Tuesday 23 July 2019

ये लड़की तो पारस है


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कभी आप राष्ट्रिय राजमार्ग 37 से गुवाहाटी से पूरब की तरफ जोरहाट की यात्रा कीजिए। पूरे रास्ते दोनों तरफ दूर दूर तक धान के खेत और चाय के बागानों की कभी ना खत्म होने वाली एक गहरी हरियाली और उसके पार समानांतर चलती पहाड़ों की श्रृंखला से समृद्धि के साथ चलते कॉरीडोर का भ्रम उत्पन्न होता है। भ्रम इसलिए कि पहली नज़र में आपको उस हरियाली के नीचे अभावों,गरीबी,दुखों और शोषण का स्याह रंग दिखाई नहीं देता है। इसी राजमार्ग पर जब गुवाहाटी से लगभग सवा सौ किलोमीटर की यात्रा कर चुके होते हैं तो नौगांव ज़िला आता है। इसी ज़िले में एक गांव है ढिंग। और इसी गांव में  जोमाली और रोनजीत दास नाम की एक कृषक दंपति है जो धान उगाते हैं और मेहनत करके उसके हरे रंग को पका के सुनहरे रंग में बदल देते हैं पर अपनी किस्मत में सुखों के सुनहरे रंग लाने में लाख कोशिशों के बावजूद  कामयाब नहीं हो पाते। लेकिन वे संयोग से अपने यहां एक ऐसा पारस पत्थर उत्पन्न करते हैं जो भले ही धान के हरे रंग को सुनहरे रंग में ना बदल पाए पर जहां भी उसके चपल कदम पड़ते हैं धातुओं का रंग सुनहरा और रुपहला होने लगता है। उस पारस का नाम 'हिमा रोनजीत दास' है।

हिमा ने पिछले बीस दिनों में यूरोपीय सर्किट में दो सौ और चार सौ मीटर की रेस में पांच स्वर्ण पदक जीते। 18 साल की उम्र में टेम्पेरे में पिछले साल जब  वे अंडर 20 विश्व चैंपियनशिप में 400 मीटर का स्वर्ण  पदक जीत रहीं थीं तो वे एक इतिहास बना रहीं थीं। ऐसा करने वाले वे पहली भारतीय एथलीट थीं। तब से वे लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं और आने वाले समय में वे एथेलेटिक्स में भारत की सबसे बड़ी उम्मीद बनकर उभरी हैं।
         
 फ़िलहाल वे अपने हाल के प्रदर्शन से चर्चा में हैं।दरअसल यूरोपीय सर्किट में ये प्रदर्शन अगर विशुद्ध खेल की दृष्टि से देखें तो कोई बड़ा प्रदर्शन नहीं है। जो भी स्वर्ण उन्होंने जीते उनमें से वे एक में भी अपना सर्वश्रेष्ठ समय नहीं  निकाल सकीं हैं। जिस 400 मीटर में उन्होंने गोल्ड जीता उसमें तीनों पदक भारतीय बालाओं ने जीते। विस्मया दूसरे और सरिता बेन गायकवाड़ तीसरे स्थान पर रहीं। दरअसल वे जिन प्रतियोगिताओं में भाग ले रहीं थी वे कोई बड़ी महत्वपूर्ण प्रतियोगिताएं थी ही नहीं और उसमें जो प्रतिद्वंदिता थी वो भी स्तरीय नहीं थी। इन प्रतियोगिताओं में अनस मोहम्मद ने भी स्वर्ण पदक जीते और अपने समय में सुधार किया। जबकि कई अन्य भारतीय खिलाड़ियों ने भी अच्छा प्रदर्शन किया। इन्हीं में से एक मे एम पी जाबिर ने 400 मीटर बाधा दौड़ में स्वर्ण जीता।फिलहाल जो प्रदर्शन है ,ये कटु सत्य है कि, उससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने की कोई संभावना नहीं है मेरा मतलब ओलंपिक से या इसी स्तर की अन्य प्रतियोगिता से है। दरअसल इस तरह के टूर एथेलेटिक्स संघ द्वारा सांस्कृतिक आदान प्रदान और खिलाड़ियों को एक्सपोज़र देने के लिए होते हैं। निसंदेह इससे खिलाड़ियों को बेहतरीन एक्सपोसर मिलता है। वे उनके तौर तरीके,स्टाइल,तकनीकी और माहौल से रूबरू होते हैं और एक बड़े स्टेज पर स्वयं को प्रस्तुत करने को तैयार होते हैं और उससे जो अनुभव खिलाड़ी को प्राप्त होते हैं वो सबसे बड़ा फ़ायदा होता है। वे अभी 19 साल की हैं और आने वाले समय में अगर उन्हें सही ट्रेनिंग मिली तो निसंदेह वे बेहतर करेंगी। इस समय की सबसे बड़ी जरूरत है कि उन्हें उम्मीदों के अतिशय बोझ में दबने से बचाना है।

दरअसल उनका हालिया प्रदर्शन  इस बात के लिए रेखांकित किया जाना चाहिए कि सुदूर उत्तर पूर्व की 55 किलो और 5 फुट 5 इंच लंबी दुबली पतली सी लड़की जिसके पिता अपनी लड़की को सिर्फ इसलिए अपने से कई सौ किलोमीटर दूर भेज देते हैं कि उसे तीनों समय भरपेट  भोजन मिलेगा,वो आज  अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एथेलेटिक्स में पदक जीतने की भारत की सबसे बड़ी आशा बन कर उभरी है। उसकी सफलता की कहानी स्वप्न सरीखी है। अभावों और विपरीत परिस्थितियों में हौसले और धैर्य को बनाये रख कर कैसे सफलता पाई जाती है,ये उससे सीखा जा सकता है। उस पर सोने में सुहागा ये कि एक स्टार बन जाने के बाद भी उसके भीतर की मानवीयता,उसके भीतर की खेल भावना मर नहीं जाती है। वो असम के लोगों के दुख दर्द को समझती है क्योंकि वो सब उसने खुद भोगा है और इसलिए अपनी सैलरी का आधा भाग असम के बाढ़ पीड़ितों के लिए दान कर देती है।
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उसकी सफलता और उदारता के लिए उसे सलाम करना तो बनता है ना।

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