टीवी ना के बराबर देखा जाता है। रेडियो सुनाने का शौक है। कल रवीश का प्राइम टाइम नहीं ही देखा था। चर्चा हुई तो आज रिपीट टेलीकास्ट देखा। इस प्रश्न को दरकिनार करते हुए भी कि एनडीटीवी पर प्रतिबन्ध उचित है या नहीं,रवीश का ये कार्यक्रम विरोध प्रदर्शित करने की कलात्मक अभिव्यक्ति का नायाब उदाहरण है। ये दिखाता है कि एक विरोध को शालीन और अहिंसक रखते हुए भी कितना धारदार और मारक बनाया जा सकता है। दरअसल ये कार्यक्रम बहुत ही मुलामियत से अंतर्मन को परत दर परत छीलता लहूलुहान करता जाता है और आपको पता भी नहीं चलने देता। ये बहुत ही मुलामियत से धीरे धीरे गला रेतता है जिससे खून का फव्वारा नहीं फूटता,छींटें भी नहीं पड़ते बल्कि दीवार में पानी की तरह रिसता है और आत्मा तक को सीला कर जाता है। इरोम शर्मिला और ऐसे ही प्रतिरोध के तमाम प्रयासों को,जिनके आप हिस्सा नहीं रहे हैं या जिनको आपने नहीं देखा है यहाँ महसूस कर सकते हैं। हांलाकि यहां मैं अर्नब का ज़िक्र नहीं करना चाहता,फिर भी उसके हद दर्जे के लाउड और हिंसक कार्यक्रम के बरक्स रवीश के इस कार्यक्रम को रख कर देखिए तो समझ आता है अभिव्यक्ति को और प्रतिरोध को भी किस तरह कलात्मक बनाया जा सकता है और जबरदस्त प्रभावी भी। टीवी पर अनर्गल प्रलाप और शोर के इस दौर में रवीश का कार्यक्रम मील का पत्थर है। जियो रवीश जियो।
Saturday, 5 November 2016
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
एक जीत जो कुछ अलहदा है
आपके पास हजारों तमगे हो सकते हैं,पर कोई एक तमगा आपके गले में शोभायमान नहीं होता है। हजारों जीत आपके खाते में होती हैं, पर कोई एक जीत आपके...

-
हर शहर का एक भूगोल होता है और उस भूगोल का स्थापत्य ये दोनों ही किसी शहर के वजूद के लिए ज़रूरी शर्तें हैं। इस वजूद की कई-कई पहचानें होती है...
-
प्रिय भाई कैलाश और पंकज भाई आप लोगों को पता चल ही गया होगा कि वसंत आ चुका है। जब शहर में रहने वालों को पता चल गया है कि वसंत आ गया है तो आ...
-
आप चाहे जितना कहें कि खेल खेल होते हैं और खेल में हार जीत लगी रहती है। इसमें खुशी कैसी और ग़म कैसा। लेकिन सच ये हैं कि अपनी टीम की जीत आपको ...
No comments:
Post a Comment