आप हमेशा संघर्षरत रहते हैं। समय कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता।आप एक भराव में रहते हैं हमेशा।

     पर दून की बात कुछ और है। यहां स्पेस की कोई समस्या ही नहीं है। स्पेस लोगों के दिलों में भी और बाहर भी खूब है। लोग कुछ और जगहों की तरह तंग दिल जो नहीं हैं।
यहां लोग आपको आपकी क़ाबिलियत से ज़्यादा स्पेस देते हैं। खुद उनके दिलों में जो स्पेस है। दरअसल वे प्रकृति पुत्र हैं। उन्होंने देना सीखा है और खूब खूब देना सीखा है।अब ये आपके ऊपर है जो ज़्यादा स्पेस मिला है तो उसको आपको खुद कैसे भरना है। ये शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में बसा शहर है। चारों और पहाड़ियां हैं। वे अक्सर धूसर रंग की दिखाई  देती हैं। ऐसा महसूस होता है मानो इन पहाड़ों पर पड़ने वाली शुभ्र बर्फ पिघलकर यहां के लोगों के मन को साफ कर निष्कलुष कर देती है और बदले में मन की सारी कलुषता सोख कर खुद को धूसर कर लेती है। क्या ही संयोग है कि ये शिवालिक पहाड़ियां महासु (महाशिव) का निवास स्थल है और ये बात शायद उसी परंपरा से आती है। ठीक वैसे ही जैसे शिव दुनिया को बचाने के लिए विष पी लेते हैं और नीलकंठी हो जाते हैं।
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देहरादून प्रवास डायरी_एक






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