मोहम्मद शाहिद का चला जाना केवल एक खिलाड़ी का चला जाना भर नहीं है। एक पूरे युग का चला जाना है।ये हॉकी की एक पूरी शैली का चले जाना है।ये भारतीय हॉकी के गौरव के प्रतीक का चला जाना है। क्रिकेट से पहले भारत की खेलों में पहचान हॉकी थी। हॉकी की पहचान खिलाड़ियों के कलात्मक खेल से थी। ये कलात्मकता खिलाड़ी के गेंद पर अद्भुत नियंत्रण से आती थी और ये अद्भुत नियंत्रण ड्रिब्लिंग से आता था। जिसमें भारतीय खिलाड़ी माहिर माने जाते थे।ध्यानचंद से लेकर धनराज पिल्लई तक। शाहिद उसी परम्परा के खिलाड़ी थे। उनका गेंद पर अद्भुत नियंत्रण था और गज़ब की तेजी भी। ये दोनों विशेषता मिलकर उन्हें एक लीजेंड बनाती थी। दरअसल वे हॉकी में दो युगों की संधिकाल के खिलाड़ी थे। उनके पहले का काल भारतीय हॉकी का स्वर्णिम युग और बाद का उसके पतन का। 1975 में भारत ने विश्व कप जीता था। उसके बाद भारतीय हॉकी का पतन शुरू होता है और 1980 में ओलिम्पिक जीत शानदार तरीके से जलते दिए की अंतिम भभक भर थी जिसे शाहिद और जफ़र की प्रतिभा और मेहनत ने संभव बनाया था। 1975 तक गोविंदा और अशोक की जोड़ी जिस शानदार आक्रमण पंक्ति का निर्माण करती थी, गोविन्द और अशोक के जाने के बाद खाली हुए उस स्थान को शाहिद और ज़फर की जोडी ने भरा था। दूसरी और वे उस संधि काल के खिलाड़ी थे जहां हॉकी विशुद्ध खेल से व्यवसायिकता में रूपांतरित हो रहा थी,जहां से हॉकी प्राकृतिक घास के मैदान से कृत्रिम घास के मैदान की ओर संचरण कर रही थी.जहां से हॉकी की कलात्मकता शक्ति में तब्दील हो रही थीऔर जहां से विशिष्ट हॉकी टोटल हॉकी की ओर बढ़ रही थी। ऐसे संधि काल में खेलना और उसमें सर्वाइव करना सबसे कठिन होता है। जाते हुए और आते हुए के बीच सामंजस्य बिठाना बहुत ही दुष्कर कार्य होता है।ऐसे समय में खेल के उच्च्तम स्तर तक पहुंचने का काम कोई लीजेंड ही कर सकता था।ये मो.शाहिद ने कर दिखाया था। सच में तुम्हारा यूँ असमय चले जाना बेसबब है।अलविदा।
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